शुक्रवार, 24 मार्च 2023

पात्रता

             गंगाधर का क्या हुआ, यह तो पहले ही जान गये थे लोग-अखबारों में छपी उस छोटी सी खबर के जरिये, लेकिन डॉक्टर मिश्र का क्या हुआ, इस सम्बन्ध में सिर्फ अफवाहें थीं। शहर के किसी भी अखबार में उनसे सम्बन्धित एक भी समाचार नहीं था, जबकि इस समय सब की जिज्ञासा के केन्द्र वे ही थे। ऐसे में स्वाभाविक था कि अफवाहों का बाजार गर्म होता। लोगों का तो यह भी कहना था कि अफवाहें ही सच हैं।...

         .....महामहोपाध्याय जी से डॉक्टरेट की उपाधि लेने की प्रेरणा ग्रहण की थी गंगाधर ने। ग्यारहवीं में पढ़ता था वह, जब आठ जगह से टेढ़े शरीर वाले महामहोपाध्याय जी को अचानक एक दिन सब ‘डॉक्टर साहब’ कहने लगे और कुछ ही महीनों के बाद उनकी नियुक्ति किसी डिग्री कॉलेज में हो गयी थी। विदाई के समय अष्टावक्र (पीठ पीछे सब यही कहते थे महामहोपाध्याय जी को) जी के गले से लटकते गुलाब के गजरों की महक पंडाल में फैल रही थी। उनका ललाट दिपदिपा रहा था और छात्रों के बीच बैठा गंगाधर खुद ‘डॉॅक्टर साहब’ बनने की प्रेरणा ग्रहण कर रहा था।

           कस्बे के महाविद्यालय से बी.ए. और एक आवासीय विश्वविद्यालय से एम.ए. कर लेने के बाद गंगाधर पी-एच.डी. के लिए गाइड की तलाश में निकला। ज्यादातर प्रोफेसरों ने मुलाकात ही नहीं की और जिन्होंने की, उन्होंने डिवीजन, फेलोशिप और पिता की आय के स्रोत से सम्बन्धित प्रश्न पूछे।

‘नहीं, नहीं! बिना फेलोशिप के कैसे करोगे?’

ट्यूशन कर के खर्च चलाते गंगाधर का डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने का सपना टूट गया था और वह क्लर्क ग्रेड की परीक्षाओं की तैयारी में लगा था, जब मित्र का पोस्टकार्ड मिला, जिसका एक वाक्य इस तरह था:

‘प्रथम श्रेणी में एम.ए. करके पी-एच.डी. में दाखिला लेने वालों को यह विश्वविद्यालय दो वर्ष के लिए  तीन सौ रुपये प्रतिमाह की फेलोशिप देता है।’

 कई बार पढ़ा उसने इस वाक्य को । ...प्रथम श्रेणी में एम.ए.! ...तीन सौ रुपये प्रतिमाह! ...यह विश्वविद्यालय! ...वह विश्वविद्यालय! ...तीन सौ किलोमीटर! ...किराया?

 तीसरे दिन किराये के पैसों का इंतजाम करके वह तीन सौ किलोमीटर दूर समस्त विद्याओं के उस महान अधिष्ठान के सिंहद्वार पर खड़ा था। चार दिनों तक मित्र के साथ साइकिल से विश्वविद्यालय के विशाल वृत्ताकार परिसर में बने शिक्षक-आवासों का चक्कर लगाते-लगाते वह फिर वहीं पहुँच जाता, जहाँ से चला होता। सब जगह एक जवाब-‘निर्धारित संख्या पहले से पूरी है। अभी नये शोधछात्र नहीं लिये जा सकते।’

एक उपन्यासकार प्रोफेसर, जिनकी एक किताब से गंगाधर प्रभावित था, पल भर के लिए लुंगी-बनियान में प्रकट हुए और अगले ही पल इस निवेदन के साथ दरवाजा बन्द कर लिया:

‘माफ कीजिए! मैं ब्लडशुगर और हाइपरटेंशन से इस तरह ग्रस्त हूँ कि आप से बात भी नहीं कर सकूँगा।’

तपती दोपहर में वे एक जलपान-गृह के सामने भौंचक खड़े थे विरल छाया वाले किसी पेड़ तले। साइकिल को इस तरह पकड़ रखा था दोनों ने, मानो वह एकमात्र सहारा हो।

‘आओ, चाय पीते हैं।’

 गंगाधर ने प्रश्नाकुल दृष्टि से मित्र की ओर देखा।

 ‘यह जलपान-गृह छात्रों के लिए बनाया गया है। यहाँ चीजें बाजार की तुलना में काफी सस्ती मिलती हैं। कूपन और स्वयंसेवा का नियम है।’

जलपान-गृह की सुन्दरता और सादगी से वह प्रभावित हो रहा था, लेकिन दिमाग बार-बार कहता- ‘यह तुम्हारे लिए नहीं है।’ इसी बीच मित्र ने काउंटर से दो कूपन खरीद लिये थे और दूसरे काउंटर पर जमा कर के दो-दो रसगुल्लों और चाय का ऑर्डर दे दिया था।

रसगुल्लों की दोनों प्लेटें लेकर आते मित्र के कंधे से लटकता झोला बार-बार असंतुलित हो रहा था। गंगाधर ने दीवाल पर लिखे स्वयंसेवा के निर्देश को फिर से पढ़ा और दौड़कर एक प्लेट पकड़ ली। रसगुल्लों और चाय से तन की थकान तो दूर हुई, लेकिन मन की बेचारगी जस की तस रही। इसी बीच उसका ध्यान सामने की मेज पर बैठे लड़कों की ओर गया। वे जलपान-गृह के कर्मचारियों को डाँट रहे थे और जबरन काम करा रहे थे।

‘अरे! यह तो स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन है!’

 -गंगाधर के मुँह से निकल गया।

‘उहँ! छोड़िए! हम लोगों से क्या मतलब?’

-मित्र ने दबी जबान में समझाया।

‘क्या ये भी यहाँ के विद्यार्थी हैं?’

‘हाँ।’

‘का जी? ए पाँड़े जी! आ त कहाँ जा रहे हैं?  तनिक बैठ लीजिए। हाल-चाल तो होना ही चाहिए।’

-वे जलपान-गृह से निकलने को थे, जब स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन करने वालों में से एक की तेज आवाज सुनायी पड़ी।

‘कुछ नहीं भैया, ये मेरे मित्र आये हैं पी-एच.डी. करने के लिए।’

‘तब? कुछ बात बनल?’

‘क्या बात बनेगी? किसी के अंडर में जगह ही नहीं है।’

‘मिसिरा जी से मिले कि नहीं?’

‘उनसे तो नहीं मिले।’

‘काहे...? अब्बे चलिए, एहीं बेरा।’

पल भर के लिए मित्र ने गंगाधर की आँखों में झाँका और अगले पल दोनों मित्र लड़कों की उसी टोली के पीछे-पीछे चलने लगे। डॉक्टर मिश्र ने बिना कुछ बोले फार्म पर हस्ताक्षर कर दिये थे। 

‘का जी? अब का निहार रहे हैं? चढ़ाइए गुरुदछिना! गुरू बाबा का सिग्नेचर हाइए गया। जाइए फारम जमा करिए।’

 -स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन करने वालों में से एक बोल पड़ा। बेहद अटपटी लग रही थीं उसकी बातें गंगाधर को। फिर उस ने डॉक्टर मिश्र का चेहरा देखा। मौन बैठे थे वे-स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन करने वाले की बातों का अनुमोदन करते हुए से। असहाय गंगाधर ने मित्र की ओर देखा। मित्र ने जेब में हाथ डाला और बँधी मुट्ठी से एक पचास का नोट पकड़ा दिया गंगाधर को। डॉक्टर मिश्र के चरणों में पचास का नोट रखते हुए गंगाधर एक तरफ हीनता-बोध से ग्रस्त हो रहा था, दूसरी तरफ डॉक्टरेट की उपाधि मिलने की सम्भावना से पुलकित भी।

‘सर टॉपिक?’

 -चलने से पहले गंगाधर ने पूछा। बिना टॉपिक पर बात किये मिश्र जी का फॉर्म पर हस्ताक्षर कर देना उसे विचित्र भी लग रहा था और सुखद भी।

‘तुलसी की समन्वय भावना पर कर लो।’

‘मैं समकालीन साहित्य पर काम करना चाहता हूँ सर।’

‘जिस पर चाहो, उस पर करो। हाँ, एक चीज का ध्यान रखना कि टॉपिक से मिलती-जुलती कुछ थीसिसें उपलब्ध हों। समझे?’

‘जी।’

-बिना कुछ समझे बोल पड़ा गंगाधर।

डॉक्टर मिश्र के आवास से बाहर आकर वह विश्वविद्यालय के स्थापत्य और पेड़-पौधों को निरखने में ऐसे मशगूल हुआ कि सब कुछ भूल गया। अभी तक उसकी आँखों ने देखा था विश्वविद्यालय-परिसर, अब दिमाग देख रहा था। अभी तक वह इस परिसर से खुद को पृथक समझता था और अब इस समग्र दृश्य के अविच्छिन्न अंग के रूप में देख रहा था अपने आप को।

‘का जी? पाँड़े जी! चाह-पानी कुछहू न होई का हो?’

 -स्वयंसेवा नियम का उल्लंघन करने वालों की मंडली के इस समवेत संवाद ने दिवास्वप्न देखते गंगाधर को जमीन पर ला पटका।

‘अरे डॉक्टर साहब, अभी तो इन्हें फीस का भी इंतजाम करना होगा। फेलोशिप मिलने दीजिए, फिर सब होगा। अब तो ये आप ही लोगों की शरण में रहेंगे।’

-हाथ जोड़कर मित्र ने बचाव किया।

‘आ त तनी हेने आइए।’

 -फिर उस व्यक्ति ने, जिसे ‘डॉक्टर साहब’ कहकर सम्बोधित किया गया था, मित्र के कान में कुछ कहा था। रात को हॉस्टल के कमरे में सोने से पहले मित्र ने कान में कही गयी बात बतायी थी। बिजली के हीटर पर तवा रखकर छः रोटियाँ सेंक ली थीं मित्र ने और तवे पर ही थोड़ी, किन्तु सुस्वादु सब्जी भी बना ली थी। तीन-तीन रोटियाँ खा ली थीं दोनों ने। तर्जनी से अपनी-अपनी ओर का तवे का हिस्सा भी चाट लिया था और अब औषधोद्यान से आती तरह-तरह के फूलों और वनस्पतियों की मिली-जुली गन्ध दिमाग में रसायन घोल रही थी। इधर-उधर की बातें कर रहे थे वे।

‘क्या हॉस्टल में पी-एच.डी.किये हुए लोग भी रहते हैं?’

 ‘क्यों? मैं क्या हूँ? ...और हाँ, उद्दंड मंडली के जो सरगना थे, वे भी पी-एच.डी.-धारक हैं। तरह-तरह के पी-एच.डी.-धारक बेरोजगारी के दिन काटते मिलेंगे यहाँ आप को।’

उसी समय मित्र ने कान में कही गयी बात बतायी थी, जिसका निचोड़ यह था कि फेलोशिप मिलने पर ही हर महीने गाइड को सौ रुपये देने होंगे।

‘क्या हर गाइड पैसे लेता है?’

‘नहीं, लेकिन यह लेता है। पाँच हजार में पी-एच.डी. का ठेका लेता है यह, ऐसा लोगों का कहना है।   आप से फिर भी कम ले रहा है। दो साल में दो हजार चार सौ ही तो हुए!’

नींद में सारी रात महामहोपाध्याय जी के सपने दिखते रहे गंगाधर को। ...दन्त्य, तालव्य, मूर्द्धन्य...। ...शुद्ध उच्चारण...। ...शुद्ध आचरण...। ...वगैरह-वगैरह...। अचानक डॉक्टर मिश्र का चेहरा दिखने लगा...। आठ जगह से टेढ़े धड़ पर डॉक्टर मिश्र का चेहरा...। नहीं...। ऐसा नहीं हो सकता...।

 ‘इनका उच्चारण शुद्ध नहीं है...।’

 -इसी उद्घोष के साथ वह सोकर उठा।

‘क्या हुआ?’

‘कुछ नहीं।’

‘शायद कोई सपना देख रहे थे।’

‘हूँ।’

 ‘ठीक है। आज बाकी औपचारिकताएँ पूरी करनी हैं, जल्दी से तैयार हो लें।’

-नींबू की चाय का प्याला थमाते हुए मित्र ने कहा।

‘बाकी औपचारिकताएँ तो ठीक हैं, यह सिनॉप्सिस कैसे बनायी जायेगी?’

‘उसमें कुछ खास नहीं है। सिनॉप्सिस माने रूपरेखा। आप अपना शोध कितने अध्यायों में पूरा करेंगे,  किस अध्याय में क्या शीर्षक होगा-आदि-आदि।’

-चाय का प्याला लिये हुए वे बरामदे में आ गये, तो मित्र ने बात आगे बढ़ायी-

  ‘हाँ, एक बात ध्यान में रखिएगा कि सिनॉप्सिस में आप जो लिख देंगे, बाद में उसमें परिवर्तन करना लगभग असम्भव जैसा होगा।दूसरी बात यह कि भले ही सिनॉप्सिस आप खुद बनायें, लेकिन गाइड को यह न लगने पाये कि आप अपने आप  सिनॉप्सिस  बना सकते हैं। इसलिए पहले एक रफ बनाकर गाइड को दिखा लें, फिर टाइप के लिए दें।’

 चाय खत्म कर गंगाधर बाथरूम की ओर जाने ही वाला था कि मित्र ने फिर कुछ कहा-

‘देखिए, ये जनाब, जो कुर्ता-पाजामा पहने अखबार बाँट रहे हैं, ये भी पी-एच.डी. हैं।’

अचरज से भरे गंगाधर कुछ बोल नहीं पाये। हर पी-एच.डी.-धारक को वे उतना ही आदरणीय समझते थे, जितना महामहोपाध्याय जी को। वे एकटक अखबार बाँटते व्यक्ति को देखते रहे। नजदीक आने पर मित्र ने नाम लेकर और गंगाधर ने ‘डॉक्टर साहब’ कहकर उसका अभिवादन किया।

‘स्साला...!’

 -गुस्से में तमतमा उठा वह आदमी। गंगाधर सन्न। ...क्या गलती हुई?

 ‘किस काम की डाक्टरी और किस काम की साहबी...? एक जून की रोटी के लिए  पिछले सात सालों से अखबार  बेच रहा हूँ। समझे महोदय...?’

 -थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह कुछ नरम पड़ा-

‘नये लगते हैं!’

‘जी...।’

अगले दिन दिन ढलते-ढलते गंगाधर सिनॉप्सिस का रफ गाइड को दिखाने ले गया।

‘ये तुमने खुद बनाया है?’

‘जी।’

‘बहुत बिदवान लागत बाड़ऽ हो!’

-डॉक्टर मिश्र के निकट पहले से बैठे पी-एच.डी.-धारक बोले।

‘डॉक्टर साहब, मुझसे कोई गलती हुई क्या?’

‘गलती? ए भइया ह ई देखऽ! एतना दिना में तूँ पहिला आदमी हउअऽ, जे अपना से आपन सेनॉप्सिस बनवलस। अब गुरू बाबा के कवन काम?’

‘छोड़ो जी! जाने दो। एक विद्वान की भी  तो जरूरत होती है। जाओ, टाइप कराओ।’

-गंगाधर कुछ बोलता, इससे पहले ही डॉक्टर मिश्र बोल पड़े।

तीन साल बीत गये थे। फेलोशिप एक साल पहले ही बन्द हो चुकी थी। इस बीच गंगाधर न सिर्फ अपनी, बल्कि दो अन्य लोगों की भी थीसिसें लिख चुका था। यह डॉक्टर मिश्र के दबाव के चलते हो पाया। पहले तो वे उसे अपनी थीसिस लिखने की प्रेरणा देते रहे, लेकिन जब डेढ़ साल बीतते-बीतते उसने लिख ली अपनी थीसिस, तो डॉक्टर मिश्र आकस्मिक ढंग से रुपयों की महिमा समझाने लगे। जब तक वह रुपयों और थीसिस के बीच का रिश्ता समझता, उन्होंने उसे एक थीसिस का टॉपिक, उसी टॉपिक से मिलती-जुलती दो थीसिसें और एक हजार रुपये थमा दिये। एक क्षण के लिए उसे लगा, जैसे महामहोपाध्याय जी खड़े हो गये हों रुपयों और थीसिस के बीच में। ...दन्त्य, तालव्य, मूर्द्धन्य...! शुद्ध उच्चारण...। शुद्ध आचरण...! अगले ही क्षण एक श्लोक याद आ गया उसे, जो महामहोपाध्याय जी सुनाया करते थे। श्लोक के जिस भावार्थ ने उसे राहत दी, वह इस प्रकार है-‘विद्या विनय देती है। विनय से पात्रता आती है। पात्रता से धन प्राप्त होता है...!’ बस...! इतने पर ही रुक गया था गंगाधर का दिमाग-पात्रता...। तीन सालों तक रुका रहा दिमाग बस इतने पर ही-पात्रता...। यह शब्द आत्मगौरव की प्रतीति कराता रहा उसे तीन सालों तक।

इस बीच स्वयंसेवा नियम तोड़ने वाली मंडली के सरगना समेत मिश्र जी के सोलह शिष्य देश के विभिन्न विद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हो चुके थे। गंगाधर का मित्र शासकीय महाविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गया था। अखबार बेचने वाले पी-एच.डी.धारक की मृत्यु हो गयी थी। शायद भूख से।

आत्मगौरव की प्रतीतियों में डूबते-उतराते गंगाधर को एक सुबह यह जानकर तगड़ा झटका लगा कि जिन दो नये शोधार्थियों की थीसिसें उसने कुछ महीने पहले लिखी थीं, उनके प्री सबमिशन वाइवा यानी थीसिस जमा होने से पूर्व होने वाली मौखिक परीक्षा की तारीखें आ गयी हैं। ...क्या हो सकता है? ...मेरी थीसिस डेढ़ साल से मिश्र जी के पास पड़ी है, आज तक कभी टाइप के लिए भी नहीं कहा!

 दिन में विभाग के तीन चक्कर लगाये गंगाधर ने। तीसरी बार भेंट हो पायी डॉक्टर मिश्र से।

‘सर, मैं अपनी थीसिस के बारे में बात करना चाहता हूँ।’

थोड़ी देर तक डॉक्टर मिश्र उसे ऐसे देखते रहे, जैसे पहचान न रहे हों।

‘सर, मैं....।’

‘नहीं, नहीं। ये बातें यहाँ नहीं, घर में।’

‘सर, मेरी लिखी एक-से-एक कूड़ा थीसिसें आप पास किये जा रहे हैं और मेरी थीसिस डेढ़ साल से लटकाये बैठे हैं, ऐसा क्यों? मैं कब तक दूसरों की थीसिसें लिखता रहूँगा...?’

 शाम को डॉक्टर मिश्र अकेले थे और गंगाधर खुलकर बोल रहा था। उत्तेजना में काँप रहा था।

‘आज कुछ बदले-बदले लग रहे हो!’

‘हाँ सर, स्थितियों ने बदल दिया है मुझे।’

‘देखो, उन लड़कों की स्थिति अलग है, तुम्हारी अलग। इसे लेकर क्यों परेशान हो रहे हो?’

‘मैं जानता हूँ। वे अपनी थीसिस खुद नहीं लिख सकते इसलिए पैसे देकर लिखवाते हैं। मैं अपनी थीसिस खुद लिख सकता हूँ। इसके अलावा और क्या फर्क है स्थिति में। क्या उन्हें उनकी अयोग्यता के कारण डॉक्टरेट की उपाधि जल्द-से-जल्द मिल जानी चाहिए और मुझे अपनी योग्यता के कारण उस उपाधि से वंचित रहकर जीवन भर दूसरों की थीसिसें लिखनी चाहिए?’

‘तुम बिना मतलब इतना गुस्सा हो रहे हो। देखो तुम विद्वान हो, इसलिए तुम्हारी थीसिस पर मैंने ध्यान ही नहीं दिया। इधर बहुत दिनों से खोज रहा हूँ, मिल नहीं रही है।’

‘क्या ऽ ऽ ? हाथ से लिखे साढ़े सात सौ पृष्ठों की थीसिस खो कैसे गयी सर?’

 ‘नहीं, खो नहीं गयी। होगी यहीं कहीं। मिल जायेगी। हम खोज लेंगे दो-चार दिन में। अभी तुम ये पकड़ो।’

 -एक थीसिस का टॉपिक, उसी से मिलती-जुलती कुछ थीसिसें और एक हजार रुपये उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले डॉक्टर मिश्र।

 ‘नहीं सर! अब नहीं! यह मेरी पात्रता का दुरुपयोग है। एक बात और सुन लीजिए,’

इसके बाद वही बात कह दी गंगाधर ने जो उसे नहीं कहनी चाहिए थे-

‘आज मैं समझ पाया कि स्वार्थवश आपने मेरी थीसिस रोक रखी है। अगर एक हफ्ते के भीतर मेरी थीसिस पास नहीं की जाती, तो मैं लिखित रूप से विश्वविद्यालय प्रशासन को सारी असलियत से अवगत कराऊँगा।’

‘तो तुम मुझे धमकी दे रहे हो?’

‘नहीं सर। धमकी नहीं दे रहा हूँ, विनती कर रहा हूँ।’

 -अब वह डॉक्टर मिश्र के पैर पकड़ कर रो रहा था-                                                                                            ‘प्लीज मेरी थीसिस पास कर दें सर! या कोई कमी हो तो बता दें। मैं फिर से लिख लाऊँगा। मैं पी-एच.डी. करना चाहता हूँ सर!’

‘ठीक है एक हफ्ते बाद आओ।’ 

 हफ्ते भर बाद, जब गंगाधर डॉक्टर मिश्र के घर गया, तो वे तो मिले, लेकिन थीसिस नहीं मिली। अब की बार वह बिना कुछ बोले लौट आया।

                अँड़तालीस घंटे बाद अखबारों में अलग-अलग शीर्षकों से एक शोधार्थी की हत्या की खबर छपी थी। अखबारों ने इसे छात्रों की आपसी लड़ाई का नतीजा बताया था, लेकिन विश्वविद्यालय-परिसर के भीतर की खुसुर-फुसुर और बाहर की गहमा गहमी में एक टॉर्च और सोलह बन्दूकों वाला किस्सा प्रचलित था। चूँकि यह वाचिक था, मुद्रित नहीं; इसलिए अफवाहों की श्रेणी में शामिल था। लोंगों का कहना था कि अफवाहें ही सच हैं।

                 अभी ठीक से एक महीना भी नहीं बीता था कि एक दूसरी अफवाह उड़ी कि डॉक्टर मिश्र की इंटरमीडिएट के बाद की हर सनद नकली है। इस बार एक भी खबर नहीं छपी थी। अफवाह हंगामे में तब्दील हो गयी थी और डॉक्टर मिश्र सपरिवार गायब थे। परिसर की पान की दूकानों पर अध्यापकों की खास किस्म की सुखदायी बतकही चल रही थी, जिसका मूल आधार यह था कि सनदें मिश्रा की नकली पायी गयी हैं हमारी नहीं...।

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