कामतानाथ जी का नाम तो पहले से सुन रखा था, कुछ कहानियाँ भी पढ़ी थीं, पर मिलना काफी बाद में हुआ- दुधवा नेशनल पार्क में आयोजित ‘शब्दयोग’ के एक अनौपचारिक कार्यक्रम में। दुधवा तक पहुँचना बाद में हुआ, कामतानाथ जी से मिलना लखनऊ में ही हो गया। जिस कार से मुझे दुधवा तक जाना था, उसी से कामतानाथ जी को भी चलना था। इससे पहलेे मैंने सिर्फ तस्वीर देखी थी उनकी- कलँगी जैसे बाल, सुगठित क्लीन शेव्ड चेहरा। फिर ‘शब्दयोग’ के उन पर केन्द्रित विशेषांक में एक चित्र देखा था- बिना कालर के कुर्ते में। बाल वैसे ही- कलँगी जैसे। हाँ, अब वे पूरी तरह सफेद थे। ठोड़ी पर तर्जनी। दूर देखती आँखें। साक्षात् मिले, तो जींस और टी शर्ट में थे। चेहरा वही। हाँ, अब उसके कई-कई आयाम थे।
बड़े लेखक की बगल में बैठने के एहसास से मैं गौरवान्वित भी हो रहा था और थोड़ा आतंकित भी। आतंक और आकर्षण- दोनों में कहीं न कहीं ‘कालकथा’ के आकार की भी भूमिका रही होगी। तब तक मैंने यह उपन्यास नहीं पढ़ा था। सिर्फ आकार देखा था। बाद में, जब पढ़ा, तो एक रात में ही एक खंड पढ़ गया। आतंक का दूसरा कारण मेरी अपनी अराजकताएं थीं और उनकी आँखें भी। एक नजर में गहराई तक टोह लेने वाली आँखें...। ...कुछ नहीं छिपेगा इनसे। हालांकि राजकुमार साथ में थे, उन्हें पहले से कामतानाथ जी की निकटता प्राप्त थी और स्वयं कामतानाथ जी बड़ी आत्मीयता से पेश आ रहे थे, फिर भी मेरा आतंक अपनी जगह था। पिछली सीट पर मेरी बायीं तरफ बैठे थे वे। डाॅ. वृजेंद्र पांडेय (विद्यान्त हिन्दू महाविद्यालय लखनऊ) गाड़ी चला रहे थे। उनकी बगल में राजकुमार बैठे थे। तब तक उनकी नियुक्ति बी.एच.यू. में नहीं हुई थी और वे और डाॅ. पांडेय एक ही महाविद्यालय के अलग-अलग विभागों में कार्यरत थे। हर दस-बीस किलोमीटर पर कोई हल्की-फुल्की बात हो जाती। राजकुमार मुझे लक्ष्य करके कुछ विनोद करते। पांडेय जी साथ देते और कामतानाथ जी किसी हमउम्र की तरह शामिल हो जाते उस व्यंग्य-विनोद में।
इसके बाद की जो बातें मैं लिखना चाह रहा हूँ, उनका जिक्र राजकुमार के ‘पत्ता टूटा डार से’ शीर्षक लेख में आ चुका है, जो ‘कथादेश’ के ‘श्रद्धांजलि’ स्तम्भ में छपा है। मेरी समस्या यह है कि अपनी स्मृतियों का क्या करूँ। यदि वह हिस्सा छोड़ता हूँ, तो लगता है, खंडित स्मृतियों का लेखन कर रहा हूँ। इसलिए यह पिष्टपेषण करने को विवश हूँ। कार चली जा रही थी। सड़क किनारे के खेत-खलिहान, गाँव-बस्ती जल्दी-जल्दी पीछे चले जाते। पांडेय जी सड़क देख रहे थे और हम लोग सड़क किनारे के दृश्य। दोनों तरफ उर्वरा धरती। आम-महुए के पेड़। नीम-पीपल। कहीं-कहीं कटहल। रास्ते में एक नदी पड़ी। पता नहीं उन्नाव में थी नदी या आगे कहीं। बहरहाल, नदी जहाँ थी, वहीं रही होगी और मेरी स्मृति में अपनी जगह है। नदी पर अँगरेजों के समय का खतरनाक और विचित्र पुल बना था। खतरनाक और विचित्र इस अर्थ में कि उस निहायत सँकरे पुल से रेलगाड़ी भी जाती थी और पैदल चलने वाले तथा दूसरी गाडि़याँ भी। सब एक साथ, बिना किसी सिग्नल के। बचते-बचाते लोग पुल से निकल जाते थे-शायद रोज-रोज के अभ्यास से या अपनी किस्मत से। नदी, पुल और अँगरेजी हुकूमत से जुड़ी कई बातें बतायीं कामतानाथ जी ने। ऐसा लगा, जैसे इस क्षेत्र का कई-कई बार दौरा किया हो उन्होंने। बाद में, ‘लमही’ के उन पर केंद्रित विशेषांक में छपे उनके चित्रों को देखकर मेरा अनुमान पुष्ट हुआ, जिनमें उन्नाव के किसी गाँव की खपरैल पृष्ठभूमि में है और वे गाँव के युवकों के केंद्र में। ‘कालकथा’ पढ़ लेने के बाद तो उनके विशद गँवई अनुभवों और ऐतिहासिक बोध को लेकर कोई संशय शेष न रहा। ‘कालकथा’ पढ़ते हुए मुझे इस बात के लिए थोड़ी झेंप भी महसूस हुई कि बेवजह मैं उस यात्रा के दौरान उनके लोक-बोध पर चकित हो-होकर विस्मय भाव प्रकट कर रहा था। यह तो उस उपन्यास में घटित और चित्रित होने वाला इलाका ही था। आम, महुआ, नीम और पीपल के पेड़ अब और ज्यादा मिल रहे थे। हवा में ताजे गुड़ की गंध आ रही थी। गन्ने की खोई उड़ रही थी। इसी सब के बीच एक अलग दृश्य ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। सड़क किनारे पटरियों से थोड़ा हटकर घनी-ऊँची घास की कतार सी उगी थी- दोनों तरफ दूर तक या शायद दुधवा तक। वहीं कहीं कुछ क्षणों के लिए रुके हम लोग। रुकने का प्रस्ताव शायद मेरा ही था-कुछ हल्का होने की गरज से। निकट से देखने पर पता चला कि यह घास नहीं भाँग है। उसी समय अवधी का एक लोक-विश्वास याद आया कि बहराइची भाँग दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाँग होती है। मेरे गाँव के वे बुजुर्ग, जो रोज शाम को भाँग छानते (जी, यही शब्द प्रचलित है), अक्सर ठेके पर यह कहते पाये जाते-’सेठ! असली बहराइची पत्ती देना!’
मेरा भूबोध या भौगोलिक ज्ञान शुरू से माशा अल्ला रहा है। मैंने मान लिया कि बहराइच में हूँ। या उसी भूमि के निकट हूँ। सोच-विचार के इसी सिलसिले में मैंने एक पौधा उखाड़ लिया और पौधे के साथ ही गाड़ी में आ बैठा। जल्दी-जल्दी पत्तियाँ तोड़कर डंठल बाहर फेंक दूँ, इस इरादे से पत्तियाँ तोड़ने में मैं इस तरह मशगूल हुआ कि मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि पौधे की जड़ में लगी भुरभुरी मिट्टी कामतानाथ जी की पैंट पर गिर रही है। वे कुछ नहीं बोले। पांडेय जी गाड़ी चला रहे थे। स्वाभाविक रूप से सामने देख रहे होंगे। राजकुमार की भी नजर सामने रही होगी।
‘यह क्या है मिश्र जी?’ -कामतानाथ जी उस समय बोले, जब मैं पत्तियाँ तोड़कर डंठल खिड़की से बाहर फेंक रहा था। उनका वाक्य सुनकर मैं अकबका गया।
‘कोई आयुर्वेदिक वनस्पति है। वैद्य ने पहचनवायी थी।’ -कोई जवाब न सूझने की दशा में मैं बोल पड़ा।
'हाँ, मैं भी खाता था पहले।' -उदासीन भाव से बोले वे।
अब मेरे पास कोई चारा न था। मैंने स्वीकार किया कि यह भाँग है। इसके साथ ही दबी जबान में बहराइची भाँग की सुनी हुई लोकख्याति की भी संक्षिप्त चर्चा की। फिर तो उस यात्रा में ही नहीं, बल्कि पूरे कार्यक्रम के दौरान परिहास का यह स्थायी प्रसंग हो गया। बीच-बीच में कामतानाथ जी पूछते: ‘आप तो बहराइच में होंगे?’
सब हँस पड़ते। मैं भी। बाद में, जब भी कभी फोन पर बात हुई, शायद ही कभी ऐसा हुआ हो, जब प्रश्नवाचक मुद्रा में उनका यह विनोद सुनने को न मिला हो।
दुधवा का तीन दिनों का प्रवास कई तरह से अविस्मरणीय रहा। अब तो कामतानाथ जी की दृष्टि से उसकी अविस्मरणीयता और बढ़ जाती है। हर स्मृति के केंद्र में उनकी आँखें आ जाती हैं और विदग्ध टिप्पणियाँ भी। दुधवा से पहले ही किसी कस्बे में कुछ राशन, सब्जी वगैरह की खरीद हुई। यों यह काम राजकुमार और पांडेय जी कर रहे थे, लेकिन क्या खरीदें और क्या नहीं- इस तरह की बातों में कामतानाथ जी पूरी बेतकल्लुफी और गर्मजोशी से शामिल थे। कौन सी जगह रही होगी, मुझे याद नहीं। हाँ, अब आम-महुए के पेड़ों की जगह सेमल के ढेर सारे पेड़ मिल रहे थे- शाल्मली वन! मुझे दूर गहराइयों में ऊँचे खड़े सेमल के पेड़ों को निहारते देखकर कामतानाथ जी बोले-‘नेपाल की तराई का इलाका है।’ सड़क छोड़कर अब वन की पगडंडी पर गाड़ी चल रही थी। गिरे घने पत्तों के बीच राह कहाँ होगी और गहराई कहाँ, पांडेय जी बड़ी कुशलता से समझ लेते थे। रोमांचक ड्राइविंग कर रहे थे वे। इस बात का पूरी तरह प्रत्यायन तो तब हो पाया, जब कुछ घंटों के बाद पता चला कि दिल्ली और देहरादून के लेखकों को लेकर आती कार किसी गहराई में इस तरह फँस गयी कि निकल ही नहीं पायी। जगह-जगह ऊँची-ऊँची बाँबियाँ मिल रही थीं-वल्मीक! कामतानाथ जी ने वहाँ से नैमिषारण्य की निकटता के बारे में बताया और मेरे मन में तरह-तरह के पौराणिक बिंब गड्ड-मड्ड होने लगे। वन-विभाग के गेस्ट हाउस में हम लोगों के पहुँचते-पहुँचते दिन ढलने को था। थोड़ी ही देर में अँधेरा हो गया। जेनरेटर चलवाया गया। उसी समय राजकुमार के फोन पर दिल्ली और देहरादून के लेखकों को लेकर आती कार के गड्ढे में फँस जाने वाली खबर आयी। राजकुमार बार-बार फोन लगा रहे थे। अचानक नेटवर्क गायब। ...अब क्या हो? पांडेय जी तुरंत तैयार हो गये- ‘चलिए देखते हैं।’ इसी बीच कुछ दूरी पर टार्च की रोशनी दिखी और करीब आधे घंटे में आगे-आगे टार्च थामे आर.के.पालीवाल और उनके साथ दूसरे कई लोग आते दिखायी पड़े। नजदीक पहुँचने पर सबके चेहरे दिखे। पालीवाल जी ऐसे मुस्करा रहे थे और उत्साह से मिल रहे थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। एक लंबा आदमी दिखा। बाल भी लंबे। कुर्ता और भी लंबा। ये से.रा.यात्री थे। हरिनारायण जी ने भी उस दिन कुर्ता-पाजामा पहन रखा था। सुभाष पंत अपनी मितभाषिता और सादगी से प्रभावित कर रहे थे। गुरदीप खुराना, श्रीमती कृष्णा खुराना, राजकमल और दूसरे भी कई लोग थे। सब के अपने-अपने व्यक्तित्व। हर व्यक्तित्व का अपना प्रभाव। बाद में कृष्णा जी के पैरों में लिपटी जोंकों को देखकर उनकी हिम्मत की दाद देनी पड़ी। फिर तो शिष्ट सुसंस्कृत रात। सब थके थे। पहली रात जल्दी ही सोना हो गया।
अगले दिन सुबह-सुबह शेर देखने का कार्यक्रम बना। सब लोग गाडि़यों में बैठे। अब एक गाड़ी वन विभाग की भी थी और वन विभाग का एक सुरक्षाकर्मी भी, जो नशे में लग रहा था। मैंने गौर किया कि उसकी बंदूक की नली में निशाना लगाने के काम आने वाली पीतल की फुलिया भी नहीं थी। जंगल के रास्ते में कहीं एक कुआँ पड़ा, जिसके बारे में किसी ने बताया कि कभी-कभी शेर यहाँ आकर बैठता है। हम लोग नये सिरे से सजग हुए। शेर नहीं दिखा। जगह-जगह मोर दिख रहे थे। कहीं चीतलों के झुंड, कहीं दूसरे वन्य पशुओं के। आखिरकार हम लोग जलाशय के पास बने मचान पर चढ़े, लेकिन कोई फायदा नहीं। शेर नहीं दिखा। लगातार दो दिनों तक सुबह-शाम शेर देखने की कोशिश हुई, लेकिन सफलता नहीं मिली। मचान से आखिरी बार उतरते हुए मेरे मन में एक ऊटपटाँग सा खयाल आया कि शेर कोई नौकरी तो करता नहीं कि वक्त पर पानी पीने आये, वक्त पर खाना खाये और लोगों को दर्शन देने के लिए वक्त पर हाजिर भी रहे!
शायद वह प्रवास का तीसरा दिन था, जब दोपहर का खाना खाने के बाद हम लोग नेपाल की सीमा से लगी एक आदिवासी बस्ती में गये। एक ऐसा संयुक्त परिवार मिला, जिसमें सत्तर-अस्सी सदस्य थे। सबने कुछ-न-कुछ कपड़े पहन रखे थे। हाँ, बच्चे प्रकृत थे-नंग-धड़ंग। सबका खाना एक चूल्हे पर बनता था। संयुक्त परिवार का यह रूप देखकर लोग विस्मित हो रहे थे। गाँव वालों ने चलते समय महुए की शराब का उपहार दिया। जहाँ तक मुझे याद है, पैसे देने पर भी नहीं लिये थे उन लोगों ने।
हाँ, वहाँ भी भाँग के पौधे खूब उगे थे। साथियों की नजर बचाकर मैंने कुछ पत्तियाँ तोड़ लीं।
‘क्या है?’ - मैंने चौंककर कर पीछे देखा। अब की कृष्णा जी की नजर पड़ गयी। मैंने काम चलाने के लिए वही जवाब दिया, जो कामतानाथ जी को दिया था।
‘मैं एक पत्ती ले सकती हूँ?’ -कृष्णा जी के बालसुलभ कौतूहल के सामने मैं निरुत्तर था।
‘जी, एक आध पत्ती ले सकती हैं।’ उन्होंने एक पत्ती तोड़ी और मुँह में डालने लगीं।
‘रुकिए! कहीं पानी से धुलकर खायेंगे और बेहतर हो, इसे धुलकर और सुखाकर इस्तेमाल किया जाय।’
‘क्यों? हरी पत्ती नुकसान करेगी?
‘नहीं।’ और क्या कहूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कहीं किसी जलाशय या शायद किसी हैंडपंप के पानी से भाँग की पत्तियाँ धोयी गयीं। कृष्णा जी ने एक पत्ती खायी, मैंने कई पत्तियाँ। बाकी पत्तियाँ मैंने एक लिफाफे में डालीं। डंठल फेंक रहा था कि एक आवाज सुनायी पड़ी:
‘कभी देहरादून आइए जनाब।आपको भाँग की पकौड़ी खिलाऊँगा।’ -ये सुभाष पंत थे। ...उफ! ...इन उपन्यासकारों से तो कुछ छिपाया ही नहीं जा सकता!
दिन की तुलना में रातें खास होतीं। पहली ही रात की पान-गोष्ठी में राजकुमार चुहल करते हुए बोले:
‘थाली या कुछ और मिल जाय, तो पंडिज्जी गाना सुनायेंगे।’
तब तक वहाँ बैठे किसी व्यक्ति को मेरे मूर्खतापूर्ण गायन की खबर नहीं थी। यों गायक नहीं हूँ, कोई तालीम नहीं, सुरों की कोई समझ नहीं, फिर भी छात्र जीवन में ‘दस्ता’ नाट्य मंच और बाद में दूसरी मंडलियों के लिए लोकधर्मी अभिनय और गायन करता था। ‘दस्ता’ के कार्यक्रमों में राजकुमार अमूमन साथ में होते। कार्यक्रमों के दौरान मूक प्रेक्षक बने रहते। बाद में या पहले खूब टिप्पणियाँ करते। पहले तो पालीवाल जी राजकुमार की खुड़पेंच में शामिल नहीं हुए, लेकिन जब राजकुमार ने थाली वाली बात दुहरायी, तो उन्होंने थाली ले आने का आदेश किया और थाली हाजिर। मन ही मन मैं खीझ उठा राजकुमार की शैतानी पर। पालीवाल पर खीझने का कोई कारण नहीं था। पहली मुलाकात थी उनसे। इससे पहले फोन पर एक बार बात हुई थी। फोन की बातचीत में सौमनस्य की झलक मिली थी और अब सम्यक् प्रतीति हो रही थी। राजकुमार पर खीझने का कारण यह था कि थाली कोई बाजा तो है नहीं, जो गाने में मदद करे! मैंने अवधी का एक लोकगीत शुरू किया-थाली पर तर्जनी के नाखून से कहरवा की टाँकी लगाते हुए। पांडेय जी ने मेज पर माकूल थाप मारनी शुरू की। पहले गीत के सम की तीसरी आवृत्ति आते-आते उन्होंने सहयोगी स्वर भी लगाना शुरू कर दिया। कहरवा की टाँकी लगती रही। मेज पर थाप पड़ती रही। पल भर के लिए वन के मौन और जेनरेटर की धड़धड़ का आधार संगीत के रूप में इस्तेमाल करते हुए मैंने लोगों के चेहरे देखे। सब आमने-सामने बैठे थे। कामतानाथ, सुभाष पंत, गुरदीप खुराना, से.रा.यात्री, हरिनारायण, राजकमल और कृष्णा जी। पालीवाल, राजकुमार और पांडेय जी तो ऐन मेरे सामने थे। सबकी आँखों में आत्मीय कुतूहल कौंध रहा था। फिर तो कई गीत हुए। हर गीत में पांडेय जी मेज बजाते और जहाँ जरूरत समझते, सहयोगी स्वर लगाते। देहरादून के साथी कभी किसी शब्द का अर्थ पूछते। जहाँ तक मुझे याद है, किसी ने एक गीत में आये ‘बान’ शब्द का अर्थ पूछा था।
‘बान। बान माने आदत।’ -कामतानाथ जी बोले थे। गीत में यह शब्द अवधी के मुताबिक ‘बानि’ हो जाता था। पति-पत्नी की कहा-सुनी पर केंद्रित था गीत। पहली पंक्ति इस तरह थी:
‘तोहार कउन बानि राजा, रोजइ रिसानऽऽ?’
....तुम्हारी यह कौन सी आदत है कि रोज-रोज रूठ जाते हो...?
देर रात तक गीत होते रहे। पान-गोष्ठी अब गान-गोष्ठी हो चुकी थी। फिर खाना। जेनरेटर बंद। अँधेरा...। जंगल की खामोशी...। नींद...।
सुबह नींद खुली। पालीवाल जी पहले ही उठ गये थे। हर एक के पास पहुँच रहे थे। हर एक की जरूरत पूछ रहे थे- प्रशासनिक सक्रियता और विरल सरलता के साथ। गुरदीप खुराना कुछ चिंतित दिखे। हम लोग तो कुछ समझ नहीं पाये।
‘अरे भाई, श्रीमती खुराना को खोजिए!’
-बारीक मुस्कान के साथ बोले कामतानाथ जी। मैं सचमुच उन्हें खोजने निकल पड़ा। गेस्ट हाउस से दूर वे एक ऐसी जगह दिखीं, जहाँ कोई पेड़ नहीं था। धरती में आँखें गड़ाये पता नहीं क्या देख रही थीं। नजदीक पहुँचने पर पता चला कि घास में आलता जैसी रंगत वाला एक नन्हा सा फूल खिला है। उसी को निहार रही हैं कृष्णा जी-एकटक। जैसे वन का सारा रहस्य इसी नन्हे से फूल में समाया हो!
लौटकर हम लोग गेस्ट हाउस पहुँचे, तो सबको चाय दी जा रही थी। कामतानाथ जी के लिए बिना चीनी की चाय आयी। उन्हें ब्लडशुगर थी। मुझे भी हो चुकी थी तब तक। हम दोनों ने बिना चीनी की चाय ली। थोड़ी देर बाद कामतानाथ जी ने कहकर नींबू की चाय बनवायी। चाय आने पर शुगरफ्री की एक गोली अपनी चाय में डाली और दूसरी मेरी चाय में। जितने दिन हम लोग वहाँ साथ रुके, नींबू की चाय रोज पी गयी। सुबह की दूसरी चाय वे कहकर बनवाते- नींबू की।
दोपहर कथा-गोष्ठी हुई। गुरदीप खुराना की कहानी का वाचन कृष्णा जी ने किया। फिर मुझे कथा-वाचन के लिए पालीवाल जी ने प्रस्तुत किया। मैंने ‘बाबा की उघन्नी’ का वाचन किया। तब तक यह कहीं छपी नहीं थी और सच तो यह है कि ठीक से लिखी भी नहीं गयी थी। यों श्री खुराना वरिष्ठ कथाकार हैं, लेकिन मैंने देखा कि कामतानाथ जी उनकी कहानी में खूब नुक्ताचीनी कर रहे थे। मैं नया था, शायद इसलिए वे नुक्ताचीनी के बदले कुछ आत्मीय सुझाव दे रहे थे। मसलन, मेरी कहानी का एक वाक्यांश था ‘बच्चों का एक बड़ा समूह’। कामतानाथ जी ने यहाँ ‘समूह’ हटाकर ‘झुंड’ रखने की राय दी। पंत जी ने भाषा की सरलता का सुझाव दिया।
दुधवा में जो आखिरी रात बितायी गयी, उस रात चंद्र ग्रहण लगा था। हम लोगों से थोड़ी ही दूरी पर बैठे पांडेय जी जप कर रहे थे- मौन। हम लोग पानगोष्ठी की शुरुआत कर चुके थे और इसके साथ ही गानगोष्ठी की भी। तर्जनी के नाखून से कहरवा की टाँकी लग रही थी थाली पर, लेकिन मेज की थाप की कमी महसूस हो रही थी। आज वन विभाग के कुछ अधिकारी भी आ गये थे। वरिष्ठ लेखकों की सहज उपस्थिति देखकर वे चकित हो रहे थे और प्रसन्न भी। कई गीत हो चुके थे। कई दौर भी। कामतानाथ जी युवकों की तरह दाद दे रहे थे। सब मुदित थे। सब विह्वल। अंतरा तक लोग चुप रहते, लेकिन जैसे ही अगला सम आने को होता, आगामी शब्द का अनुमान करके बोल पड़ते सब अपने-अपने ढंग से। हो सकता है, न भी बोलते रहे हों सब, पर मेरी स्मृति में यह दृश्य कुछ इसी तरह अंकित है। दरअसल उस समय मैं खुद विह्वल था। एक तो मदविह्वल और दूसरे इस एहसास से विह्वल कि इस वन प्रांत में हिंदी के इतने वरिष्ठ तथा महत्वपूर्ण रचनाकार और संपादक मेरी बेवकूफियों को इतना तवज्जो दे रहे हैं!
उसी रात किसी ने मुझे ‘मतवाला हाथी’ कहा। शायद कामतानाथ जी ने ही कहा। राजकुमार को ‘अंकुश’ कहा गया। शायद सुभाष पंत ने कहा। राजकुमार गीतों के दौरान मुझे चिढ़ाने के अंदाज में कुछ बोलते।
‘अंकुश हटाया जाय, नहीं तो गाना नहीं होगा।’ -मैंने कहा।
पालीवाल जी ने जिस सदाशयता से राजकुमार की खुड़पेंच में शामिल होते हुए मेरे बजाने के लिए थाली मँगा दी थी, उसी से प्रेरित होकर राजकुमार को कमरे में बंद करने के लिए भी तैयार हो गये। बहरहाल, ऐसा करने की जरूरत नहीं पड़ी।
‘अरे भाई, इनका ध्यान रखिए! डाइबिटीज है इन्हें!’ -मेरा मदात्यय देखकर कामतानाथ जी ने राजकुमार से कहा था। यह अजीब संयोग है कि आज, जब कामतानाथ जी पर लिख रहा हूँ, मेरी माँ का कुछ ही दिनों पहले निधन हो चुका है। माँ की याद आती है और कामतानाथ जी के वाक्य में निहित मातृत्व की भी...!
आँख मूँद कर गा रहा था मैं। नहीं, नहीं, मुहावरे में नहीं; सचमुच अधमुँदी हो रही थीं आँखें। इसी बीच एक गीत में मेज की थाप जरूरत से कुछ ज्यादा सुनायी पड़ने लगी। मुझे लगा, पांडेय जी पूजा-पाठ से निवृत्त होकर आ गये हैं। आँख खोलने पर पता चला कि पांडेय जी तो आ ही गये हैं, अब पालीवाल जी भी मेज बजा रहे हैं। वह गीत था-
‘डोरी डाल दे...!’
इस गीत पर पालीवाल जी ने इस तरह मेज बजायी कि उनकी उँगलियों से खून की कुछ बूँदें निकल आयीं। हो सकता है, न भी निकला हो खून। मैं मेज के इस पार था और विह्वलता की उस दशा में ठीक से उनकी उँगलियाँ देख नहीं पाया। हाँ, मित्रों की आह्लाद भरी टिप्पणियों से पालीवाल की उँगलियों से खून बहने की सूचना मिल रही थी। पता नहीं खून बहा या नहीं, मेज पर पालीवाल जी की थाप बंद नहीं हुई। सम पर आते-आते गाने भी लगते वे। कई साथी स्वर लगाने लगते।
उस रात जिस गीत को सुनते हुए लोग कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गये, वह हिरनी वाला गीत था: ....नया पलाश का पेड़..। ...घने पत्ते...। ...पेड़ तले हिरन-हिरनी...। ...चरते-चरते हिरनी हिरन से पूछती है-
‘क्या तेरा चरागाह सूख गया है? या पानी के बिना कुम्हलाये हो?’
‘नहीं हिरनी, न तो मेरा चरागाह सूखा है, न ही पानी के बिना कुम्हलाया हूँ। कल राजा के यहाँ जन्मोत्सव है। मुझे मार न डालें राजा के लोग।’
दृश्यांतर। ...हिरनी हिरन की खाल माँग रही है रानी से...। पेड़ में टाँग देगी खाल और मान लेगी कि हिरन जिंदा है। ...मूर्ति बनी कृष्णा जी वीडियोग्राफी कर रही हैं। कामतानाथ, सुभाष पंत, से.रा.यात्री, आर.के.पालीवाल, गुरदीप खुराना, हरिनारायण, राजकमल सब गंभीर। सब विह्वल। शोक विह्वल। दो रातों की परंपरा के विपरीत यह गंभीर गीत था। वृजेंद्र पांडेय तो मंडली में शामिल थे। लगातार मेज बजा रहे थेे। राजकुमार बिना कुछ गाये-बजाये मंडली में शामिल थे। प्रेरक की भूमिका में थे वे। इस गीत का प्रस्ताव उन्हीं का था। हाँ, घायल उँगलियों वाले कलाकार का नाम मंडली में शामिल न करना सरासर नाइंसाफी होगी!
‘...नहीं दी जायेगी खाल! ...बच्चे हिरन की खाल से बनी खँजड़ी बजायेंगे।’ -रानी का जवाब।
...जब-जब खँजड़ी बजती है, पलाश के घने पत्तों वाले उसी नये पेड़ के नीचे खड़ी हिरनी हिरन को बिसूरती है...। क्षण भर सब चुप रहे। मैं भी। ‘अंकुश’ की संज्ञा पाये राजकुमार भी। इस गीत के बाद कोई गीत नहीं हुआ।
अगले दिन सब अपनी-अपनी मंजिल को रवाना हुए। दिल्ली और देहरादून के साथी अलग गाड़ी से और लखनऊ और उसके आस-पास के साथी अलग गाड़ी से। पालीवाल जी उन दिनों दिल्ली में ही थे। अलग होते समय लगा, हम सब कहीं-न-कहीं एक-दूसरे को अपने भीतर लिये जा रहे हैं।
लौटते हुए एक बार फिर हम लोग उसी पथ पर थे, जिससे आये थे। सेमल के ढेर सारे पेड़। नेपाल की तराई। आम-महुआ के पेड़। ताजे गुड़ की गंध। हवा में उड़ती गन्ने की खोई। फिर नदी। नदी पर पुल। बिना किसी निर्धारित संकेत के एक साथ हर गाड़ी का आना और जाना। रेलगाड़ी का भी। हाँ, आदमी कितनी-कितनी भंगिमाएँ अपना कर संकेत कर सकता है, इसके नाना नमूने दिख रहे थे।
लखनऊ पहुँचकर इस बात की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि कामतानाथ जी मुझे एक शाम की खास दावत देंगे। शाम को हम लोग साथ बैठे। राजकुमार, मैं और कामतानाथ जी। उनका कंम्प्यूटर। पांडुलिपियाँ। मेज के ऊपर भी और नीचे भी।
‘खुद चलाते हैं कंम्प्यूटर?’
‘नहीं, लड़का आता है। रोज नहीं आता। बुलाने पर आता है। शाम को। बोलकर लिखवाता हूँ।’
सुरुचिपूर्ण पानगोष्ठी। उन्हें मेरे निरामिष होने का अनुमान नहीं था। कबाब आया।
‘क्या यह निरामिष है?’ -मैंने पूछा।
‘आप से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी।’ -आँखों में मुस्कराते हुए बोले वे। फिर मेरे लिए कोई दूसरी चीज मँगवायी उन्होंने-शायद बैगन का कोई व्यंजन। फिर कभी मेरा मिलना कामतानाथ जी से नहीं हुआ। हाँ, फोन पर बातें होतीं। जब कभी मैंने दुआ-सलाम की औपचारिकता की, उधर से आवाज आती:
‘आप तो बहराइच में होंगे...!’
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