tag:blogger.com,1999:blog-52703869939707389222024-03-13T02:44:01.191-07:00आख्यानकुछ शब्दचित्र हैं यहाँ। विकास की अन्धी दौड़ में ये हाशिये की आख्यायें हैं और आख्यान भी!DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-696771172735249282023-03-24T01:00:00.038-07:002023-03-24T10:36:33.697-07:00 पात्रता<p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> <b> गंगाधर</b> का क्या हुआ, यह तो पहले ही जान गये थे लोग-अखबारों में छपी उस छोटी सी खबर के जरिये, लेकिन डॉक्टर मिश्र का क्या हुआ, इस सम्बन्ध में सिर्फ अफवाहें थीं। शहर के किसी भी अखबार में उनसे सम्बन्धित एक भी समाचार नहीं था, जबकि इस समय सब की जिज्ञासा के केन्द्र वे ही थे। ऐसे में स्वाभाविक था कि अफवाहों का बाजार गर्म होता। लोगों का तो यह भी कहना था कि अफवाहें ही सच हैं।...</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> .....महामहोपाध्याय जी से डॉक्टरेट की उपाधि लेने की प्रेरणा ग्रहण की थी गंगाधर ने। ग्यारहवीं में पढ़ता था वह, जब आठ जगह से टेढ़े शरीर वाले महामहोपाध्याय जी को अचानक एक दिन सब ‘डॉक्टर साहब’ कहने लगे और कुछ ही महीनों के बाद उनकी नियुक्ति किसी डिग्री कॉलेज में हो गयी थी। विदाई के समय अष्टावक्र (पीठ पीछे सब यही कहते थे महामहोपाध्याय जी को) जी के गले से लटकते गुलाब के गजरों की महक पंडाल में फैल रही थी। उनका ललाट दिपदिपा रहा था और छात्रों के बीच बैठा गंगाधर खुद ‘डॉॅक्टर साहब’ बनने की प्रेरणा ग्रहण कर रहा था।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> कस्बे के महाविद्यालय से बी.ए. और एक आवासीय विश्वविद्यालय से एम.ए. कर लेने के बाद गंगाधर पी-एच.डी. के लिए गाइड की तलाश में निकला। ज्यादातर प्रोफेसरों ने मुलाकात ही नहीं की और जिन्होंने की, उन्होंने डिवीजन, फेलोशिप और पिता की आय के स्रोत से सम्बन्धित प्रश्न पूछे।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘नहीं, नहीं! बिना फेलोशिप के कैसे करोगे?’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">ट्यूशन कर के खर्च चलाते गंगाधर का डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने का सपना टूट गया था और वह क्लर्क ग्रेड की परीक्षाओं की तैयारी में लगा था, जब मित्र का पोस्टकार्ड मिला, जिसका एक वाक्य इस तरह था:</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘प्रथम श्रेणी में एम.ए. करके पी-एच.डी. में दाखिला लेने वालों को यह विश्वविद्यालय दो वर्ष के लिए तीन सौ रुपये प्रतिमाह की फेलोशिप देता है।’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> कई बार पढ़ा उसने इस वाक्य को । ...प्रथम श्रेणी में एम.ए.! ...तीन सौ रुपये प्रतिमाह! ...यह विश्वविद्यालय! ...वह विश्वविद्यालय! ...तीन सौ किलोमीटर! ...किराया?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> तीसरे दिन किराये के पैसों का इंतजाम करके वह तीन सौ किलोमीटर दूर समस्त विद्याओं के उस महान अधिष्ठान के सिंहद्वार पर खड़ा था। चार दिनों तक मित्र के साथ साइकिल से विश्वविद्यालय के विशाल वृत्ताकार परिसर में बने शिक्षक-आवासों का चक्कर लगाते-लगाते वह फिर वहीं पहुँच जाता, जहाँ से चला होता। सब जगह एक जवाब-‘निर्धारित संख्या पहले से पूरी है। अभी नये शोधछात्र नहीं लिये जा सकते।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">एक उपन्यासकार प्रोफेसर, जिनकी एक किताब से गंगाधर प्रभावित था, पल भर के लिए लुंगी-बनियान में प्रकट हुए और अगले ही पल इस निवेदन के साथ दरवाजा बन्द कर लिया:</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘माफ कीजिए! मैं ब्लडशुगर और हाइपरटेंशन से इस तरह ग्रस्त हूँ कि आप से बात भी नहीं कर सकूँगा।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">तपती दोपहर में वे एक जलपान-गृह के सामने भौंचक खड़े थे विरल छाया वाले किसी पेड़ तले। साइकिल को इस तरह पकड़ रखा था दोनों ने, मानो वह एकमात्र सहारा हो।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘आओ, चाय पीते हैं।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> गंगाधर ने प्रश्नाकुल दृष्टि से मित्र की ओर देखा।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘यह जलपान-गृह छात्रों के लिए बनाया गया है। यहाँ चीजें बाजार की तुलना में काफी सस्ती मिलती हैं। कूपन और स्वयंसेवा का नियम है।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">जलपान-गृह की सुन्दरता और सादगी से वह प्रभावित हो रहा था, लेकिन दिमाग बार-बार कहता- ‘यह तुम्हारे लिए नहीं है।’ इसी बीच मित्र ने काउंटर से दो कूपन खरीद लिये थे और दूसरे काउंटर पर जमा कर के दो-दो रसगुल्लों और चाय का ऑर्डर दे दिया था।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">रसगुल्लों की दोनों प्लेटें लेकर आते मित्र के कंधे से लटकता झोला बार-बार असंतुलित हो रहा था। गंगाधर ने दीवाल पर लिखे स्वयंसेवा के निर्देश को फिर से पढ़ा और दौड़कर एक प्लेट पकड़ ली। रसगुल्लों और चाय से तन की थकान तो दूर हुई, लेकिन मन की बेचारगी जस की तस रही। इसी बीच उसका ध्यान सामने की मेज पर बैठे लड़कों की ओर गया। वे जलपान-गृह के कर्मचारियों को डाँट रहे थे और जबरन काम करा रहे थे।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘अरे! यह तो स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन है!’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -गंगाधर के मुँह से निकल गया।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘उहँ! छोड़िए! हम लोगों से क्या मतलब?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">-मित्र ने दबी जबान में समझाया।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘क्या ये भी यहाँ के विद्यार्थी हैं?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘हाँ।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘का जी? ए पाँड़े जी! आ त कहाँ जा रहे हैं? तनिक बैठ लीजिए। हाल-चाल तो होना ही चाहिए।’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">-वे जलपान-गृह से निकलने को थे, जब स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन करने वालों में से एक की तेज आवाज सुनायी पड़ी।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘कुछ नहीं भैया, ये मेरे मित्र आये हैं पी-एच.डी. करने के लिए।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘तब? कुछ बात बनल?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘क्या बात बनेगी? किसी के अंडर में जगह ही नहीं है।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘मिसिरा जी से मिले कि नहीं?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘उनसे तो नहीं मिले।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘काहे...? अब्बे चलिए, एहीं बेरा।’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">पल भर के लिए मित्र ने गंगाधर की आँखों में झाँका और अगले पल दोनों मित्र लड़कों की उसी टोली के पीछे-पीछे चलने लगे। <span style="text-align: justify;">डॉक्टर मिश्र ने बिना कुछ बोले फार्म पर हस्ताक्षर कर दिये थे।</span><span style="text-align: center;"> </span></span></p><p><span style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘का जी? अब का निहार रहे हैं? चढ़ाइए गुरुदछिना! गुरू बाबा का सिग्नेचर हाइए गया। जाइए फारम जमा करिए।’</span></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन करने वालों में से एक बोल पड़ा। बेहद अटपटी लग रही थीं उसकी बातें गंगाधर को। फिर उस ने डॉक्टर मिश्र का चेहरा देखा। मौन बैठे थे वे-स्वयंसेवा के नियम का उल्लंघन करने वाले की बातों का अनुमोदन करते हुए से। असहाय गंगाधर ने मित्र की ओर देखा। मित्र ने जेब में हाथ डाला और बँधी मुट्ठी से एक पचास का नोट पकड़ा दिया गंगाधर को। डॉक्टर मिश्र के चरणों में पचास का नोट रखते हुए गंगाधर एक तरफ हीनता-बोध से ग्रस्त हो रहा था, दूसरी तरफ डॉक्टरेट की उपाधि मिलने की सम्भावना से पुलकित भी।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘सर टॉपिक?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -चलने से पहले गंगाधर ने पूछा। बिना टॉपिक पर बात किये मिश्र जी का फॉर्म पर हस्ताक्षर कर देना उसे विचित्र भी लग रहा था और सुखद भी।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘तुलसी की समन्वय भावना पर कर लो।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘मैं समकालीन साहित्य पर काम करना चाहता हूँ सर।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘जिस पर चाहो, उस पर करो। हाँ, एक चीज का ध्यान रखना कि टॉपिक से मिलती-जुलती कुछ थीसिसें उपलब्ध हों। समझे?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘जी।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium; text-align: right;">-बिना कुछ समझे बोल पड़ा गंगाधर।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">डॉक्टर मिश्र के आवास से बाहर आकर वह विश्वविद्यालय के स्थापत्य और पेड़-पौधों को निरखने में ऐसे मशगूल हुआ कि सब कुछ भूल गया। अभी तक उसकी आँखों ने देखा था विश्वविद्यालय-परिसर, अब दिमाग देख रहा था। अभी तक वह इस परिसर से खुद को पृथक समझता था और अब इस समग्र दृश्य के अविच्छिन्न अंग के रूप में देख रहा था अपने आप को।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘का जी? पाँड़े जी! चाह-पानी कुछहू न होई का हो?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -स्वयंसेवा नियम का उल्लंघन करने वालों की मंडली के इस समवेत संवाद ने दिवास्वप्न देखते गंगाधर को जमीन पर ला पटका।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘अरे डॉक्टर साहब, अभी तो इन्हें फीस का भी इंतजाम करना होगा। फेलोशिप मिलने दीजिए, फिर सब होगा। अब तो ये आप ही लोगों की शरण में रहेंगे।’</span></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">-हाथ जोड़कर मित्र ने बचाव किया।</span></span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘आ त तनी हेने आइए।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -फिर उस व्यक्ति ने, जिसे ‘डॉक्टर साहब’ कहकर सम्बोधित किया गया था, मित्र के कान में कुछ कहा था। रात को हॉस्टल के कमरे में सोने से पहले मित्र ने कान में कही गयी बात बतायी थी। बिजली के हीटर पर तवा रखकर छः रोटियाँ सेंक ली थीं मित्र ने और तवे पर ही थोड़ी, किन्तु सुस्वादु सब्जी भी बना ली थी। तीन-तीन रोटियाँ खा ली थीं दोनों ने। तर्जनी से अपनी-अपनी ओर का तवे का हिस्सा भी चाट लिया था और अब औषधोद्यान से आती तरह-तरह के फूलों और वनस्पतियों की मिली-जुली गन्ध दिमाग में रसायन घोल रही थी। इधर-उधर की बातें कर रहे थे वे।</span></span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘क्या हॉस्टल में पी-एच.डी.किये हुए लोग भी रहते हैं?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘क्यों? मैं क्या हूँ? ...और हाँ, उद्दंड मंडली के जो सरगना थे, वे भी पी-एच.डी.-धारक हैं। तरह-तरह के पी-एच.डी.-धारक बेरोजगारी के दिन काटते मिलेंगे यहाँ आप को।’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">उसी समय मित्र ने कान में कही गयी बात बतायी थी, जिसका निचोड़ यह था कि फेलोशिप मिलने पर ही हर महीने गाइड को सौ रुपये देने होंगे।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘क्या हर गाइड पैसे लेता है?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘नहीं, लेकिन यह लेता है। पाँच हजार में पी-एच.डी. का ठेका लेता है यह, ऐसा लोगों का कहना है। आप से फिर भी कम ले रहा है। दो साल में दो हजार चार सौ ही तो हुए!’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">नींद में सारी रात महामहोपाध्याय जी के सपने दिखते रहे गंगाधर को। ...दन्त्य, तालव्य, मूर्द्धन्य...। ...शुद्ध उच्चारण...। ...शुद्ध आचरण...। ...वगैरह-वगैरह...। अचानक डॉक्टर मिश्र का चेहरा दिखने लगा...। आठ जगह से टेढ़े धड़ पर डॉक्टर मिश्र का चेहरा...। नहीं...। ऐसा नहीं हो सकता...।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘इनका उच्चारण शुद्ध नहीं है...।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -इसी उद्घोष के साथ वह सोकर उठा।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘क्या हुआ?’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘कुछ नहीं।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘शायद कोई सपना देख रहे थे।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘हूँ।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘ठीक है। आज बाकी औपचारिकताएँ पूरी करनी हैं, जल्दी से तैयार हो लें।’</span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">-नींबू की चाय का प्याला थमाते हुए मित्र ने कहा।</span></p><p style="text-align: left;"><span style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘बाकी औपचारिकताएँ तो ठीक हैं, यह सिनॉप्सिस कैसे बनायी जायेगी?’</span></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘उसमें कुछ खास नहीं है। सिनॉप्सिस माने रूपरेखा। आप अपना शोध कितने अध्यायों में पूरा करेंगे, किस अध्याय में क्या शीर्षक होगा-आदि-आदि।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">-चाय का प्याला लिये हुए वे बरामदे में आ गये, तो मित्र ने बात आगे बढ़ायी-</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘हाँ, एक बात ध्यान में रखिएगा कि सिनॉप्सिस में आप जो लिख देंगे, बाद में उसमें परिवर्तन करना लगभग असम्भव जैसा होगा।दूसरी बात यह कि भले ही सिनॉप्सिस आप खुद बनायें, लेकिन गाइड को यह न लगने पाये कि आप अपने आप सिनॉप्सिस बना सकते हैं। इसलिए पहले एक रफ बनाकर गाइड को दिखा लें, फिर टाइप के लिए दें।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> चाय खत्म कर गंगाधर बाथरूम की ओर जाने ही वाला था कि मित्र ने फिर कुछ कहा-</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘देखिए, ये जनाब, जो कुर्ता-पाजामा पहने अखबार बाँट रहे हैं, ये भी पी-एच.डी. हैं।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">अचरज से भरे गंगाधर कुछ बोल नहीं पाये। हर पी-एच.डी.-धारक को वे उतना ही आदरणीय समझते थे, जितना महामहोपाध्याय जी को। वे एकटक अखबार बाँटते व्यक्ति को देखते रहे। नजदीक आने पर मित्र ने नाम लेकर और गंगाधर ने ‘डॉक्टर साहब’ कहकर उसका अभिवादन किया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘स्साला...!’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -गुस्से में तमतमा उठा वह आदमी। गंगाधर सन्न। ...क्या गलती हुई?</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘किस काम की डाक्टरी और किस काम की साहबी...? एक जून की रोटी के लिए पिछले सात सालों से अखबार बेच रहा हूँ। समझे महोदय...?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह कुछ नरम पड़ा-</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘नये लगते हैं!’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘जी...।’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">अगले दिन दिन ढलते-ढलते गंगाधर सिनॉप्सिस का रफ गाइड को दिखाने ले गया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘ये तुमने खुद बनाया है?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘जी।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘बहुत बिदवान लागत बाड़ऽ हो!’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">-डॉक्टर मिश्र के निकट पहले से बैठे पी-एच.डी.-धारक बोले।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘डॉक्टर साहब, मुझसे कोई गलती हुई क्या?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium; text-align: left;">‘गलती? ए भइया ह ई देखऽ! एतना दिना में तूँ पहिला आदमी हउअऽ, जे अपना से आपन सेनॉप्सिस बनवलस। अब गुरू बाबा के कवन काम?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘छोड़ो जी! जाने दो। एक विद्वान की भी तो जरूरत होती है। जाओ, टाइप कराओ।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">-गंगाधर कुछ बोलता, इससे पहले ही डॉक्टर मिश्र बोल पड़े।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">तीन साल बीत गये थे। फेलोशिप एक साल पहले ही बन्द हो चुकी थी। इस बीच गंगाधर न सिर्फ अपनी, बल्कि दो अन्य लोगों की भी थीसिसें लिख चुका था। यह डॉक्टर मिश्र के दबाव के चलते हो पाया। पहले तो वे उसे अपनी थीसिस लिखने की प्रेरणा देते रहे, लेकिन जब डेढ़ साल बीतते-बीतते उसने लिख ली अपनी थीसिस, तो डॉक्टर मिश्र आकस्मिक ढंग से रुपयों की महिमा समझाने लगे। जब तक वह रुपयों और थीसिस के बीच का रिश्ता समझता, उन्होंने उसे एक थीसिस का टॉपिक, उसी टॉपिक से मिलती-जुलती दो थीसिसें और एक हजार रुपये थमा दिये। एक क्षण के लिए उसे लगा, जैसे महामहोपाध्याय जी खड़े हो गये हों रुपयों और थीसिस के बीच में। ...दन्त्य, तालव्य, मूर्द्धन्य...! शुद्ध उच्चारण...। शुद्ध आचरण...! अगले ही क्षण एक श्लोक याद आ गया उसे, जो महामहोपाध्याय जी सुनाया करते थे। श्लोक के जिस भावार्थ ने उसे राहत दी, वह इस प्रकार है-‘विद्या विनय देती है। विनय से पात्रता आती है। पात्रता से धन प्राप्त होता है...!’ बस...! इतने पर ही रुक गया था गंगाधर का दिमाग-पात्रता...। तीन सालों तक रुका रहा दिमाग बस इतने पर ही-पात्रता...। यह शब्द आत्मगौरव की प्रतीति कराता रहा उसे तीन सालों तक।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">इस बीच स्वयंसेवा नियम तोड़ने वाली मंडली के सरगना समेत मिश्र जी के सोलह शिष्य देश के विभिन्न विद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हो चुके थे। गंगाधर का मित्र शासकीय महाविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गया था। अखबार बेचने वाले पी-एच.डी.धारक की मृत्यु हो गयी थी। शायद भूख से।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">आत्मगौरव की प्रतीतियों में डूबते-उतराते गंगाधर को एक सुबह यह जानकर तगड़ा झटका लगा कि जिन दो नये शोधार्थियों की थीसिसें उसने कुछ महीने पहले लिखी थीं, उनके प्री सबमिशन वाइवा यानी थीसिस जमा होने से पूर्व होने वाली मौखिक परीक्षा की तारीखें आ गयी हैं। ...क्या हो सकता है? ...मेरी थीसिस डेढ़ साल से मिश्र जी के पास पड़ी है, आज तक कभी टाइप के लिए भी नहीं कहा!</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> दिन में विभाग के तीन चक्कर लगाये गंगाधर ने। तीसरी बार भेंट हो पायी डॉक्टर मिश्र से।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘सर, मैं अपनी थीसिस के बारे में बात करना चाहता हूँ।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">थोड़ी देर तक डॉक्टर मिश्र उसे ऐसे देखते रहे, जैसे पहचान न रहे हों।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘सर, मैं....।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘नहीं, नहीं। ये बातें यहाँ नहीं, घर में।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘सर, मेरी लिखी एक-से-एक कूड़ा थीसिसें आप पास किये जा रहे हैं और मेरी थीसिस डेढ़ साल से लटकाये बैठे हैं, ऐसा क्यों? मैं कब तक दूसरों की थीसिसें लिखता रहूँगा...?’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> शाम को डॉक्टर मिश्र अकेले थे और गंगाधर खुलकर बोल रहा था। उत्तेजना में काँप रहा था।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘आज कुछ बदले-बदले लग रहे हो!’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘हाँ सर, स्थितियों ने बदल दिया है मुझे।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘देखो, उन लड़कों की स्थिति अलग है, तुम्हारी अलग। इसे लेकर क्यों परेशान हो रहे हो?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘मैं जानता हूँ। वे अपनी थीसिस खुद नहीं लिख सकते इसलिए पैसे देकर लिखवाते हैं। मैं अपनी थीसिस खुद लिख सकता हूँ। इसके अलावा और क्या फर्क है स्थिति में। क्या उन्हें उनकी अयोग्यता के कारण डॉक्टरेट की उपाधि जल्द-से-जल्द मिल जानी चाहिए और मुझे अपनी योग्यता के कारण उस उपाधि से वंचित रहकर जीवन भर दूसरों की थीसिसें लिखनी चाहिए?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘तुम बिना मतलब इतना गुस्सा हो रहे हो। देखो तुम विद्वान हो, इसलिए तुम्हारी थीसिस पर मैंने ध्यान ही नहीं दिया। इधर बहुत दिनों से खोज रहा हूँ, मिल नहीं रही है।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘क्या ऽ ऽ ? हाथ से लिखे साढ़े सात सौ पृष्ठों की थीसिस खो कैसे गयी सर?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘नहीं, खो नहीं गयी। होगी यहीं कहीं। मिल जायेगी। हम खोज लेंगे दो-चार दिन में। अभी तुम ये पकड़ो।’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -एक थीसिस का टॉपिक, उसी से मिलती-जुलती कुछ थीसिसें और एक हजार रुपये उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले डॉक्टर मिश्र।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> ‘नहीं सर! अब नहीं! यह मेरी पात्रता का दुरुपयोग है। एक बात और सुन लीजिए,’</span></p><p><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">इसके बाद वही बात कह दी गंगाधर ने जो उसे नहीं कहनी चाहिए थे-</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘आज मैं समझ पाया कि स्वार्थवश आपने मेरी थीसिस रोक रखी है। अगर एक हफ्ते के भीतर मेरी थीसिस पास नहीं की जाती, तो मैं लिखित रूप से विश्वविद्यालय प्रशासन को सारी असलियत से अवगत कराऊँगा।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘तो तुम मुझे धमकी दे रहे हो?’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘नहीं सर। धमकी नहीं दे रहा हूँ, विनती कर रहा हूँ।’</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> -अब वह डॉक्टर मिश्र के पैर पकड़ कर रो रहा था- <span style="text-align: left;">‘प्लीज मेरी थीसिस पास कर दें सर! या कोई कमी हो तो बता दें। मैं फिर से लिख लाऊँगा। मैं पी-एच.डी. करना चाहता हूँ सर!’</span></span></p><p style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">‘ठीक है एक हफ्ते बाद आओ।’ </span></p><p><span style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> हफ्ते भर बाद, जब गंगाधर डॉक्टर मिश्र के घर गया, तो वे तो मिले, लेकिन थीसिस नहीं मिली। अब की बार वह बिना कुछ बोले लौट आया।</span></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> अँड़तालीस घंटे बाद अखबारों में अलग-अलग शीर्षकों से एक शोधार्थी की हत्या की खबर छपी थी। अखबारों ने इसे छात्रों की आपसी लड़ाई का नतीजा बताया था, लेकिन विश्वविद्यालय-परिसर के भीतर की खुसुर-फुसुर और बाहर की गहमा गहमी में एक टॉर्च और सोलह बन्दूकों वाला किस्सा प्रचलित था। चूँकि यह वाचिक था, मुद्रित नहीं; इसलिए अफवाहों की श्रेणी में शामिल था। लोंगों का कहना था कि अफवाहें ही सच हैं।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> अभी ठीक से एक महीना भी नहीं बीता था कि एक दूसरी अफवाह उड़ी कि डॉक्टर मिश्र की इंटरमीडिएट के बाद की हर सनद नकली है। इस बार एक भी खबर नहीं छपी थी। अफवाह हंगामे में तब्दील हो गयी थी और डॉक्टर मिश्र सपरिवार गायब थे। परिसर की पान की दूकानों पर अध्यापकों की खास किस्म की सुखदायी बतकही चल रही थी, जिसका मूल आधार यह था कि सनदें मिश्रा की नकली पायी गयी हैं हमारी नहीं...।</span></p><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><p style="text-align: right;"><span></span></p></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote></blockquote><p style="text-align: right;"><span></span></p>DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com0प्रयागराज, उत्तर प्रदेश, भारत25.4358011 81.846311-53.712578961361181 -58.778688999999972 90 -137.52868900000004tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-80471986444638238072020-05-24T12:55:00.005-07:002023-03-24T10:46:52.502-07:00 ‘कथादेश’ मासिक फरवरी 2020 अंक, में प्रकाशित कहानी ‘जश्न’ की समीक्षा - डॉ. निशाकान्त द्विवेदी, केन्द्रीय विद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार.<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><span face="sans-serif" style="font-size: 12.8px;"> </span><span face="sans-serif"> ‘कथादेश’ मासिक फरवरी 2020 अंक, में प्रकाशित </span><span face="sans-serif" style="text-align: left;">शिवशंकर मिश्र की कहानी ‘जश्न’ भारत की बहुसंख्य आबादी का प्रतिनिधित्व </span><span face="sans-serif" style="text-align: left;">करती है। इसमें जहाँ एक ओर मानव में मानव सुलभ आनंद प्राप्ति की लालसा </span><span face="sans-serif" style="text-align: left;">है, तो दूसरी ओर उचित शिक्षा/ज्ञान के अभाव में दिन-रात दुःखों को सहन </span><span face="sans-serif" style="text-align: left;">करते हुए उसे सहज सहचर स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है।</span></div><div style="text-align: left;"><span face="sans-serif"> इसमें एक ओर यदि ग्रामीण परिवेश में पलकर अनपढ़ होते हुए भी परिवार के </span><span face="sans-serif" style="text-align: left;">सदस्यों का आपसी सद्भाव और प्रेम दिखाई देता है तो दूसरी ओर शहरी परिवेश के पढ़े</span><span face="sans-serif"> लिखे लोगों की उस प्रवृत्ति को दिखाता है, जो चतुर्थ श्रेणी </span><span face="sans-serif">कर्मचारी से हाथ मिलाने में अपनी ज्ञान-गरिमा की उच्चता प्रभावित होने का </span><span face="sans-serif">खतरा महसूस करता है।<b><i> एक ओर अभाव ग्रस्त लोग उत्सव और आनंद हेतु अवसर </i></b></span><span face="sans-serif"><b><i>निकालकर अपनी दबी इच्छापूर्ति का संतोष करते हैं और दूसरी तरफ साधन </i></b></span><span face="sans-serif"><b><i>संपन्न तनाव में जीने के अभ्यासी हो रहे हैं।</i></b> कहानी धर्म, जाति के आवरण </span><span face="sans-serif">में जीने वालों के दिखावे को भी सहज भाव से अनावृत करती है। </span></div><div style="text-align: justify;"><div style="text-align: justify;"><span face="sans-serif"> प्रस्तुत </span><span face="sans-serif">कहानी गंदगी और अज्ञान के साहचर्य से उपजी ग्रामीण समस्याओं को उकेरती </span><span face="sans-serif">है, तो साथ ही शासन की सड़ांध से उपजी चिकित्सा क्षेत्र की समस्या से भी </span><span face="sans-serif">पर्दा उठाती है। कहानी यह भी उद्घाटित करती है कि देश की बहुसंख्य आबादी </span><span face="sans-serif">की समस्या का कारण केवल शिक्षा का अभाव, अज्ञान ही नहीं है, बल्कि, </span><span face="sans-serif">तथाकथित ज्ञानसम्पन्न लोगों की तांत्रिक भ्रष्टाचार का साहचर्य भी है। इस </span><span face="sans-serif">कहानी के प्रमुख पात्र के सभी भाई विकलांग या अभाव ग्रस्त होकर भी आनंद </span><span face="sans-serif">और प्रेम से रहा जा सकता है, इस रहस्य को उद्घाटित करते दिखाई देते हैं।यह</span><span face="sans-serif"> एक जीवन दर्शन है। <b><i>यह मानव प्रवृत्ति है कि अत्यंत कष्टमय दशाओं में </i></b></span><span face="sans-serif"><b><i>भी वह जीवन से उदासीन नहीं होती- ‘अतिकष्टासु दशास्वपि जीवितनिरपेक्षा न भवन्ति</i></b></span><span face="sans-serif"><b><i> खलु जगति प्राणिनां वृत्तयः’- बाणभट्ट। </i></b>कहानी यह भी दिखाती है कि</span><span face="sans-serif" style="text-align: left;"> अज्ञान और जागरूकता के अभाव में जीवन संकट से कितना घिर सकता है, यहाँ तक कि</span><span face="sans-serif" style="text-align: left;"> मृत्यु का वरण भी कर लेता है और यह कहानी इस रूप में भारतीय ग्रामीण समाज</span><span face="sans-serif" style="text-align: left;"> के एक बहुत बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। फिर भी, मनुष्य सहज भाव</span><span face="sans-serif" style="text-align: left;"> से जश्न मनाने का कोई न कोई कारण भी खोज लेता है। आज देश को जिस ज्ञान</span><span face="sans-serif" style="text-align: left;"> एवं जागरूकता की आवश्यकता है, उस कान्तासम्मित संदेश को समेटे प्रस्तुत</span><span face="sans-serif" style="text-align: left;"> कहानी समाज और तंत्र से अपेक्षा रखती हुई और अधिक प्रासंगिक एवं सफल</span><span face="sans-serif" style="text-align: left;"> हुई है। <b><i>प्रकारांतर से यह कहानी ‘कोरोना’ का भविष्य वाचन है।</i></b></span></div>
</div>
<span face="sans-serif"> <b>- डॉ. निशाकान्त द्विवेदी,</b></span><span face="sans-serif"><b> केन्द्रीय विद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार</b></span></div>
DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-66260710958569504952019-10-09T02:25:00.000-07:002020-04-21T01:29:07.957-07:00स्मृति में कामतानाथ- शिवशंकर मिश्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span style="color: #660000; font-size: 14.6667px;"> </span><span style="font-size: 14.6667px;"> <b> </b></span><span style="color: blue; font-size: large;"> </span><span style="color: blue; font-size: large;">कामतानाथ जी का नाम तो पहले से सुन रखा था, कुछ कहानियाँ भी पढ़ी थीं, पर मिलना काफी बाद में हुआ- दुधवा नेशनल पार्क में आयोजित ‘शब्दयोग’ के एक अनौपचारिक कार्यक्रम में। दुधवा तक पहुँचना बाद में हुआ, कामतानाथ जी से मिलना लखनऊ में ही हो गया। जिस कार से मुझे दुधवा तक जाना था, उसी से कामतानाथ जी को भी चलना था। इससे पहलेे मैंने सिर्फ तस्वीर देखी थी उनकी- कलँगी जैसे बाल, सुगठित क्लीन शेव्ड चेहरा। फिर ‘शब्दयोग’ के उन पर केन्द्रित विशेषांक में एक चित्र देखा था- बिना कालर के कुर्ते में। बाल वैसे ही- कलँगी जैसे। हाँ, अब वे पूरी तरह सफेद थे। ठोड़ी पर तर्जनी। दूर देखती आँखें। साक्षात् मिले, तो जींस और टी शर्ट में थे। चेहरा वही। हाँ, अब उसके कई-कई आयाम थे। </span></span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> बड़े लेखक की बगल में बैठने के एहसास से मैं गौरवान्वित भी हो रहा था और थोड़ा आतंकित भी। आतंक और आकर्षण- दोनों में कहीं न कहीं ‘कालकथा’ के आकार की भी भूमिका रही होगी। तब तक मैंने यह उपन्यास नहीं पढ़ा था। सिर्फ आकार देखा था। बाद में, जब पढ़ा, तो एक रात में ही एक खंड पढ़ गया। आतंक का दूसरा कारण मेरी अपनी अराजकताएं थीं और उनकी आँखें भी। एक नजर में गहराई तक टोह लेने वाली आँखें...। ...कुछ नहीं छिपेगा इनसे। हालांकि राजकुमार साथ में थे, उन्हें पहले से कामतानाथ जी की निकटता प्राप्त थी और स्वयं कामतानाथ जी बड़ी आत्मीयता से पेश आ रहे थे, फिर भी मेरा आतंक अपनी जगह था। पिछली सीट पर मेरी बायीं तरफ बैठे थे वे। डाॅ. वृजेंद्र पांडेय (विद्यान्त हिन्दू महाविद्यालय लखनऊ) गाड़ी चला रहे थे। उनकी बगल में राजकुमार बैठे थे। तब तक उनकी नियुक्ति बी.एच.यू. में नहीं हुई थी और वे और डाॅ. पांडेय एक ही महाविद्यालय के अलग-अलग विभागों में कार्यरत थे। हर दस-बीस किलोमीटर पर कोई हल्की-फुल्की बात हो जाती। राजकुमार मुझे लक्ष्य करके कुछ विनोद करते। पांडेय जी साथ देते और कामतानाथ जी किसी हमउम्र की तरह शामिल हो जाते उस व्यंग्य-विनोद में।</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> इसके बाद की जो बातें मैं लिखना चाह रहा हूँ, उनका जिक्र राजकुमार के ‘पत्ता टूटा डार से’ शीर्षक लेख में आ चुका है, जो ‘कथादेश’ के ‘श्रद्धांजलि’ स्तम्भ में छपा है। मेरी समस्या यह है कि अपनी स्मृतियों का क्या करूँ। यदि वह हिस्सा छोड़ता हूँ, तो लगता है, खंडित स्मृतियों का लेखन कर रहा हूँ। इसलिए यह पिष्टपेषण करने को विवश हूँ। कार चली जा रही थी। सड़क किनारे के खेत-खलिहान, गाँव-बस्ती जल्दी-जल्दी पीछे चले जाते। पांडेय जी सड़क देख रहे थे और हम लोग सड़क किनारे के दृश्य। दोनों तरफ उर्वरा धरती। आम-महुए के पेड़। नीम-पीपल। कहीं-कहीं कटहल। रास्ते में एक नदी पड़ी। पता नहीं उन्नाव में थी नदी या आगे कहीं। बहरहाल, नदी जहाँ थी, वहीं रही होगी और मेरी स्मृति में अपनी जगह है। नदी पर अँगरेजों के समय का खतरनाक और विचित्र पुल बना था। खतरनाक और विचित्र इस अर्थ में कि उस निहायत सँकरे पुल से रेलगाड़ी भी जाती थी और पैदल चलने वाले तथा दूसरी गाडि़याँ भी। सब एक साथ, बिना किसी सिग्नल के। बचते-बचाते लोग पुल से निकल जाते थे-शायद रोज-रोज के अभ्यास से या अपनी किस्मत से। नदी, पुल और अँगरेजी हुकूमत से जुड़ी कई बातें बतायीं कामतानाथ जी ने। ऐसा लगा, जैसे इस क्षेत्र का कई-कई बार दौरा किया हो उन्होंने। बाद में, ‘लमही’ के उन पर केंद्रित विशेषांक में छपे उनके चित्रों को देखकर मेरा अनुमान पुष्ट हुआ, जिनमें उन्नाव के किसी गाँव की खपरैल पृष्ठभूमि में है और वे गाँव के युवकों के केंद्र में। ‘कालकथा’ पढ़ लेने के बाद तो उनके विशद गँवई अनुभवों और ऐतिहासिक बोध को लेकर कोई संशय शेष न रहा। ‘कालकथा’ पढ़ते हुए मुझे इस बात के लिए थोड़ी झेंप भी महसूस हुई कि बेवजह मैं उस यात्रा के दौरान उनके लोक-बोध पर चकित हो-होकर विस्मय भाव प्रकट कर रहा था। यह तो उस उपन्यास में घटित और चित्रित होने वाला इलाका ही था। आम, महुआ, नीम और पीपल के पेड़ अब और ज्यादा मिल रहे थे। हवा में ताजे गुड़ की गंध आ रही थी। गन्ने की खोई उड़ रही थी। इसी सब के बीच एक अलग दृश्य ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। सड़क किनारे पटरियों से थोड़ा हटकर घनी-ऊँची घास की कतार सी उगी थी- दोनों तरफ दूर तक या शायद दुधवा तक। वहीं कहीं कुछ क्षणों के लिए रुके हम लोग। रुकने का प्रस्ताव शायद मेरा ही था-कुछ हल्का होने की गरज से। निकट से देखने पर पता चला कि यह घास नहीं भाँग है। उसी समय अवधी का एक लोक-विश्वास याद आया कि बहराइची भाँग दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाँग होती है। मेरे गाँव के वे बुजुर्ग, जो रोज शाम को भाँग छानते (जी, यही शब्द प्रचलित है), अक्सर ठेके पर यह कहते पाये जाते-’सेठ! असली बहराइची पत्ती देना!’</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> मेरा भूबोध या भौगोलिक ज्ञान शुरू से माशा अल्ला रहा है। मैंने मान लिया कि बहराइच में हूँ। या उसी भूमि के निकट हूँ। सोच-विचार के इसी सिलसिले में मैंने एक पौधा उखाड़ लिया और पौधे के साथ ही गाड़ी में आ बैठा। जल्दी-जल्दी पत्तियाँ तोड़कर डंठल बाहर फेंक दूँ, इस इरादे से पत्तियाँ तोड़ने में मैं इस तरह मशगूल हुआ कि मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि पौधे की जड़ में लगी भुरभुरी मिट्टी कामतानाथ जी की पैंट पर गिर रही है। वे कुछ नहीं बोले। पांडेय जी गाड़ी चला रहे थे। स्वाभाविक रूप से सामने देख रहे होंगे। राजकुमार की भी नजर सामने रही होगी। </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">‘यह क्या है मिश्र जी?’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> -कामतानाथ जी उस समय बोले, जब मैं पत्तियाँ तोड़कर डंठल खिड़की से बाहर फेंक रहा था। उनका वाक्य सुनकर मैं अकबका गया।</span></span></div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> ‘कोई आयुर्वेदिक वनस्पति है। वैद्य ने पहचनवायी थी।’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: right; white-space: pre-wrap;"> -कोई जवाब न सूझने की दशा में मैं बोल पड़ा।</span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> 'हाँ, मैं भी खाता था पहले।'</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> -उदासीन भाव से बोले वे। </span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> अब मेरे पास कोई चारा न था। मैंने स्वीकार किया कि यह भाँग है। इसके साथ ही दबी जबान में बहराइची भाँग की सुनी हुई लोकख्याति की भी संक्षिप्त चर्चा की। फिर तो उस यात्रा में ही नहीं, बल्कि पूरे कार्यक्रम के दौरान परिहास का यह स्थायी प्रसंग हो गया। बीच-बीच में कामतानाथ जी पूछते:</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> ‘आप तो बहराइच में होंगे?’</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> सब हँस पड़ते। मैं भी। बाद में, जब भी कभी फोन पर बात हुई, शायद ही कभी ऐसा हुआ हो, जब प्रश्नवाचक मुद्रा में उनका यह विनोद सुनने को न मिला हो। </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> दुधवा का तीन दिनों का प्रवास कई तरह से अविस्मरणीय रहा। अब तो कामतानाथ जी की दृष्टि से उसकी अविस्मरणीयता और बढ़ जाती है। हर स्मृति के केंद्र में उनकी आँखें आ जाती हैं और विदग्ध टिप्पणियाँ भी। दुधवा से पहले ही किसी कस्बे में कुछ राशन, सब्जी वगैरह की खरीद हुई। यों यह काम राजकुमार और पांडेय जी कर रहे थे, लेकिन क्या खरीदें और क्या नहीं- इस तरह की बातों में कामतानाथ जी पूरी बेतकल्लुफी और गर्मजोशी से शामिल थे। कौन सी जगह रही होगी, मुझे याद नहीं। हाँ, अब आम-महुए के पेड़ों की जगह सेमल के ढेर सारे पेड़ मिल रहे थे- शाल्मली वन! मुझे दूर गहराइयों में ऊँचे खड़े सेमल के पेड़ों को निहारते देखकर कामतानाथ जी बोले-‘नेपाल की तराई का इलाका है।’ सड़क छोड़कर अब वन की पगडंडी पर गाड़ी चल रही थी। गिरे घने पत्तों के बीच राह कहाँ होगी और गहराई कहाँ, पांडेय जी बड़ी कुशलता से समझ लेते थे। रोमांचक ड्राइविंग कर रहे थे वे। इस बात का पूरी तरह प्रत्यायन तो तब हो पाया, जब कुछ घंटों के बाद पता चला कि दिल्ली और देहरादून के लेखकों को लेकर आती कार किसी गहराई में इस तरह फँस गयी कि निकल ही नहीं पायी। जगह-जगह ऊँची-ऊँची बाँबियाँ मिल रही थीं-वल्मीक! कामतानाथ जी ने वहाँ से नैमिषारण्य की निकटता के बारे में बताया और मेरे मन में तरह-तरह के पौराणिक बिंब गड्ड-मड्ड होने लगे। वन-विभाग के गेस्ट हाउस में हम लोगों के पहुँचते-पहुँचते दिन ढलने को था। थोड़ी ही देर में अँधेरा हो गया। जेनरेटर चलवाया गया। उसी समय राजकुमार के फोन पर दिल्ली और देहरादून के लेखकों को लेकर आती कार के गड्ढे में फँस जाने वाली खबर आयी। राजकुमार बार-बार फोन लगा रहे थे। अचानक नेटवर्क गायब। ...अब क्या हो? पांडेय जी तुरंत तैयार हो गये- ‘चलिए देखते हैं।’ इसी बीच कुछ दूरी पर टार्च की रोशनी दिखी और करीब आधे घंटे में आगे-आगे टार्च थामे आर.के.पालीवाल और उनके साथ दूसरे कई लोग आते दिखायी पड़े। नजदीक पहुँचने पर सबके चेहरे दिखे। पालीवाल जी ऐसे मुस्करा रहे थे और उत्साह से मिल रहे थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। एक लंबा आदमी दिखा। बाल भी लंबे। कुर्ता और भी लंबा। ये से.रा.यात्री थे। हरिनारायण जी ने भी उस दिन कुर्ता-पाजामा पहन रखा था। सुभाष पंत अपनी मितभाषिता और सादगी से प्रभावित कर रहे थे। गुरदीप खुराना, श्रीमती कृष्णा खुराना, राजकमल और दूसरे भी कई लोग थे। सब के अपने-अपने व्यक्तित्व। हर व्यक्तित्व का अपना प्रभाव। बाद में कृष्णा जी के पैरों में लिपटी जोंकों को देखकर उनकी हिम्मत की दाद देनी पड़ी। फिर तो शिष्ट सुसंस्कृत रात। सब थके थे। पहली रात जल्दी ही सोना हो गया।</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> अगले दिन सुबह-सुबह शेर देखने का कार्यक्रम बना। सब लोग गाडि़यों में बैठे। अब एक गाड़ी वन विभाग की भी थी और वन विभाग का एक सुरक्षाकर्मी भी, जो नशे में लग रहा था। मैंने गौर किया कि उसकी बंदूक की नली में निशाना लगाने के काम आने वाली पीतल की फुलिया भी नहीं थी। जंगल के रास्ते में कहीं एक कुआँ पड़ा, जिसके बारे में किसी ने बताया कि कभी-कभी शेर यहाँ आकर बैठता है। हम लोग नये सिरे से सजग हुए। शेर नहीं दिखा। जगह-जगह मोर दिख रहे थे। कहीं चीतलों के झुंड, कहीं दूसरे वन्य पशुओं के। आखिरकार हम लोग जलाशय के पास बने मचान पर चढ़े, लेकिन कोई फायदा नहीं। शेर नहीं दिखा। लगातार दो दिनों तक सुबह-शाम शेर देखने की कोशिश हुई, लेकिन सफलता नहीं मिली। मचान से आखिरी बार उतरते हुए मेरे मन में एक ऊटपटाँग सा खयाल आया कि शेर कोई नौकरी तो करता नहीं कि वक्त पर पानी पीने आये, वक्त पर खाना खाये और लोगों को दर्शन देने के लिए वक्त पर हाजिर भी रहे!</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> शायद वह प्रवास का तीसरा दिन था, जब दोपहर का खाना खाने के बाद हम लोग नेपाल की सीमा से लगी एक आदिवासी बस्ती में गये। एक ऐसा संयुक्त परिवार मिला, जिसमें सत्तर-अस्सी सदस्य थे। सबने कुछ-न-कुछ कपड़े पहन रखे थे। हाँ, बच्चे प्रकृत थे-नंग-धड़ंग। सबका खाना एक चूल्हे पर बनता था। संयुक्त परिवार का यह रूप देखकर लोग विस्मित हो रहे थे। गाँव वालों ने चलते समय महुए की शराब का उपहार दिया। जहाँ तक मुझे याद है, पैसे देने पर भी नहीं लिये थे उन लोगों ने।</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;">हाँ, वहाँ भी भाँग के पौधे खूब उगे थे। साथियों की नजर बचाकर मैंने कुछ पत्तियाँ तोड़ लीं।</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">‘क्या है?’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> - मैंने चौंककर कर पीछे देखा। अब की कृष्णा जी की नजर पड़ गयी। मैंने काम चलाने के लिए वही जवाब दिया, जो कामतानाथ जी को दिया था।</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">‘मैं एक पत्ती ले सकती हूँ?’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> -कृष्णा जी के बालसुलभ कौतूहल के सामने मैं निरुत्तर था।</span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;">‘जी, एक आध पत्ती ले सकती हैं।’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> उन्होंने एक पत्ती तोड़ी और मुँह में डालने लगीं। </span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;"> ‘रुकिए! कहीं पानी से धुलकर खायेंगे और बेहतर हो,</span></span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> इसे धुलकर और सुखाकर इस्तेमाल किया जाय।’ </span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> ‘क्यों? हरी पत्ती नुकसान करेगी?</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"><span style="color: blue;"> </span>‘नहीं।’ </span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> और क्या कहूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कहीं किसी जलाशय या शायद किसी हैंडपंप के पानी से भाँग की पत्तियाँ धोयी गयीं। कृष्णा जी ने एक पत्ती खायी, मैंने कई पत्तियाँ। बाकी पत्तियाँ मैंने एक लिफाफे में डालीं। डंठल फेंक रहा था कि एक आवाज सुनायी पड़ी:</span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> ‘कभी देहरादून आइए जनाब।</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">आपको भाँग की पकौड़ी खिलाऊँगा।’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;"> -ये सुभाष पंत थे। ...उफ! ...इन उपन्यासकारों से तो कुछ छिपाया ही नहीं जा सकता!</span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> दिन की तुलना में रातें खास होतीं। पहली ही रात की पान-गोष्ठी में राजकुमार चुहल करते हुए बोले:</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> ‘थाली या कुछ और मिल जाय, तो पंडिज्जी गाना सुनायेंगे।’</span></div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> तब तक वहाँ बैठे किसी व्यक्ति को मेरे मूर्खतापूर्ण गायन की खबर नहीं थी। यों गायक नहीं हूँ, कोई तालीम नहीं, सुरों की कोई समझ नहीं, फिर भी छात्र जीवन में ‘दस्ता’ नाट्य मंच और बाद में दूसरी मंडलियों के लिए लोकधर्मी अभिनय और गायन करता था। ‘दस्ता’ के कार्यक्रमों में राजकुमार अमूमन साथ में होते। कार्यक्रमों के दौरान मूक प्रेक्षक बने रहते। बाद में या पहले खूब टिप्पणियाँ करते। पहले तो पालीवाल जी राजकुमार की खुड़पेंच में शामिल नहीं हुए, लेकिन जब राजकुमार ने थाली वाली बात दुहरायी, तो उन्होंने थाली ले आने का आदेश किया और थाली हाजिर। मन ही मन मैं खीझ उठा राजकुमार की शैतानी पर। पालीवाल पर खीझने का कोई कारण नहीं था। पहली मुलाकात थी उनसे। इससे पहले फोन पर एक बार बात हुई थी। फोन की बातचीत में सौमनस्य की झलक मिली थी और अब सम्यक् प्रतीति हो रही थी। राजकुमार पर खीझने का कारण यह था कि थाली कोई बाजा तो है नहीं, जो गाने में मदद करे! मैंने अवधी का एक लोकगीत शुरू किया-थाली पर तर्जनी के नाखून से कहरवा की टाँकी लगाते हुए। पांडेय जी ने मेज पर माकूल थाप मारनी शुरू की। पहले गीत के सम की तीसरी आवृत्ति आते-आते उन्होंने सहयोगी स्वर भी लगाना शुरू कर दिया। कहरवा की टाँकी लगती रही। मेज पर थाप पड़ती रही। पल भर के लिए वन के मौन और जेनरेटर की धड़धड़ का आधार संगीत के रूप में इस्तेमाल करते हुए मैंने लोगों के चेहरे देखे। सब आमने-सामने बैठे थे। कामतानाथ, सुभाष पंत, गुरदीप खुराना, से.रा.यात्री, हरिनारायण, राजकमल और कृष्णा जी। पालीवाल, राजकुमार और पांडेय जी तो ऐन मेरे सामने थे। सबकी आँखों में आत्मीय कुतूहल कौंध रहा था। फिर तो कई गीत हुए। हर गीत में पांडेय जी मेज बजाते और जहाँ जरूरत समझते, सहयोगी स्वर लगाते। देहरादून के साथी कभी किसी शब्द का अर्थ पूछते। जहाँ तक मुझे याद है, किसी ने एक गीत में आये ‘बान’ शब्द का अर्थ पूछा था। </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"><span style="color: blue;"> </span>‘बान। बान माने आदत।’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> -कामतानाथ जी बोले थे। गीत में यह शब्द अवधी के मुताबिक ‘बानि’ हो जाता था। पति-पत्नी की कहा-सुनी पर केंद्रित था गीत। पहली पंक्ति इस तरह थी:</span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;">‘तोहार कउन बानि राजा, रोजइ रिसानऽऽ?’</span></span></div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> ....तुम्हारी यह कौन सी आदत है कि रोज-रोज रूठ जाते हो...?</span></span></div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> देर रात तक गीत होते रहे। पान-गोष्ठी अब गान-गोष्ठी हो चुकी थी। फिर खाना। जेनरेटर बंद। अँधेरा...। जंगल की खामोशी...। नींद...।</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> सुबह नींद खुली। पालीवाल जी पहले ही उठ गये थे। हर एक के पास पहुँच रहे थे। हर एक की जरूरत पूछ रहे थे- प्रशासनिक सक्रियता और विरल सरलता के साथ। गुरदीप खुराना कुछ चिंतित दिखे। हम लोग तो कुछ समझ नहीं पाये। </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;">‘अरे भाई, श्रीमती खुराना को खोजिए!’</span></span></div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> -बारीक मुस्कान के साथ बोले कामतानाथ जी। मैं सचमुच उन्हें खोजने निकल पड़ा। गेस्ट हाउस से दूर वे एक ऐसी जगह दिखीं, जहाँ कोई पेड़ नहीं था। धरती में आँखें गड़ाये पता नहीं क्या देख रही थीं। नजदीक पहुँचने पर पता चला कि घास में आलता जैसी रंगत वाला एक नन्हा सा फूल खिला है। उसी को निहार रही हैं कृष्णा जी-एकटक। जैसे वन का सारा रहस्य इसी नन्हे से फूल में समाया हो!</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> लौटकर हम लोग गेस्ट हाउस पहुँचे, तो सबको चाय दी जा रही थी। कामतानाथ जी के लिए बिना चीनी की चाय आयी। उन्हें ब्लडशुगर थी। मुझे भी हो चुकी थी तब तक। हम दोनों ने बिना चीनी की चाय ली। थोड़ी देर बाद कामतानाथ जी ने कहकर नींबू की चाय बनवायी। चाय आने पर शुगरफ्री की एक गोली अपनी चाय में डाली और दूसरी मेरी चाय में। जितने दिन हम लोग वहाँ साथ रुके, नींबू की चाय रोज पी गयी। सुबह की दूसरी चाय वे कहकर बनवाते- नींबू की। </span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> दोपहर कथा-गोष्ठी हुई। गुरदीप खुराना की कहानी का वाचन कृष्णा जी ने किया। फिर मुझे कथा-वाचन के लिए पालीवाल जी ने प्रस्तुत किया। मैंने ‘बाबा की उघन्नी’ का वाचन किया। तब तक यह कहीं छपी नहीं थी और सच तो यह है कि ठीक से लिखी भी नहीं गयी थी। यों श्री खुराना वरिष्ठ कथाकार हैं, लेकिन मैंने देखा कि कामतानाथ जी उनकी कहानी में खूब नुक्ताचीनी कर रहे थे। मैं नया था, शायद इसलिए वे नुक्ताचीनी के बदले कुछ आत्मीय सुझाव दे रहे थे। मसलन, मेरी कहानी का एक वाक्यांश था ‘बच्चों का एक बड़ा समूह’। कामतानाथ जी ने यहाँ ‘समूह’ हटाकर ‘झुंड’ रखने की राय दी। पंत जी ने भाषा की सरलता का सुझाव दिया।</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> दुधवा में जो आखिरी रात बितायी गयी, उस रात चंद्र ग्रहण लगा था। हम लोगों से थोड़ी ही दूरी पर बैठे पांडेय जी जप कर रहे थे- मौन। हम लोग पानगोष्ठी की शुरुआत कर चुके थे और इसके साथ ही गानगोष्ठी की भी। तर्जनी के नाखून से कहरवा की टाँकी लग रही थी थाली पर, लेकिन मेज की थाप की कमी महसूस हो रही थी। आज वन विभाग के कुछ अधिकारी भी आ गये थे। वरिष्ठ लेखकों की सहज उपस्थिति देखकर वे चकित हो रहे थे और प्रसन्न भी। कई गीत हो चुके थे। कई दौर भी। कामतानाथ जी युवकों की तरह दाद दे रहे थे। सब मुदित थे। सब विह्वल। अंतरा तक लोग चुप रहते, लेकिन जैसे ही अगला सम आने को होता, आगामी शब्द का अनुमान करके बोल पड़ते सब अपने-अपने ढंग से। हो सकता है, न भी बोलते रहे हों सब, पर मेरी स्मृति में यह दृश्य कुछ इसी तरह अंकित है। दरअसल उस समय मैं खुद विह्वल था। एक तो मदविह्वल और दूसरे इस एहसास से विह्वल कि इस वन प्रांत में हिंदी के इतने वरिष्ठ तथा महत्वपूर्ण रचनाकार और संपादक मेरी बेवकूफियों को इतना तवज्जो दे रहे हैं! </span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> उसी रात किसी ने मुझे ‘मतवाला हाथी’ कहा। शायद कामतानाथ जी ने ही कहा। राजकुमार को ‘अंकुश’ कहा गया। शायद सुभाष पंत ने कहा। राजकुमार गीतों के दौरान मुझे चिढ़ाने के अंदाज में कुछ बोलते।</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;"> ‘अंकुश हटाया जाय, नहीं तो गाना नहीं होगा।’</span></span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: right; white-space: pre-wrap;"> -मैंने कहा।</span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> पालीवाल जी ने जिस सदाशयता से राजकुमार की खुड़पेंच में शामिल होते हुए मेरे बजाने के लिए थाली मँगा दी थी, उसी से प्रेरित होकर राजकुमार को कमरे में बंद करने के लिए भी तैयार हो गये। बहरहाल, ऐसा करने की जरूरत नहीं पड़ी।</span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span style="color: blue;"> </span>‘अरे भाई, इनका ध्यान रखिए! डाइबिटीज है इन्हें!’</span></span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> -मेरा मदात्यय देखकर कामतानाथ जी ने राजकुमार से कहा था। यह अजीब संयोग है कि आज, जब कामतानाथ जी पर लिख रहा हूँ, मेरी माँ का कुछ ही दिनों पहले निधन हो चुका है। माँ की याद आती है और कामतानाथ जी के वाक्य में निहित मातृत्व की भी...!</span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> आँख मूँद कर गा रहा था मैं। नहीं, नहीं, मुहावरे में नहीं; सचमुच अधमुँदी हो रही थीं आँखें। इसी बीच एक गीत में मेज की थाप जरूरत से कुछ ज्यादा सुनायी पड़ने लगी। मुझे लगा, पांडेय जी पूजा-पाठ से निवृत्त होकर आ गये हैं। आँख खोलने पर पता चला कि पांडेय जी तो आ ही गये हैं, अब पालीवाल जी भी मेज बजा रहे हैं। वह गीत था-</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> ‘डोरी डाल दे...!’</span></span></div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;"> इस गीत पर पालीवाल जी ने इस तरह मेज बजायी कि उनकी उँगलियों से खून की कुछ बूँदें निकल आयीं। हो सकता है, न भी निकला हो खून। मैं मेज के इस पार था और विह्वलता की उस दशा में ठीक से उनकी उँगलियाँ देख नहीं पाया। हाँ, मित्रों की आह्लाद भरी टिप्पणियों से पालीवाल की उँगलियों से खून बहने की सूचना मिल रही थी। पता नहीं खून बहा या नहीं, मेज पर पालीवाल जी की थाप बंद नहीं हुई। सम पर आते-आते गाने भी लगते वे। कई साथी स्वर लगाने लगते। </span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> उस रात जिस गीत को सुनते हुए लोग कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गये, वह हिरनी वाला गीत था: ....नया पलाश का पेड़..। ...घने पत्ते...। ...पेड़ तले हिरन-हिरनी...। ...चरते-चरते हिरनी हिरन से पूछती है-</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;">‘क्या तेरा चरागाह सूख गया है? या पानी के बिना कुम्हलाये हो?’</span></span></div>
</div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;">‘नहीं हिरनी, न तो मेरा चरागाह सूखा है, न ही पानी के बिना कुम्हलाया हूँ।</span></span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> कल राजा के यहाँ जन्मोत्सव है। मुझे मार न डालें राजा के लोग।’</span></span></div>
</div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> दृश्यांतर। ...हिरनी हिरन की खाल माँग रही है रानी से...। पेड़ में टाँग देगी खाल और मान लेगी कि हिरन जिंदा है। ...मूर्ति बनी कृष्णा जी वीडियोग्राफी कर रही हैं। कामतानाथ, सुभाष पंत, से.रा.यात्री, आर.के.पालीवाल, गुरदीप खुराना, हरिनारायण, राजकमल सब गंभीर। सब विह्वल। शोक विह्वल। दो रातों की परंपरा के विपरीत यह गंभीर गीत था। वृजेंद्र पांडेय तो मंडली में शामिल थे। लगातार मेज बजा रहे थेे। राजकुमार बिना कुछ गाये-बजाये मंडली में शामिल थे। प्रेरक की भूमिका में थे वे। इस गीत का प्रस्ताव उन्हीं का था। हाँ, घायल उँगलियों वाले कलाकार का नाम मंडली में शामिल न करना सरासर नाइंसाफी होगी!</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;"><span style="color: blue;"> </span> ‘...नहीं दी जायेगी खाल! ...बच्चे हिरन की खाल से बनी खँजड़ी बजायेंगे।’</span></span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> -रानी का जवाब।</span></span></div>
</div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;">...जब-जब खँजड़ी बजती है, पलाश के घने पत्तों वाले उसी नये पेड़ के नीचे खड़ी हिरनी हिरन को बिसूरती है...। </span></span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> क्षण भर सब चुप रहे। मैं भी। ‘अंकुश’ की संज्ञा पाये राजकुमार भी। इस गीत के बाद कोई गीत नहीं हुआ। </span></span></div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;">अगले दिन सब अपनी-अपनी मंजिल को रवाना हुए। दिल्ली और देहरादून के साथी अलग गाड़ी से और लखनऊ और उसके आस-पास के साथी अलग गाड़ी से। पालीवाल जी उन दिनों दिल्ली में ही थे। अलग होते समय लगा, हम सब कहीं-न-कहीं एक-दूसरे को अपने भीतर लिये जा रहे हैं। </span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> लौटते हुए एक बार फिर हम लोग उसी पथ पर थे, जिससे आये थे। सेमल के ढेर सारे पेड़। नेपाल की तराई। आम-महुआ के पेड़। ताजे गुड़ की गंध। हवा में उड़ती गन्ने की खोई। फिर नदी। नदी पर पुल। बिना किसी निर्धारित संकेत के एक साथ हर गाड़ी का आना और जाना। रेलगाड़ी का भी। हाँ, आदमी कितनी-कितनी भंगिमाएँ अपना कर संकेत कर सकता है, इसके नाना नमूने दिख रहे थे।</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"> लखनऊ पहुँचकर इस बात की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि कामतानाथ जी मुझे एक शाम की खास दावत देंगे। शाम को हम लोग साथ बैठे। राजकुमार, मैं और कामतानाथ जी। उनका कंम्प्यूटर। पांडुलिपियाँ। मेज के ऊपर भी और नीचे भी। </span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif; font-size: large; white-space: pre-wrap;">‘खुद चलाते हैं कंम्प्यूटर?’</span></div>
</div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">‘नहीं, लड़का आता है। रोज नहीं आता। बुलाने पर आता है। </span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">शाम को। बोलकर लिखवाता हूँ।’ </span></span></div>
</div>
</div>
</div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;">सुरुचिपूर्ण पानगोष्ठी। उन्हें मेरे निरामिष होने का अनुमान नहीं था। कबाब आया।</span></span></div>
<div dir="ltr" style="line-height: 1.2; margin-bottom: 10pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif;"><span style="white-space: pre-wrap;"> ‘क्या यह निरामिष है?’</span></span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> -मैंने पूछा।</span></span></div>
</div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<div style="text-align: left;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; white-space: pre-wrap;">‘आप से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी।’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> -आँखों में मुस्कराते हुए बोले वे। फिर मेरे लिए कोई दूसरी चीज मँगवायी उन्होंने-शायद बैगन का कोई व्यंजन। फिर कभी मेरा मिलना कामतानाथ जी से नहीं हुआ। हाँ, फोन पर बातें होतीं। जब कभी मैंने दुआ-सलाम की औपचारिकता की, उधर से आवाज आती:</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> </span></span></div>
</div>
</div>
<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: center; white-space: pre-wrap;"> ‘आप तो बहराइच में होंगे...!’</span><span style="font-family: "calibri" , sans-serif; text-align: justify; white-space: pre-wrap;"> <span style="color: blue;"> </span><b style="color: blue;"> </b></span></span></div>
</div>
</div>
</div>
</div>
DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-20880563731892796462019-10-08T12:51:00.000-07:002020-06-03T07:25:26.806-07:00पखावज वृत्तान्त- शिवशंकर मिश्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: blue; text-align: justify;"> <span style="font-size: large;"> </span></span><span style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"> महाराज इन्द्र के दरबार में संगीत की सभा बैठी। दरबारियों ने महाराज से निवेदन किया कि वे स्वयं पखावज बजायें........और एक ताजा मिढ़ा हुआ पखावज महाराज के सामने हाजिर किया गया। तमाम दरबारी उत्सुक होकर बैठे.....लेकिन पखावज से कोई कर्णप्रिय बोल नहीं निकला। बदले में वह भाँय−भाँय करके रह गया। महाराज ने पखावज को इधर−उधर से देखा। दरबारियों ने भी पखावज का ही निरीक्षण किया। महाराज के बजाने में तो कोर−कसर थी नहीं। बाकी दिनों तो वे बहुत मीठा बजाते थे। लोग हैरान हुए......काफी देर में एक दरबारी ने, जो खुद भी कभी पखावज बजता था, खड़े होकर निवेदन किया, ''महाराज, यह जो भाँय−भाँय कर रहा है, शायद भात मॉँग रहा है!'' भात मँगवाया गया। पखावज के चमड़े में मसाला और सियाही थी। दूसरी तरफ भात लगाया गया। फिर क्या था! पखावज के मधुर बोलों में दरबारी,अप्सराएं और नंदनवन सब झूम उठे। राजमहल की दीवारें हिलने लगीं.....लेकिन यह क्या! लोग अवाक् रह गये। महाराज ने पखावज को अपने से दूर झिटक दिया और कहा, ''इसे महल के पिछवाड़े नाले में फेंक दिया जाय।''</span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span style="color: blue;"> </span><span style="color: blue;">दूसरे दिन जब महाराज का दरबार लगा था, मेहनत−मजूरी करने वाले शूद्रों का एक दल महल के पिछवाड़े की राह से गुजरा।</span><span style="color: blue;"> </span>उन्होंने नाले के गन्दे पानी में पखावज को तैरते हुए देखा। एक नौजवान जो गाने−बजाने में निपुण था, नाले में कूद पड़ा और पखावज को उठा लाया। दल के मुखिया को पखावज दिखाया गया। दोनों तरफ का चाम पानी से फूल उठा था.....ठोंकने से भद्द−भद्द की आवाज हो रही थी। एक कारीगर ने बताया कि थोड़ा धूप दिखाने से ही यह सुन्दर हो जायेगा.....लेकिन दल के मुखिया और तमाम बुजुर्गों ने जोर डालकर यह बात कही कि पखावज राजमहल के पिछवाड़े नाले में मिला है, इसलिए साथ ले चलने के पहले यहां के राजा से पूछना जरूरी है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"> </span><span style="color: blue; font-size: large;">महाराज ने कहा, ''तुम इसे ले जा सकते हो।'' महाराज से मिलाने गए बुजुर्गों के साथ थोड़े से नौजवान भी थे। उनमें से एक, जो गाने−बजाने में निपुण था, पूछ बैठा, ''लेकिन यह नाले में क्यों फेंका गया था, जब कि यह काफी सुन्दर है और इसकी काठी ऐसी है कि बड़े मधुर बोल फूटते होंगे।'' यह सुनकर तमाम दरबारी खिल उठे, लेकिन तुरन्त ही महाराज की ओर देख गम्भीर हो गये। महाराज बोले, ''भात लगाने से यह जूठा हो चुका है और हम जूठी चीजों का इस्तेमाल नहीं करते।'' ....और तब से महाराज के दरबार में और भी पखावज मिढ़वाये गये। लेकिन कोई भी पखावज बिना भात के नहीं बजा....और इस तरह जूठा हो जाने की वजह से उन सब को नाले में उपेक्षित कर दिया गया। बहुत से पखावज नाले के गंदे, ठंडे और स्थिर पानी में सड़ गये.... लेकिन जो मेहनतकशों के हाथ लगे, उन्हें धूप दिखायी गयी, उनमें सुन्दर जोशीले बोल फूटे और चिरंजीवी हो गये।</span><br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhodeQwUKPbxMfrQQJhVZW6huXGraJBrYrWOHCvJsmojp-OOmL90qsx2Y16rIxWIf_2-uHkdmc4BAmyXt-BqQP1FLxgb9kas7ok2m7vJmnDyIfSK1_sj6oVOliibuoz_skxQH30eF_h4QV/s1600/IMG-20191006-WA0005.jpg" imageanchor="1"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="981" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhodeQwUKPbxMfrQQJhVZW6huXGraJBrYrWOHCvJsmojp-OOmL90qsx2Y16rIxWIf_2-uHkdmc4BAmyXt-BqQP1FLxgb9kas7ok2m7vJmnDyIfSK1_sj6oVOliibuoz_skxQH30eF_h4QV/s200/IMG-20191006-WA0005.jpg" width="153" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdRD2pOTa_hiTPmrXU0hEx5MEEisf3sXrYW7m1Hw1lPrjxGnkNTO9REsYx0IJYhAEdJ620ulT7pBf-haTZtQEBn0wCqyjT2gu0FdpkAcsAQoeKIleYKQzFmmcKrlBCtfEt_SoDza_4rJRV/s1600/IMG_20191007_114200.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdRD2pOTa_hiTPmrXU0hEx5MEEisf3sXrYW7m1Hw1lPrjxGnkNTO9REsYx0IJYhAEdJ620ulT7pBf-haTZtQEBn0wCqyjT2gu0FdpkAcsAQoeKIleYKQzFmmcKrlBCtfEt_SoDza_4rJRV/s200/IMG_20191007_114200.jpg" width="150" /></a></div>
</div>
<div style="text-align: right;">
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #990000; font-size: large;"><b>''गाँव की नई आवाज़'' इलाहाबाद 2019 में प्रकाशित</b></span><br />
<span style="color: #990000; font-size: large;"><b>('अभिप्राय' अप्रैल, 1983, इलाहाबाद, से साभार)</b></span></div>
</div>
</div>
DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-48473781215310726272011-11-03T00:51:00.000-07:002019-10-09T04:27:10.422-07:00स्मृति में गोरख - शिवशंकर मिश्र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHbe4LKHgytmSw4nVnqGELcgIJRfFBmeurAIIom9XpqhWrkWsfLeCr0Embt-X849lgq6mVTlvb2gD93tJvrI6fFrKBI6bB7LX3veiHDY9ShzyOiq9o7bbrNqODKwPIM6dc4MkfULNCz4Ax/s1600/36277299_d036420c63%255B1%255D.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" hda="true" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHbe4LKHgytmSw4nVnqGELcgIJRfFBmeurAIIom9XpqhWrkWsfLeCr0Embt-X849lgq6mVTlvb2gD93tJvrI6fFrKBI6bB7LX3veiHDY9ShzyOiq9o7bbrNqODKwPIM6dc4MkfULNCz4Ax/s320/36277299_d036420c63%255B1%255D.jpg" width="256" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>शायद वह सन् अस्सी की गर्मियों की कोई दोपहर थी, जब मैं पहली बार दिल्ली पहुंचा- उन दिनों चलने वाली अपर इंडिया एक्सप्रेस से। पूरे महानगर में जिस एक अदद आदमी से पहचान के आधार पर मैं दिल्ली पहुंचा था, वे थे गोरख पांडेय। पहली बार इलाहाबाद में 'परिवेश' की एक गोष्ठी में देखा और सुना था उन्हें। बार-बार दाढ़ी सहलाते और सिगरेट के गहरे कश लेते हुए वे गहन चिंतन की मुद्रा में बोल रहे थे और प्रभावित कर रहे थे।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>गोष्ठी के अंत में 'दस्ता' की ओर से मैंने अनिल सिंह तथा कुछ और साथियों के साथ मिल कर गोरख का एक गीत गाया- धुन बदल कर। रामजी भाई बताया करते थे कि गोरख खुद भी गाते हैं और वे इस तरह नहीं, बल्कि इस तरह गाते हैं। फिर वे अपनी आवाज में उन धुनों को सुनाते। कुछ धुनों का मैं अनुकरण करता और कुछ को बदल देता। उस दिन बदली हुई धुन वाला जो गीत गाया गया, वह था- 'केकरा नावें जमीन पटवारी, केकरा नावें जमीन?' </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>इस गीत की धुन एक होली गीत पर आधारित है। उस सपाट धुन में मुझे गायकी का मजा न मिलता और मैं इस गीत को पूरबी की तरह गाता था। अपने ही गीत को बदली हुई धुन में सुनते हुए गोरख लगभग लगातार मुझे देखते रहे। सांझ हो चली थी। बल्ब जलाया गया, तो मेरा ध्यान उनके मैल से चीकट कुर्ते-पाजामे की ओर गया, जिसे मैंने दिल्ली से इलाहाबाद की यात्रा का परिणाम समझा। ..लेकिन दाढ़ी-बाल के साथ बढ़े हुए नाखून? मुझे लगा, जैसे किसी गंभीर समस्या का समाधान खोजने के क्रम में वे दाढ़ी-बाल और कपड़ों की सफाई जैसे कम जरूरी काम पता नहीं कब से भूले हुए हैं। गीत सुनने के बाद वे देर तक दाढ़ी सहलाते रहे। बीच-बीच में मुस्कराते, होंठों और दांतों के बीच खिली-खिली ऋजुता छलछला उठती और वे कहते- 'तो...मिश्र जी..!' </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>मुझे लगता कि अब वे कुछ कहने जा रहे हैं, लेकिन ऐसा कुछ न होता। वे फिर दाढ़ी सहलाते और उसी मुदिता के साथ कहते- 'तो... मिश्र जी...!' दसियों बार ऐसा किया उन्होंने। मुझे लगा, गोरख मुझे अपनी स्मृति में सहेज रहे हैं।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>दूसरी मुलाकात गोरखपुर में हुई थी। डॉ. लालबहादुर वर्मा तब गोरखपुर विश्वविद्यालय में थे। उन्होंने खुले मैदान में एक बड़े कवि सम्मेलन का आयोजन किया था। अदम गोंडवी, अशोक चक्रधर, रामकुमार कृषक, पुरुषोत्तम प्रतीक और दूसरे अनेक कवि आये थे। इलाहाबाद से मैं था और हिमांशु रंजन। गोरख एक दिन पहले आ गए थे। देवेन्द्र आर्य और गोरखपुर के दूसरे अनेक साथी प्राण-पण से आगंतुक कवियों की खातिर तवज्जो में लगे थे। शायद वे ही हम लोगों को उस हालनुमा कमरे में ले गये, जहां फर्श पर बिछे गद्दों पर बैठे कवियों के बीच लगातार दाढ़ी सहलाते और बीच-बीच में सिगरेट के गहरे कश लेते गोरख दिखे। शाम हो गयी थी। हल्के वाट के बल्ब की पीली रोशनी में उनका सफेद खादी का कुर्ता-पाजामा कुछ कम गंदा लग रहा था। चेहरे पर गंभीरता थी और बीच-बीच में 'साथी आपको चाय मिली या नहीं' या 'अमुक आये या नहीं'- इस तरह के प्रश्न ऐसे पूछ रहे थे वे, जैसे आयोजन का सारा भार उन्हीं पर हो। मुझसे भी उसी आत्मीयता से उन्होंने चाय के लिए पूछा, लेकिन मैंने महसूस किया कि मुझे नहीं पहचान रहे हैं वे। फिर शहर के किसी महंगे होटल में, जिसका नाम मुझे याद नहीं, खाना हुआ- सुस्वादु। फिर सब लोग रिक्शों से उस मैदान की ओर रवाना हुए, जहां कवि सम्मलेन होना था। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>मैदान श्रोताओं से भरा था- खचाखच। नाना वर्गों के श्रोता- विश्वविद्यालय के शिक्षक, शोधार्थी, छात्र-छात्राएं, गृहणियां, रेलवे कर्मचारी, नगर के रचनाकार, रंगकर्मी, शहरी मजदूर। रिक्शेवाले मैदान की चहारदीवारी के पार अपने-अपने रिक्शों पर खड़े होकर कविता सुन रहे थे। यह सब देखकर गोरख बहुत उत्साहित थे और पूरी उत्तेजना में अपना गीत प्रस्तुत कर रहे थे- 'जनता के आवे पलटनिया, हिलेले झकझोर दुनिया।' उत्साह में वे इतना खींच कर गा रहे थे कि अंतरा आते-आते गला जवाब दे गया। मैं तत्काल उनकी बगल में खड़ा हुआ और आगे का गीत हम दोनों ने मिलकर पूरा किया। गीत सुनाकर वे बैठे तो लगा, जैसे खींच कर गाने की वजह से थक गए हों। कुछ पलों तक वे सिर झुकाये, आँखें मूंदे बैठे रहे, फिर अचानक मेरी ओर देखा और मुस्कराते हुए बोले- 'तो मिश्र जी...इलाहाबाद वाले।' इसी बीच मेरे नाम की पुकार हुई। मैंने दो गीत सुनाये- एक अवधी में, दूसरा भोजपुरी में। गीत सुनाकर बैठते ही गोरख बोले- 'आइए साथी कहीं कुछ खाते हैं।’ मुझे याद नहीं कि हम लोग किस मुहल्ले में गए। शायद कवि सम्मेलन वाले मैदान से दक्षिण की ओर कुछ दूर चलकर हम लोग किसी मिठाई की दूकान तक गए थे।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>'ये तो बूंदी के लड्डू हैं।' - लड्डू खाते हुए मैंने कहा।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>'हाँ, भोजपुरी में इसे बुनिया कहते हैं। तरल बेसन की बूँदें खौलते घी में गिरकर ठोस रूप ले लती हैं।' - कविता जैसी भाषा में उन्होंने 'बुनिया' की रचना प्रक्रिया बतायी, फिर मुझे पान खिलाया और अपने लिए सिगरेट का पैकेट खरीदा। लौटती बार वे कुछ देर चुप रहे- सिगरेट का कश लेते हुए। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>'जनता के आवे पलटनिया वाला गीत किस लोकधुन पर आधारित है, आप जानते हैं?' -थोड़ी दूर चलकर अचानक उन्होंने पूछा।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>' नहीं।'</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>'रामजी के आवे दुलहिनिया पड़ेले झीर-झीर बुनिया।'</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>उस समय और उसके बाद भी कई मौकों पर मैंने महसूस किया कि लोकधुनें गोरख को बींधती थीं और उनके भीतर रचनात्मक बेचैनी उत्पन्न करती थीं या उनके भीतर की रचनात्मक बेचैनी को राह सुझाती थीं। लौटकर हम लोग मंच पर पहुंचे ही थे कि दूसरे दौर के लिए मेरा नाम पुकार दिया गया। पान की पीक थूकने की गरज से मैं मंच के पीछे गया। वहां एक स्थानीय वरिष्ठ कवि खड़े मिले, जिनका नाम उस समय मैं नहीं जानता था। खूब तारीफ की उन्होंने मेरी और बोले- ‘सुना है, तुम 'छापक पेड़ छिउलिया' वाला गीत बहुत अच्छा गाते हो, वही सुनाओ।' </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>अज्ञात वरिष्ठ कवि के द्वारा की गई प्रशंसा और गीत की अनुशंसा को मैंने अपने प्रति उनकी शुभाशंसा समझा। विह्वल भाव से मैं मंच पर गया और इस टिप्पणी के साथ गीत शुरू किया कि अब मैं अवधी का एक लोकगीत प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। जाहिर है कि यह मेरी नहीं, बल्कि माँ-बहनों की सामूहिक रचना है। अभी मैं गीत की दो आरंभिक पंक्तियाँ ही सुना पाया था कि वही वरिष्ठ कवि खड़े हो गए और मुझसे माइक्रोफोन छीन कर अपना भाषण शुरू कर दिया, जिसका आशय यह था कि इस जनवादी क्रांतिकारी मंच से दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से सुनाना जनता के साथ गद्दारी है और वे इसकी भर्त्सना करते हैं। मेरी तो मति मारी गयी। पहली बार इलाहाबाद से बाहर कहीं कवि सम्मेलन में गया था- एम. ए. का विद्यार्थी। वे माइक्रोफोन पर मेरी लानत-मलामत करते रहे। मैं अप्रासंगिक सा खड़ा उन्हें निहारता रहा। अब इतने दिनों बाद मुझे उनके व्यक्तित्व की कोई रेखा याद नहीं, सिवा उनकी थुलथुल हथेली के, जिसकी प्रतीति हाथ मिलाने के दौरान हुई थी। वे बोल चुके, तो मैंने अपना पक्ष रखा, जिसका तात्पर्य यह था कि ये वही कवि महोदय हैं, जिन्होंने मंच के पीछे मुझसे इस लोकगीत को सुनाने की फर्माइश की थी, जिसका अब स्वयं विरोध कर रहे हैं और यह कि अब मैं दूसरा गीत सुनाने जा रहा हूँ, जो मूलत: मेरी रचना है। मैं दूसरा गीत शुरू करूँ, इससे पहले ही श्रोताओं ने तालियाँ बजाकर वही लोकगीत सुनाने की जोरदार फर्माइश की। इस दौरान गोरख की क्या दशा रही, मैं ध्यान नहीं दे पाया। गीत सुनाते हुए गीत में डूबा रहा, फिर अपने में। एक तरफ लोगों का अपार स्नेह, दूसरी तरफ महाकवि की कुत्सा...! देर रात तक चला कवि सम्मेलन। महाकवि फिर मंच पर नहीं दिखे। श्रोताओं की भीड़ जस की तस थी, फिर भी भोर होने से कुछ घंटे पहले कवि सम्मेलन के संपन्न होने की घोषणा कर दी गयी- शायद इसलिए कि थोड़ा आराम करके लोग रोजमर्रा के कामों में लग सकें। कवियों को फिर उसी हालनुमा कमरे में ले जाया गया, जहां शाम को चाय पी गई थी। शायद वह रेलवे की इमारत थी। थके हुए लोग फर्श पर बिछे गद्दों पर लेटते ही खर्राटे लेने लगे। मैं भी लेट गया। इस बीच किसी ने बल्ब बुझा दिया। मैंने आँखें मूँद रखी थीं, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर में मुझे लगा कि कोई टहल रहा है अँधेरे में। आँखें खोलीं तो लगा, कोई छाया कमरे से बाहर निकल गयी। मेरा अनुमान था कि यह गोरख होंगे। उनकी कुछ असहजताओं के किस्से सुन चुका था। मैं भी कमरे से बाहर निकल आया।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>शायद वह पीपल का पेड़ था, जिसके नीचे चबूतरे पर बैठे गोरख सिगरेट सुलगा रहे थे। जलती हुई माचिस की तीली के उजाले में उनकी दाढ़ी, कम नुकीली नाक और माथे तक लटकती जुल्फों की झलक दिखी- एक क्षण के लिए। मैं भी बैठ गया उसी चबूतरे पर- गोरख से कुछ फासला बनाते हुए। लगभग घंटे भर बैठा रहा मैं, लेकिन वे मेरे अस्तित्व से बेखबर क्षितिज देखते रहे, जो शहर की रोशनियों और उषा की उजास के संयोग से पीला और ताँबई हो रहा था। लौटकर मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। फिर तो ऐसी नींद आयी कि दोपहर से थोड़ा पहले ही उठ सका।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>दोपहर का खाना डॉ. लालबहादुर वर्मा के यहाँ होना था। हुआ- सुरुचिसम्पन्न। सामिष भी, निरामिष भी। लेकिन खाने से पहले एक घटना हो गयी। खूबसूरत मोजैक वाले फर्श पर बिछे टाट पर सब लोग बैठे थे। खाना परोसने की तैयारी हो ही रही थी कि महाकवि फिर नमूदार हुए। वे टाट पर बैठे ही थे कि गोरख शुरू हो गए-अत्यंत गंभीर और बेहद उत्तेजित। गोरख रौद्र होते जा रहे थे। नथुने फड़क रहे थे। दाढ़ी तो सहला रहे थे, लेकिन सिगरेट पीना भूल गए थे शायद कुछ देर के लिए। या इसलिए नहीं पी रहे थे सिगरेट कि अब तो खाना खाना है। महाकवि की ओर तर्जनी उठाकर या कभी मुट्ठी बंधा हाथ उठाकर गोरख ने जो कुछ कहा, उसका सार कुछ इस तरह था कि कल आपने जिस तरह जनता के एक महत्वपूर्ण गीत की प्रस्तुति में बाधा उत्पन्न की और एक उदीयमान कवि को अपमानित करने की घिनौनी साजिश की, हम उसकी निंदा करते हैं। अब तो खाना पीछे छूट गया और सबकी चिंता का विषय यह हो गया कि गोरख को कैसे सम्हाला जाय। आखिरकार स्थिति को देखते हुए महाकवि खुद ही चले गये। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>दो मुलाकातों के बाद मैं आश्वस्त था कि गोरख अब मुझे पहचान लेंगे। गर्मी की उस दोपहर, जब मैं डी.टी.सी. की बस से आर. के. पुरम् पहुँचा, तो मन में एक दूसरा संशय उठ रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि वे कमरे में न हों और दिल्ली से बाहर चले गये हों किसी कार्यक्रम में। तिरछी समानांतर दीवारों वाला विश्वविद्यालय का स्थापत्य विचित्र और आकर्षक लग रहा था। अंग्रेजी बोलते देशी-विदेशी छात्र-छात्राओं का समूह मन में आतंक पैदा कर रहा था, लेकिन हर वैचित्र्य, आकर्षण और आतंक पर मन का संशय भारी पड़ रहा था। पेरियार हॉस्टल की ऊपरी मंजिल वाले गोरख के कमरे के सामने पहुंचकर वह संशय भी दूर हो गया। कमरे का नंबर अब मैं भूल चुका हूँ। दरवाजा आधा खुला था। मैंने हल्के से दस्तक दी। देर तक कोई प्रतिक्रिया न होने पर झाँकने की धृष्टता की और पाया कि वे सोये हैं। मैंने अनुमान किया कि सुबह उठे होंगे, नहाया-धोया होगा और दिन का खाना खाकर सो गये होंगे। मैं इलाहाबाद से यात्रा करके आया था-ट्रेन में खड़े-खड़े। खाने के नाम पर सुर्ती-चूना और पीने के नाम पर कुछ नहीं। लंबी यात्रा का अनुभव न होने के कारण पानी की व्यवस्था करके नहीं चला था। गला सूखा था। सीने और आंखों में जलन हो रही थी। ढिठाई करके मैं घुस गया और फर्श पर बिखरी किताबों के बीच जगह बनाकर बैठ गया। खटर-पटर से उनकी नींद में खलल पहुंचा। अधखुली आँखों से उन्होंने मुझे देखा, फिर आँखें मूँद लीं। फौरन नमस्कार किया मैंने और अपना तथा अपने गृह जनपद का नाम बताया। फिर उन्होंने एक बार मेरी ओर देखा और आँखें बंद कर लीं। मुझे लगा, नींद नहीं खुल रही है। वहीं रखे सिगरेट के पैकेट से मैंने एक सिगरेट निकाली, अपने होंठों से लगाकर जलायी और उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘बाबा सिगरेट!’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>गोरख ने एक बार मेरी ओर देखा, फिर सिगरेट की ओर। सिगरेट को उँगलियों में फँसाकर उन्होंने फिर आँखें बंद कर लीं। आँखें मूँदे-मूँदे सिगरेट के कुछ कश लेने के बाद वे उठे। मैंने नये सिरे से नमस्कार करते हुए अपना और अपने गृह जनपद का नाम बताया। गोरख पर कोई असर नहीं। अंडी के चादर की अस्त-व्यस्त लुंगी और रेशमी खादी की सिकुड़न भरी कमीज पहने वे कभी आँखें खोलते, कभी बंद करते रहे। कमीज की ऊपर की बटन खुली होने के कारण सीने के घने बाल दिख रहे थे। दाढ़ी पहले से कुछ बड़ी। सिर के बाल भी। हां, नाखून इस बार कुछ कम बड़े लग रहे थे।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..साथी..यह एक गंभीर समस्या है।’- काफी देर बाद बोले वे- दीवार की ओर देखते हुए।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘बाबा क्या समस्या है?’- मैंने पूछा, लेकिन वे कुछ नहीं बोले। मैं उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा और वे दाढ़ी सहलाते हुए दीवार देखते रहे- मौन। बीच-बीच में सिगरेट के गहरे कश। कुछ देर बाद उन्होंने मेरी ओर देखा, फिर दीवार की ओर देखने लगे और दाढ़ी सहलाते हुए बोले- ‘तो..साथी..यह एक गंभीर समस्या है।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>मैंने अनुमान किया कि वे मुझे नहीं पहचान रहे हैं। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हम लोग हर समस्या हल कर लेंगे बाबा, लेकिन पहले यह तो बताइए कि पानी कहां मिलेगा?’ - इस विश्वास के साथ मैंने कहा कि किसी न किसी तरह अभी वे पहचान लेंगे मुझे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘यह भी एक गंभीर समस्या है साथी यहाँ।’- दाढ़ी सहलाते हुए वे बोले-‘यहाँ पानी केवल सुबह शाम आता है।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>फिर वे उठे और कमरे में मौजूद इकलौता शीशे का गिलास उठाकर बगल के कमरे में गये।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘चलिए साथी, आपको चाय की दूकान पर पानी पिलाते हैं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>पेरियार की सीढ़ियाँ उतरकर बाँयी ओर की पथरीली पगडंडी से होते हुए हम लोग चाय की दूकान की ओर गये। खुले में चाय की दूकान। अरावली की चोटियों को काटने के दौरान चबूतरों जैसे कुछ छोटे-छोटे टीले छूट गये होंगे। या शायद जान-बूझकर छोड़ दिये गये होंगे। हम लोग ऐसे ही एक टीले पर बैठे थे। आस-पास और भी लड़के-लड़कियाँ बैठे थे। सब बातें कर रहे थे, लेकिन किसी की भी आवाज इतना तेज नहीं थी कि अवांछित ढंग से किसी और को सुनायी पड़ती। सन की मोटी, लंबी रस्सी लगातार सुलग रही थी, ताकि लोग सिगरेट जला सकें। हम लोग लगातार दो कप चाय पी गये। पानी मैं पहले ही पी चुका था। एक गिलास पानी में मुँह की तंबाकू भी साफ करनी थी और गला भी तर करना था। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..साथी..यह एक गंभीर समस्या है।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>चाय के दौरान गोरख बीच-बीच में बुदबुदाते रहे- कहीं दूर देखते हुए से। माहौल ऐसा नहीं था कि वहाँ भोजपुरी गीत गाया जाता, लेकिन अब मेरे पास इसके सिवा कोई और उपाय नहीं था गोरख के मन में अपनी याद जगाने का। मैंने उन्हीं का एक गीत शुरू किया-बदली हुई धुन में। शुरू की कुछ पंक्तियाँ सुनते ही उन्होंने गौर से देखा मुझे और देखते रहे। हल्की सफेद पुतलियों के पीछे कौतूहल झाँक रहा था। माथे पर सलवटें थीं, जिन्हें सिर के लटकते बालों ने लगभग ढक रखा था। हाँ, कपड़े वही थे उनके- अंडी की चादर की लुंगी, सिकुड़न भरी रेशमी खद्दर की कमीज और पैरों में चट्टी। गीत पूरा होते-होते होठों और दाँतों के बीच वही खिली-खिली ऋजुता छलछला आयी, जो कभी इलाहाबाद में दिखी थी।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..मिश्र जी..!’ -अब वे मुझसे मुखातिब थे- ‘रामजी भाई कैसे हैं?’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>इसका मतलब, वे समझ गये कि मैं इलाहाबाद से आया हूं। उन दिनों इलाहाबाद के साथियों में यह कथन प्रचलित था कि कोई गोरख से कहे कि वह इलाहाबाद से आया है, तो वे पहला समाचार रामजी भाई का पूछेंगे। फिर तो चाय और गीतों का दौर दिन ढले तक चलता रहा। मैं गीत गाता रहा, वे सुनते रहे-अपने ही गीत।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>शाम हो गयी थी- पानी आने का समय। हम लोग कमरे की ओर लौट रहे थे। अचानक गोरख का ध्यान इस ओर गया कि सिगरेट खत्म हो गयी है। पगडंडी के विपरीत छोर की ओर झुटपुटे में कुछ कदम चलकर हम लोग सड़क पर पहुँचे। स्ट्रीट लाइट के उजाले में कुछ लड़के-लड़कियाँ खड़े थे। शायद बस का इंतजार कर रहे थे वे। वहीं एक लड़का पान-सिगरेट की दूकान लगाये बैठा था - लकड़ी की गुमटी में।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘कैसे हो हवासिंह?’-गोरख ने गुमटी में बैठे लड़के से पूछा। जवाब में लड़का मुस्कराया।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘क्या सचमुच इसका नाम हवासिंह है?’-मैंने पूछा।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘एक दिन यह पहाड़ से चलकर यहाँ आ गया-हवा की तरह। मैं इसे हवा कहने लगा- हवासिंह।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>काफी अच्छी मनोदशा में लग रहे थे वे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>लौटकर हम लोग कमरे की ओर आये। हॉस्टल की सीढ़ियां और गलियारे दूधिया उजाले से रौशन थे। नल की टोंटियों में पानी आने लगा था। गोरख के कमरे का दरवाजा पहले की तरह आधा खुला था और उससे भीतर का अँधेरा झाँक रहा था। वे अंदर घुसे और बिना लाइट जलाये तखत पर बैठ गये-चुपचाप। मैंने अनुमान से बटन दबायी। ट्यूब लाइट के उजाले में उन्होंने नये सिरे से मुझे देखा, मुस्कराये और दाढ़ी सहलाते हुए बोले-</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘..तो मिश्रजी..!’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>फिर उन्होंने स्नान समेत सुबह की सारी क्रियाएँ निबटायीं। मैंने भी। कपड़े न उन्होंने बदले, न मैंने। मेरे पास बदलने के लिए कपड़े नहीं थे और गोरख का इधर ध्यान भी नहीं था। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..आइए साथी कहीं चलकर कुछ खाया जाय। मेस में तो अभी कुछ मिलेगा नहीं।’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>-पता चला कि उन्होंने भी कल रात के बाद से कुछ नहीं खाया है। शाम को सुबह हो रही थी उनकी और नहा-धो लेने के बाद अब भूख महसूस कर रहे थे। फिर एक अप्रचलित सी पगडंडी से होकर वे मुझे डाउन कैंपस ले गये। धुंधलके में पगडंडी के दोनों ओर दिहाड़ी मजदूरों की अस्थायी झोपड़ियाँ दिख रही थीं। डाउन कैंपस के किसी चाइनीज रेस्तराँ में हम लोगों ने कुछ खाया। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘यहां तक तो हम लोग बस से भी आ सकते थे।’- रेस्तराँ से निकल कर मैंने कहा। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हाँ, आ तो सकते थे।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘क्यों न इस बार बस से चला जाय?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>उनके कदम रुक गये। कुछ देर खड़े रहे वे सड़क की पटरी पर-लगातार सिगरेट के कश लेते और दाढ़ी सहलाते हुए। इस बीच बस आयी भी और चली भी गयी। पल भर के लिए रफ्तार कम हुई। इसी दौरान लोग चढ़ गये, कुछ उतर गये। गोरख बस की विपरीत दिशा में मुँह किये सिगरेट का धुआँ छोड़ते रहे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..साथी..यह रास्ता आपको.. पसंद नहीं आया..!’ - बस चली जाने पर वे मेरी ओर मुड़े और बोले। वे रुक-रुककर बोल रहे थे और परेशान लग रहे थे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है। आइए इधर से ही चलते हैं।’ -बिना कुछ समझे मैं बोल पड़ा। हम लोग फिर उसी पगडंडी से लौटे। गोरख रास्ते भर चुप रहे। कमरे में लौटकर भी देर तक चुप रहे। दाढ़ी सहलाते हुए दीवार की ओर देखते रहे। बीच-बीच में सिगरेट के कश। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। ..किस बात से आहत हुए वे इस तरह? ..बस वाली बात में कुछ अनुचित तो नहीं था। ..किराया भी न लगता। पता नहीं कितनी देर तक हम लोग चुप बैठे रहे। दाढ़ी सहलाते गोरख दीवार देखते रहे और मैं गोरख को। माहौल बोझिल हो रहा था। मेरे लिए तो असह्य भी। गोरख मुझसे वरिष्ठ थे-गुरुस्थानीय। वे मेरी किसी बात से आहत हों, यह सचमुच असह्य था मेरे लिए। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘बाबा कोई गलती हुई..?’ -करीब घंटे भर बाद मैंने पूछने का साहस किया। उन्होंने मेरी ओर देखा। मैंने ट्यूब लाइट के उजाले में उनके माथे की सलवटें देखीं और आंखों का अपरिचय भी। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो मिश्र जी..!’ क्षण भर बाद वे मुसकराते हुए बोले- मानो नये सिरे से पहचान रहे हों मुझे। मेरी जान में जान आयी, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि किस बात से आहत हुए वे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘आइए साथी हम लोग मेस की ओर चलें। खाना मिल रहा होगा।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>-बेतरतीब किताबों के ढेर पर रखी टाइमपीस की ओर देखकर वे बोले। खाने के दौरान वे चुप रहे। खाने के बाद हम लोग फिर चाय की दूकान की ओर गये। दूकान खुली थी। अब भी वहां कुछ लड़के-लड़कियां बैठे थे-टीलों पर। सन की मोटी रस्सी सुलग रही थी। हम लोग भी एक टीले पर बैठ गये। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘खाना कैसा रहा मिश्र जी?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘सब्जी अच्छी नहीं लगी। किस चीज की थी?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘कुँदरू की।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘कुँदरू?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हाँ मेघदूत की नायिका के होंठों का रूपक-पक्वबिम्बाधरोष्ठी-पके कुँदरू रूपी होंठों वाली।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो यह बिंबाफल है?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हां, पक जाने पर लाल हो जाता है। आकार भी लड़कियों के होंठों की तरह।’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>तब तक मुझे गोरख की संस्कृत-पृष्ठभूमि का पता नहीं था। उनकी बहुज्ञता सुखद और विस्मयकारी लग रही थी। इस बीच एक लड़के और लड़की के बीच की कहा-सुनी तेज हो गयी। देखते-देखते लड़की ने लड़के की पिटाई चालू कर दी-चप्पलों से। लड़का पिटता रहा। न वह आत्मरक्षा कर रहा था, न प्रतिरोध। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तुम्हारी शादी हुई है मेरे साथ। कुछ तो सोचो!’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>-वह बार-बार कहता। लड़की चुप थी और दोनों हाथों से चप्पल चला रही थी। लड़की की बगल में एक दूसरा लड़का खड़ा था, जो पिटाई के प्रति निरपेक्ष लग रहा था। थोड़ी ही देर में लड़की थक गयी थी शायद। उसने पिटाई बंद कर दी और बगल में खड़े लड़के के साथ चली गयी। पिटा हुआ लड़का कुछ देर वहीं खड़ा रहा, फिर सड़क की ओर चला गया।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>इस घटना ने सब का ध्यान आकृष्ट किया। जब तक यह घटित होती रही, सब मंत्रमुग्ध से हुए रहे। लड़की और दोनों लड़कों के चले जाने के बाद लोग फिर बातों में व्यस्त हो गये। कुछ अंग्रेजी में बातें कर रहे थे, कुछ हिंदी में, लेकिन सब की बात-चीत के केंद्र में यही घटना थी। सुन-सुन कर पता चला कि पिटने वाला लड़का पुरानी दिल्ली के किसी सेठ का बेटा है। लड़की की शादी हुई है उसके साथ, लेकिन वह उसे पसंद नहीं करती, यहां पढ़ती है और हॉस्टल में रहती है। लड़का दिन में दूकान पर बैठता है, रात में कभी-कभी यहां आता है। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘आत्मनिर्णय..का..अधिकार..तो होना ही चाहिए..मनुष्य के पास।’- काफी देर की चुप्पी के बाद गोरख बुदबुदाये।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>आखिरी चाय पीकर हम लोग कमरे की ओर लौटै। किताबों के ढेर पर रखी टाइमपीस रात के दो बजने की सूचना दे रही थी। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..साथी..यह एक..गंभीर समस्या है।’ -गोरख फिर बुदबुदाये। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>मैं चौंक गया- ‘अब क्या समस्या है बाबा?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘दरअसल..मैं किसी की..उपस्थिति में..सो नहीं पाता..। ..क्या आप..छत पर सो सकते हैं?’ -दाढ़ी सहलाते हुए वे दीवार की ओर देख रहे थे और परेशान लग रहे थे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हां, हां। मुझे दिक्कत नहीं होगी छत पर।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>फिर उन्होंने मुझे छत का रास्ता दिखाया और समझाया कि सुबह उनके उठने की प्रतीक्षा न करूं और मेस में नाश्ता करके हिसाब उनके खाते में लिखवा दूं। मैं काफी थक चुका था और आदत के खिलाफ लेटते ही सो गया, लेकिन थोड़ी ही देर में उड़ान भरते हवाई जहाज की आवाज से घबरा कर उठ बैठा। अचानक लगा कि अगर मैं यूं ही बैठा रहा, तो सिर में जहाज की टक्कर लग सकती है और फिर लेट गया। नींद में बार-बार यह सिलसिला चलता रहा। जहाज आते और जाते रहे। उनकी गड़गड़ाहट सुनकर नींद बार-बार टूट जाती। मैं उठ कर बैठ जाता, फिर लगता कि अगर लेट नहीं गया तो इतनी कम ऊँचाई पर उड़ता जहाज जरूर सिर से टकरा जाएगा, लेकिन पता नहीं कब ऐसी नींद आयी कि मैं दिन चढ़े तक बेसुध पड़ा रहा। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>धूप कड़ी हो गयी थी। सिर, माथे और चेहरे का पसीना कानों में घुसने लगा था, जब मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा-भौंचक। कुर्ते के दामन से आँखें मलते हुए नीचे आया। गोरख के कमरे का दरवाजा आधा खुला था-पहले की तरह। लाइट बुझी थी। छत से लटकता पंखा सनसना रहा था और वे अभी सोये थे। घड़ी तो मैंने नहीं पहनी थी, फिर भी अनुमान किया जा सकता था कि सोकर उठने में देर हो गयी है। अनुमान तब प्रमाण बना, जब पता चला कि लैट्रिन और बाथरूम में पानी नहीं आ रहा है। अब मेरे पास इसके सिवा और कोई उपाय नहीं था कि चाय की दूकान पर समय बिताऊँ और गोरख के उठने और शाम होने का इंतजार करूं। दोपहर ढलने लगी थी, जब अंडी की चादर की लुंगी और सलवटों वाली रेशमी खादी की कमीज पहने गोरख चाय की दूकान की ओर आते दिखे। वे सिर झुकाये चले आ रहे थे-दाढ़ी सहलाते हुए। खूब नजदीक आ जाने पर मैंने नमस्कार किया। उन्होंने सिर उठाया- </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘..तो मिश्र जी..। ..आइए साथी चाय पीते हैं।’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘आपका नाश्ता-खाना वगैरह हुआ?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>-चाय खत्म करके सिगरेट जलाते हुए उन्होंने पूछा। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘नहीं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘क्यों..?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>मैंने अपनी स्थिति स्पष्ट की। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..यह एक..गंभीर समस्या है। ’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘क्या?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>वे कुछ नहीं बोले।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘यहां..पूर्वांचल के..कई साथी..रहते हैं। ..आज मैं ..आपकी भेंट उन लोगों से करवाता हूं। ..आप गीत सुनाकर उन्हें प्रभावित कर सकते हैं, फिर उन्हीं में से किसी के साथ रह भी सकते हैं। खाना-नाश्ता मेस में हो जायेगा..। ..हिसाब मेरे खाते में लिखवा दीजिएगा..और शाम से देर रात तक हम लोग साथ रहा करेंगे।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>-कुछ देर चुप रहने के बाद वे बोले। अमूमन हम लोगों के बीच यह धारणा प्रचलित थी कि गोरख जितने प्रतिभाशाली कवि और क्रांतिचेता विद्वान् हैं, व्यावहारिक मामलों में उतने ही शून्य भी हैं। इसीलिए उस दिन की उनकी व्यावहारिक चतुराई देखकर मैं विस्मित हो रहा था। लगातार दो-तीन चाय पीकर हम लोग राजेश राहुल के कमरे की ओर गये, जो उसी हॉस्टल की किसी दूसरी लॉबी में था। वहाँ उर्मिलेश मिल गये। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे सीनियर थे और वहाँ की छात्र राजनीति में अत्यंत सक्रिय थे। इलाहाबाद से एम.ए. करके ज.ने.वि. में पी-एच.डी. कर रहे थे। योजना के मुताबिक गोरख ने मेरा परिचय कराया और इसके साथ ही गीत सुनाने का प्रस्ताव भी कर दिया। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हाँ गुरू हो जाय।’ -उर्मिलेश ने हँसते हुए समर्थन किया। हँसने के दौरान उनके काले दाँत दिखे। काली दाढ़ी और काले दाँतों के बीच पान से रंगे होंठ चटख भेदक रेखा बना रहे थे। यों तो वहां सब दाढ़ी वाले थे, लेकिन दाढ़ी सहलाने का काम केवल गोरख कर रहे थे। मैंने कुछ गीत सुनाए- दो-तीन गोरख के, कुछ-एक अपने भी। इसी बीच किसी भूल से खुले रह गये वाश बेसिन के नल की टोंटी से पानी गिरने की आवाज आने लगी। यानी शाम हो गयी। घंटे भर बाद चाय की दूकान पर मिलने का वादा करके गान-गोष्ठी मुल्तवी की गयी। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>वादे के मुताबिक हम लोग चाय की दूकान पर मिले। फिर चाय, गप-शप और गीत। खाने के बाद भी यह सिलसिला चलता रहा। इस दौरान कुछ और साथी आ गये थे, जिनके नाम मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। देर रात को सब अपने-अपने कमरों की ओर गये। गोरख भी। मैं राजेश राहुल के साथ उनके कमरे की ओर गया। रास्ते में पहाड़ पर सिर पटकता नवयुवक दिखा। वह अंग्रेजी में विलाप कर रहा था, जिसका आशय यह था कि उसकी जरूरत किसी को नहीं है। नींद में मुझे बार-बार उसका विलाप सुनायी पड़ता रहा। अचानक ऐसा लगा, जैसे गोरख बुला रहे हों। नींद खुल जाने पर भी यही लगता रहा कि यह सपना है। इतनी सुबह उनके उठने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। फिर लगा कि खिड़की के पार वे खड़े हैं और मुझे बुला रहे हैं। बाहर निकल कर देखा, तो वे सचमुच खड़े थे। उगते सूरज की लाली में सब कुछ रँगा था। जलते बल्ब बेवजह लगने लगे थे। गोरख की आँखें अधखुली थीं। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। बाद में जो समझ में आया, वह यह कि रात में मैंने निराला की एक गजल सुनायी थी, जिसकी धुन का उन पर ऐसा असर हुआ कि उसी धुन में एक गजल लिख डाली और अब चाह रहे थे कि मैं उसे गाकर सुनाऊँ ताकि वे विश्वस्त हो सकें कि गजल मुकम्मल हो गयी है। गजल सुन लेने के बाद उनके उनींदे चेहरे पर एक विशेष खुशी दिखने लगी। वे मुस्कराये और शाम को मिलने का वादा करके सोने चले गये। निराला की गजल थी- ‘किनारा वो हमसे किये जा रहे हैं।’ गोरख ने जो गजल लिखी, वह थी- ‘हमारे वतन की नयी जिंदगी हो।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>दिन भर सोये गोरख। मैं राजेश राहुल के साथ भारतीय भाषा केंद्र और लाइब्रेरी में कुछ काम करता रहा। बीच-बीच में राजेश राहुल मट्ठे जैसी लस्सी पिलाते रहे, जो उस तपती दोपहरी में अमृत जैसी लग रही थी। शाम को गोरख से फिर भेंट हुई- चाय की दूकान पर। बात-चीत के केंद्र में वह गजल ही रही। इसी सिलसिले में गोरख ने एक महत्वपूर्ण बात कही- ‘सरलता अपने आप में एक मूल्य है- साहित्य का भी और जीवन का भी।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>हम लोग मेस में रात का खाना खा रहे थे, जब किसी ने गोरख को सूचना दी कि बी.एच.यू. में दर्शनशास्त्र के प्रवक्ता की जगह निकली है। गोरख ने यह सूचना ऐसे सुनी, जैसे इससे उनका कोई संबंध ही न हो। थोड़ी देर बाद जब उसी व्यक्ति ने फिर से यह सूचना देते हुए कहा कि आप इस पद के लिए बेहतर अभ्यर्थी हो सकते हैं, तो गोरख ने आश्चर्यपूर्वक उसकी ओर देखा।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘..तो साथी..क्या सचमुच ऐसा लगता है आपको?’ -अपने वैदुष्य से पूरी तरह बेखबर लग रहे थे वे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हाँ हाँ, क्यों नहीं? लेकिन थोड़ी जल्दी करनी होगी। लास्ट डेट नजदीक है।’-मुँह का कौर जल्दी-जल्दी चबाकर वह फिर बोला- ‘मैं कल फॉर्म लेकर आपके कमरे पर आ जाता हूं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो यह तो बहुत अच्छा होगा।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>रोज की तरह उस रात भी हम लोग खाना खाने के बाद चाय की दूकान की ओर गये। फिर देर रात तक चाय, सिगरेट और दुनिया-जहान की बातें। गोरख चुप थे और दाढ़ी सहलाते हुए सिगरेट के कश ले रहे थे। बीच-बीच में वे पूछते-‘..तो..साथी..क्या मेरी नियुक्ति..बी.एच.यू. में हो सकती है?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हाँ हाँ, क्यों नहीं?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>-हम लोग कहते। वे बच्चों की तरह खुश हो जाते। अगले दिन लगभग दो बजे मैं गोरख के कमरे की ओर गया। वे न सिर्फ सोकर उठ गए थे, बल्कि खद्दर की पैंट-कमीज और पैरों में चप्पल पहने कहीं जाने को तैयार लग रहे थे। तखत पर बी.एच.यू. का फॉर्म रखा था और वे सिगरेट के कश लेते हुए कमरे में टहल रहे थे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘फॉर्म आ गया क्या बाबा?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..मिश्र जी..आपको क्या लगता है? ..क्या मेरी नियुक्ति..बी.एच.यू. में..हो सकती है?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>-मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बदले उन्होंने प्रश्न किया।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘आप ऐसा क्यों सोचते हैं? आपका नहीं होगा तो किसका होगा?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..आइए साथी कहीं चलकर कुछ खाते हैं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘आप कहीं जाने वाले हैं?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘नहीं, आज मुझे अपनी गाइड के पास जाना था। वहीं से आ रहा हूं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>सीढ़ियाँ उतर कर हम लोग उसी अप्रचलित पगडंडी की ओर चल पड़े, जिससे पहले दिन डाउन कैंपस गये थे, लेकिन कुछ कदम चलकर वे रुक गये और कुछ सोचने लगे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘क्या हुआ बाबा?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘आइए साथी हम लोग चाय से ही काम चला लेंगे।’ -जैसे उन्हें कुछ याद आया हो। मुझे भी पहले दिन वाली घटना याद आयी। पछतावा नये सिरे से होने लगा। ..मेरे किस व्यवहार से उस दिन आहत हुए वे? हम लोग चाय की दूकान की ओर गये। चाय, सिगरेट, गीत और बातों का सिलसिला शाम तक चलता रहा। खाना खाने के बाद फिर बैठे हम लोग- रोज की तरह। हाँ, आज गोरख की स्थिति भिन्न थी। अभी कल तक उन्हें अपनी अभ्यर्थिता को लेकर संदेह था और आज फॉर्म मिल जाने और गाइड तथा मित्रों की आश्वस्तियां सुन लेने के बाद वे मान बैठे थे कि नियुक्ति हो गयी है। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो बाबा कल फॉर्म भर लीजिए। और भी जो औपचारिकताएं हों, पूरी कर लीजिए। लास्टडेट नजदीक है।’ -देर रात को जब हम लोग अलग होने को हुए, तो मैंने कहा। शायद मेरी बात से उनकी कल्पना को ठेस लगी। थोड़ी देर चुप रहे वे, फिर बोले- ‘तो..साथी..क्या आप..कल..सुबह..दस बजे तक..मेरे कमरे पर आ जाएंगे?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>अगले दिन दस बजे मैं उनके कमरे पर पहुंचा, तो वे सो रहे थे। थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद मैंने कोशिश करके जगाया, तो उन्होंने प्रश्नाकुल आँखों से मुझे देखा। सिगरेट के कुछ कश लेने के बाद उन्होंने चाय की दूकान की ओर चलने का इशारा किया। चाय पीकर हम लोग फिर कमरे की ओर लौटे-चुपचाप।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..क्या..समस्या है साथी?’-तखत पर बैठते हुए उन्होंने पूछा। रात की बात वे पूरी तरह भूल गये थे। मैंने फॉर्म की याद दिलायी। वे थोड़ी देर चुप रहे, फिर उन्हीं कपड़ों में चलने को तैयार हो गये। कमीज बदल गयी थी। लुंगी वही थी।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘कुछ कागजात लेंगे?’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘नहीं साथी। गाइड ने कहा है कि चूँकि थीसिस जमा है और डिग्री अभी नहीं मिली है, इसलिए शोधकार्य के बारे में एक संक्षिप्त वक्तव्य टाइप करा देना जरूरी है, बस।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘बाबा गाइड के कहने का आशय यह नहीं कि हाई स्कूल से एम.ए. तक के दस्तावेजों की जरूरत ही नहीं है।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>वे चुप हो गये। थोड़ी देर हम लोग चुप खड़े रहे, फिर उन्होंने कुछ किताबों को उलटना-पलटना शुरू कर दिया। तकरीबन आधे घंटे की मशक्कत के बाद विश्वविद्यालय स्तर के दस्तावेज तो मिल गये, लेकिन माध्यमिक और प्राथमिक कक्षाओं के नहीं मिले। देर तक पंखे की सनसनाहट सुनायी पड़ती रही और किताबों की उठा-पटक। गोरख के माथे की सिकुड़नें गहरी हो गयी थीं। कमरा सिगरेट के धुएँ से भर गया था। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘बाकी..दस्तावेज..टुन्ना के घर में..हो सकते हैं..।’ -अचानक बोले वे -दाढ़ी सहलाते हुए।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘टुन्ना..?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘आप टुन्ना को जानते होंगे साथी।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>तब तक मैं जलेश्वर का यह नाम नहीं जानता था, जबकि वे मेरे आत्मीय थे और बिना मंच और बिना वेश-भूषा के अभिनय करने की प्रथम दीक्षा उन्हीं ने दी थी। गोरख मुझे यह समझाने लगे कि टुन्ना का घर बनारस के किस मुहल्ले की किस गली में है।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘बाबा यह सब मुझे क्यों समझा रहे हैं?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘साथी क्या आप बनारस तक नहीं चले जाएंगे? ..किराया..मैं दूँगा। ..ऐसे भी आपको इलाहाबाद तक जाना है।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘ठीक है। चले जाएंगे, लेकिन चलिए पहले आज का काम तो कर लिया जाय।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>थोड़ी देर बाद हम लोग हवा सिंह की दूकान के सामने खड़े थे। गोरख ने अपने लिए सिगरेट का पैकेट लिया। मुझे पान खिलाया, तब तक बस आ गयी। रफ्तार कम हुई। कुछ लोग चढ़ गये, कुछ उतर गये। बस चली गयी। गोरख जहाँ के तहाँ खड़े रहे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘क्या हुआ बाबा?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..मिश्र जी..क्या आप..उस पगडंडी से..चलना पसंद नहीं करेंगे?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘इस धूप में..!’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>मेरा प्रतिप्रश्न सुनकर वे चुप हो गये और उदास भी। मैंने इधर ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर में दूसरी बस आयी। रफ्तार कम हुई। मैं पीछे के गेट से चढ़ गया और खाली सीट तलाशते हुए आगे की ओर बढ़ गया। बीच में कुछ सीटें खाली थीं। बैठने से पहले मैंने गोरख की तलाश में पीछे की ओर देखा। वे सबसे पीछे खड़े थे। मैंने इशारे से बुलाया। वे कुछ नहीं बोले, कोई इशारा भी नहीं किया। बहुत व्यग्र लग रहे थे वे। न सिगरेट पी रहे थे, न दाढ़ी सहला रहे थे। फैली हुई आँखों की हल्की सफेद पुतलियाँ शायद कुछ नहीं देख रही थीं। जहाँ थे, वहीं खड़े रहे वे-सबसे पीछे, सबसे अलग। बस डाउन कैंपस पहुंच कर धीरे हुई, तो हम लोग उतर गये। गोरख बस से उतर कर वहीं खड़े हो गये-सड़क किनारे। सिगरेट के कुछ कश लेने के बाद वे सहज हुए। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..साथी..अब..क्या करना चाहिए?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘सबसे पहले तो थीसिस के बारे में अपना वक्तव्य टाइप कराइए </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>और दस्तावेज मुझे दीजिए, मैं फोटो कॉपी कराके आता हूँ।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘..यह तो..गंभीर समस्या है।’-वे बुदबुदाये।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘अब क्या समस्या है बाबा?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘दस्तावेज..तो कहीं..छूट गये।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘क्या..?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘हाँ..साथी..।’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘कहीं बस में तो नहीं छूट गये?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>वे कुछ नहीं बोले। हम लोग सड़क किनारे खड़े थे-किंकर्तव्यविमूढ़।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘जहाँ तक मैं..समझता हूँ, दस्तावेज..हवासिंह की दूकान पर..हो सकते हैं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तब?’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘साथी..क्या..आप..बस से..हवा सिंह..की दूकान तक..जा सकते हैं?’-उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>हवा सिंह की दूकान पर कागजात सही-सलामत मिल गये और मैं उन्हें लेकर लौटा, तो गोरख वहीं खड़े मिले, जहाँ पहले खड़े थे-सड़क किनारे।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..साथी..आपने..बहुत बड़ा काम..किया है। आइए..कहीं..कुछ खाते-पीते हैं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>अब वे मुस्कराते हुए दाढ़ी सहला रहे थे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘नहीं बाबा आइए पहले ये काम कर लिये जाएं।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘तो..साथी..आप फोटो कॉपी करा लें..और मैं टाइप करवा लेता हूँ।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>दोनों दूकानें आस-पास थीं। फोटो कॉपी का काम जल्द ही हो गया और मैं गोरख के पास आ गया। सँकरे गलियारे जैसी जगह में टाइपिस्ट एक स्टूल पर बैठा था। बीच में टाइपराइटर। सामने एक दूसरा स्टूल-ग्राहक के लिए। गोरख खड़े थे और आँखें मूँदे डिक्टेशन बोल रहे थे-अँग्रेजी में। उनके खड़े होने के बाद गलियारे में बहुत कम जगह बची थी। एक युवक बार-बार उधर से ही आ-जा रहा था। हर बार उसकी कुहनी गोरख को छू जाती। दो-तीन बार ऐसा हुआ। अचानक गोरख का डिक्टेशन रुक गया। बंद आँखें खुल गयीं और एक अजीब आवेश से काँपने लगे वे।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘मिश्र जी..यह आदमी..मुझे..इरादतन..अपमानित कर रहा है।’- युवक की ओर तर्जनी उठाकर किसी तरह बोले वे।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>‘मैंने तो कुछ नहीं किया।’- युवक हक्का-बक्का खड़ा था। टाइपिस्ट गोरख का चेहरा देख रहा था। मैंने यह सुन रखा था कि किसी से छू जाने पर वे असहज हो जाते हैं, लेकिन उस समय की उनकी उत्तेजना देखकर मैं निरुपाय हो रहा था। कभी मैं गोरख का मुँह देखता, कभी युवक का। वह कोई मजदूर लग रहा था और अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए खड़ा था। गोरख अपनी जगह खड़े थे। नथुने फड़क रहे थे, लेकिन वे कुछ बोल नहीं रहे थे। आँखें खुली थीं, लेकिन ऐसा लगता था, जैसे उन्हें कुछ दिख न रहा हो। थोड़ी देर में आवेश कम हुआ, तो उन्होंने सिगरेट जलायी। कुछ कश लेने के बाद आँखें फिर मुँद गयीं और वे डिक्टेशन बोलने लगे। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>लौटती बार हम लोग पैदल आये-पगडंडी से। उनकी स्पर्श-संवेदना का यह हाल देख कर बस से चलने का प्रस्ताव नहीं कर सका मैं। पहाड़ी पगडंडी पर हम लोग चुपचाप चले जा रहे थे। लू चल रही थी। मजदूरों की झोपड़ियों के इर्द-गिर्द छोटे बच्चे खेल रहे थे। मेरे दिमाग में कभी उस युवक का निरीह चेहरा झाँक रहा था, तो कभी गोरख का उद्विग्न चेहरा। ..गोरख जनता के कवि हैं। ..वह युवक भी तो जनता का आदमी था। ..कपड़ों से मजदूर लग रहा है। ..उसकी छुअन से गोरख क्यों इतना परेशान हो गये? ..लेकिन ये तो सहपाठियों से छू जाने पर भी आपा खो बैठते हैं। ..क्या वजह हो सकती है? ..इनकी क्रांतिकारी चेतना पर संदेह नहीं किया जा सकता। ..इनका पूरा रचनाकर्म शोषण और गैर बराबरी के खिलाफ संकल्पित है। ..वह कौन सी अप्रिय छुअन थी, जिसने इनकी स्पर्श संवेदना को सदा के लिए कुंठित कर दिया? मैं गोरख के पीछे-पीछे चला जा रहा था और दिमाग में उधेड़बुन चालू थी।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>उसी शाम गोरख ने मुझे बनारस तक का किराया दिया और अधूरे दस्तावेजों के साथ फॉर्म भी। एक चीज और दी उन्होंने-अपना कविता-संग्रह : ‘साथी..बनारस में..आपको..देवरिया के बहुत से विद्यार्थी..मिल जायेंगे। ..किसी से यह किताब..मेरे पिता के पास भिजवा दीजिएगा।’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>बनारस पहुँच कर मैंने जलेश्वर का मकान खोज लिया था। जहाँ-जहाँ गोरख के दस्तावेज होने की संभावना थी, जलेश्वर ने तलाश की। कई घंटे की छान-बीन के बाद गोरख की इबारत वाले कुछ पन्नों के सिवा कुछ नहीं मिला। ..अब?</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"><b>गोरख का कविता संग्रह उनके पिता तक पहुँचाने का काम तो आसानी से हो गया। बनारस में सचमुच देवरिया के बहुत से विद्यार्थी थे। सब गोरख को जानने वाले-चाहने वाले। कविता-संग्रह उनके पिता तक ले जाने की होड़ मची थी उनमें। ..लेकिन फॉर्म का क्या किया जाय? आखिरकार अधूरे दस्तावेजों के साथ ही फॉर्म को डाक के हवाले कर दिया गया। फिर हम लोगों ने मिलकर ठहाका लगाया था- मैं, जलेश्वर और दूसरे कई साथियों ने। उस समय दूर-दूर तक यह आशंका नहीं थी कि ये असहजताएं उनके किसी मनोरोग की अभिव्यक्ति हैं, जो एक दिन उनकी असमय दारुण मृत्यु का कारण बन सकता है।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue; font-size: large;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"></span></div>
</div>
DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-25552438887076879192010-07-07T11:19:00.000-07:002020-04-20T09:56:37.736-07:00 मूरतें -शिवशंकर मिश्र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div align="center">
<span style="color: black;"></span></div>
<div align="center">
<div style="text-align: justify;">
<b style="color: blue; text-align: left;"> एक पुरानी धार्मिक इमारत ढहा दी गयी थी और उससे भी पुरानी एक दूसरी धार्मिक इमारत के खँडहर धरती के गर्भ में गंभीरता से खोजे जा रहे थे। लाशों से भरी रेलगाड़ी की बोगियां एक शहर से दूसरे शहर पहुँच चुकी थीं। चलती गाड़ियों से लड़के फेंके जा रहे थे। रेलगाड़ियाँ खूनी हो गयी थीं। अखबारों में भूख से मरने वालों की खबरें नदारद थीं। उनकी जगह दंगों में मरने वालों की खबरों ने ले ली थी। ...करीब बीस साल बाद मैं अपने गाँव जा रहा था। जरूरी था। भाई ने पत्र में लिखा था कि बेटे का ब्याह है और जमीन का बँटवारा होना है। मौके से सब रिश्तेदार रहेंगे। रिश्तेदारों के सामने बाँट-बखरा होने से बाद में कुछ कहने-सुनने की बात नहीं रहेगी। ...बँटवारा है तो ख़राब चीज, लेकिन महानगर में बीस साल रहकर जमीन के छोटे से टुकड़े का महत्त्व समझ में आ गया था। ...सारे भय और आतंक के बावजूद जमीन के एक टुकड़े के मालिकाना हक़ का एहसास अच्छा लग रहा था... । डीजल, पेट्रोल और तकनीक के बाद एक जमीन ही तो है, जिसकी कीमत दिनों दिन बढ़ रही है।...अपनी जमीन। ...अपना गाँव। मेरे मन में गाँव की छवियाँ तैर उठीं... । गाँव... । खेत... । ताल... । ताल की कच्ची मिट्टी... । बचपन... । मिट्टी की मूरतें... । सादिक... । मैंने जो भी खिलौने बचपन में खेले थे, सब सादिक के बनाये थे। ...मेरे खेत ताल के किनारे हैं। ...ताल में कुंजीबेरा... । महानगर की भीड़ में चलते हुए भी मरे मन में कुंजीबेरा खिल गये। ...कुंजीबेरा से जुड़ा बचपन का वह प्रसंग। ...मुंशी जी पढ़ा रहे हैं...</b></div>
</div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'बीती रात कमलदल फूले... ।'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>हम लोग पढ़ रहे हैं...</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'बीती रात कमंडल फूले ... ।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'गधाऽऽ !' </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> - मुंशी जी ने सब की पिटाई की...फिर श्यामपट्ट पर कमल का फूल बना दिया ... 'कमंडल नहीं कमलदल...!' मैंने कमल का फूल देखा ही नहीं था। ...एक दिन बाबा के साथ खेतों की ओर गया। ...ताल में कुंजीबेरा के फूल....! ...कमल। ...मेरा कमल... । मेरे मन में कुंजीबेरा ही कमल हो गया। एक दिन अकेले गया। घुस पड़ा ताल में। शायद बीच वाले कुंजीबेरा और बड़े हों... । मैं घुसता जा रहा हूँ... । कुंजीबेरा के ढेर सारे फूल! ...मैं फूल देख रहा हूँ। बस अब थोड़ी ही दूर रह गया फूलों का झुरमुट... । अरे!...अरे..!पानी... नाक तक... । ...अब...अब नाक से ऊपर। गुडुप...गुड़... गुड़ गुडुप...गुडुप। ...अजीब विकलता... । मैं पुकारना चाहता हूँ किसी को, लेकिन बोल नहीं पा रहा हूँ... । मुंह खोलते ही पानी अन्दर घुसने लगता है। कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है। ...कुछ दिख नहीं रहा है। ..सारी पीड़ाएं सिमटकर घुसती जा रही हैं कपाल में... । गहरा अन्धेरा ... । ...भयानक पीड़ा... । ...कोई धक्का दे रहा है। ...फिर धक्का। ...कोई मुझे अपने कंधे पर लाद रहा है। ...मेरा पेट दबा रहा है कोई। ...मुंह से पानी निकल रहा है। ...आँखें खुलीं। अरे! सादिक चच्चा...! उस दिन से सादिक रोज मुझे कुंजीबेरा की माला और मिट्टी के खिलौने देते थे सांझ को, जब वे सिंवान से लौटते थे पशुओं के संग । पता नहीं अभी सादिक होंगे या नहीं ? ...होंगे भी तो कैसे होंगे? ...साढ़े सात बज रहे हैं। ...शाम हो गयी होगी गाँव में। यहाँ, महानगर के इस जंक्शन पर न तो सुबह होती है, न शाम। ... हमेशा एक सा उजाला... । उफ! इतनी भीड़! लोगों का विशाल झुरमुट...। धक्का... । फिर धक्का... । ...मन की छवियाँ खो जाती हैं... । बचते-बचाते अपना डिब्बा तलाशता हूँ। लेकिन इस भीड़ में कोई कैसे बच सकता है धक्का-मुक्की से? काफी मशक्कत के बाद अपनी बर्थ पर पहुँच पाया। नीचे की बर्थ मिली है। पानी की बोतल और बैग वगैरह यथास्थान रखकर बैठ गया मैं। अच्छा रहा। समय से आ गया। गाड़ी ने सीटी दे दी। कुछ यात्रियों को छोड़ने उनके जो परिजन आये थे, उतरने लगे। ...धक्का! धक्क धक्क .... धक्क धक्क... । लम्बी साँस... । जूतों के फीते खोलना चाहता हूँ, लेटने के लिए। मत खोलो फीते, मन का एक कोना कहता है। पता नहीं कब क्या हो। ...जलती हुई आँखों को आराम देने के लिए पल भर पलकें बंद किये रहता हूँ। ...आँखें खोलो। आंखें खोलो। ...यह भीतर की आवाज है। मैं आस-पास के लोगों के चहरे देख लेना चाहता हूँ। सामने की नीचे वाली बर्थ पर दो लोग बैठे हैं। दोनों चुप हैं। दोनों अलग-अलग हैं। मेरे ऊपर की बर्थ पर कोई अभी से लेता है। शायद बीमार है। मेरी तरफ की सबसे ऊपर वाली बर्थ पर एक अधेड़ झुक कर बैठे हैं और चश्मा लगाए कुछ लिख रहे हैं। उन्हें देखने के लिए मुझे गर्दन खूब बांयी ओर घुमानी पड़ी और आँखों को अस्वाभाविक ढंग से ऊपर ले जाना पडा। यह लगभग अभद्रता ही थी, जिस पर मुझे थोड़ी झेंप भी आयी। कोई किसी को नहीं देख रहा है। या न देखने का दिखावा कर रहा है हर आदमी। सब एक दूसरे को देखते हैं, लेकिन नजर बचा कर। कभी धोखे से नजर मिल जाती है, तो लोग झटके से गर्दन घुमा लेते हैं। मैं खुद कितना छुईमुई हो रहा हूँ! ...इन दिनों रेलगाड़ी का सफर! वह भी रात में! बाप रे...! मैं हरगिज ऐसा न करता। लेकिन और करता भी क्या? भतीजे का ब्याह कोई रोज-रोज तो होगा नहीं। गर्मी की छुट्टियां। शादी-ब्याह। यात्रियों की आपाधापी। इसी गाड़ी में रिजर्वेशन मिल पाया। ...गाडी रफ्तार पकड़ चुकी है। ...धक धक धक धक धक... । पीछे की बर्थ पर बातें चल रही हैं -</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'सीधी सी बात है। जब दो देश बन ही गये, तो हिन्दू हिदुस्तान में रहें और मुसलमान पाकिस्तान में।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'और मस्जिदों का क्या होगा?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हिन्दुस्तान की मस्जिदें गिरा दो और पाकिस्तान के मंदिर गिरा दो।' </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>मैं इन लोगों के चहरे नहीं देख पा रहा हूँ। अब मैं जूतों के फीते खोलकर लेट जाता हूँ। दिन भर की दौड़-धूप के बाद जलती हुई आँखें अपने आप मुंद जाती हैं। ...आवाजें भीतर कहीं डूब जाती हैं... । ...छवियाँ जाग जाती हैं...। गाँव की...। जमीन की... । मिट्टी की... । मूरतों की... । सादिक की... । सादिक के बिना गाँव की तस्वीर बन ही नहीं पा रही है... । जिस तरह फुट्टू लोहार के बिना हर-फार नहीं बन सकता, गोलई नाऊ के बिना हजामत नहीं बन सकती, ननकाई सोनार के बिना गहना-गुरिया नहीं बन सकता और घुरहू पंडित के बिना शादी-ब्याह नहीं हो सकता, उसी तरह सादिक के बिना गाँव की तस्वीर नहीं बन सकती... । ...बनने लगीं... । बनने लगीं तस्वीरें...। गाँव की...। सादिक की... । घुटनों तक धोती। मारकीन की बंडी। कंधे पर गमछा। घुटा सिर। मुंड़ी दाढ़ी। नीचे झुकी खिचडी मूंछें। ...असाढ़ में किसी का छप्पर उठवा रहे हैं सादिक। ...आंधी-पानी में किसी की टूटी बंड़ेर में थूनी लगा रहे हैं। ...सावन-भादों की आधी रात को किसी के घर में निकले काले सांप को मार रहे हैं। ...गर्मी में किसी के घर आग लग गयी है। सादिक आग बुझा रहे हैं। ...किसी की गाय के पेट में बच्चा फँस गया है। चलो सादिक के पास। हर काम को करने की जुगत है सादिक के पास... । </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक छुक छुक... </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>गाड़ी स्टेशनों पर रुकती। झटका लगता। आँखें खुल जातीं। तरह-तरह के लोग घुस आते डिब्बे में। ...मैं डर जाता। सोये हुए लोग जाग जाते। शायद हर आदमी डर रहा है। कोई नहीं सो रहा है। सब यूं ही आँखें बंद किये हैं। ज्यों ही नए लोगों की भीड़ घुसती है, पहले से बैठे या लेटे हुए लोग एक-दूसरे को देखने लगते हैं। अब वे झटके से गर्दन नहीं घुमाते। पल दो पल नजरें मिलाकर नये आगंतुकों के बारे में अपनी -अपनी आशंकाओं को आपस में बाँटते हैं। ...मैं खुद कितना बदल गया हूँ। आदमी के चहरे पर जिन साम्प्रदायिक चिन्हों को देखना मैंने बहुत पहले छोड़ दिया था, आज उन्हीं की तलाश कर रहा हूँ लोगों के चेहरों में। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>' चाऽऽई ...!' चाऽऽई...!'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'पुड़ीऽऽऽ!' 'पुड़ीऽऽऽ !'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'पूड़ी सब्जीऽऽ पूड़ी सब्जीऽऽ!' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>सीटीऽऽऽ... । झटका... । </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>धक्क धक्क...धक्क धक्क...धक धक धक धक... । </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> गाड़ी महानगर से बहुत दूर निकल आयी है। मेरे आस - पास के लोग फिर सो गये हैं। या शायद आँखें बंद कर ली हैं उन्होंने। अब सामने वाली बर्थ खाली है। जो लोग उस पर बैठे थे, अब ऊपर अपनी - अपनी बर्थ पर चले गये हैं। मेरी तरफ की सबसे ऊपर वाली बर्थ के अधेड़ अब भी कुछ लिखे जा रहे हैं। भीतर उजाला है। बाहर काली रात... । कहीं कहीं कुछ टिमटिमाती रोशनियाँ दिख जाती हैं। गाँव होंगे... । गाँव, खेत, पेड़, ताल - पोखरे... । सब डूबे हैं अँधेरे में। ...सबेरा होगा। चरवाहे पशुओं के झुण्ड लेकर आ जायेंगे। पेड़ नाचने लगेंगे। जलती हुई आँखों की पलकें मुंद जाती हैं। ...माटी की छवियाँ जाग उठती हैं। ...मिट्टी की मूरतें। तरह-तरह की मूरतें। मोटा सेठ, ठिगना कारिन्दा, चिरई -कौआ, मोटर-गाड़ी, बैलगाड़ी... । ...सिंवान में पशुओं को संगोह कर सादिक एक पेड़ की छाया में बैठे हैं। पोखरे से कच्ची मिट्टी लेकर मूरतें बना रहे हैं। पशुओं पर भी नजर है। किसी की फसल न उजाड़ दें। दोपहर हो गयी है। बाकी चरवाहों को गाँव भेज दिया है उन्होंने खाने के लिए। सादिक का खाना भौजाई किसी चरवाहे से भेज देंगी। रोटी--अचार की पोटली। पानी पोखरे का। ...मूरतें धूप में सूख रही हैं। ...एक और बनानी है। नेता जी हेलीकाप्टर से आये थे। तभी से है दिमाग में... । ...बन गयी। ...बन गयी हेवलीकलट्टर की मूरत। अब बस। अरे...! धूप में मूरतें कहीं-कहीं दरक गयी हैं। सादिक कच्ची मिट्टी से मूरतों की दरारें भर रहे हैं। फिर सुखाना होगा इन्हें धूप में। अब कुंजीबेरा की मालाएं बनानी हैं... । सांझ हो गयी। गाँव से बाहर धूल उठ रही है। भीतर धुँआ। सादिक पशुओं के संग गाँव में घुस रहे हैं। गलियों में बच्चे खेल रहे हैं। सादिक उन्हें मूरतें और मालाएं बाँट रहे हैं। बच्चे खिल उठे... । उनकी ख़ुशी देख कर सादिक खिलखिला रहे हैं...। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक छुक छुक... । </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>गाड़ी सीटी दे रही है। मेरे पीछे की बर्थ पर लोग बातें कर रहे हैं - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'क्यों, रफ्तार कम हो रही है न ?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हाँ, शायद कोई स्टेशन आने वाला है।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>धक्क...धक्क... धक्क...चींऽऽऽ!</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'कौन सी जगह है भाई ?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'पता नहीं।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'यहाँ तो कोई चाय वाला भी नहीं है।'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'आउटर है। '</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>थोड़ी देर गाड़ी खड़ी रहती है। सब चुप...। गाड़ी सरकती है। अब स्टेशन। कई लोगों ने पढ़ा - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'अलीगढ़।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>' अलीगढ ?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हाँ, अलीगढ़।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'चायऽऽऽ! चायऽऽऽ ! चायऽऽऽ ! चायऽऽऽ !'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'पुड़ेऽऽऽ! पुड़ेऽऽऽ ! पुड़ेऽऽऽ ...!' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>चाऽऽईऽऽ चाऽऽईऽऽ ...!' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>महिला एनाउंसर की आवाज। कोई ऊंघता हुआ आदमी कह रहा है- </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'भाई साहब लाइट बुझा दीजिये।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'जलने दीजिये।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'जलने दीजिये।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'उजाला जरूरी है।' </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>तरह - तरह की आवाजें और तरह-तरह के मत। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>मैं भी नहीं चाहता कि लाइट बुझाई जाय। उजाले के पक्ष में ज्यादा लोग हैं। एक बेकाबू भीड़ घुसी आ रही है। उजाले में मैं सब की शिनाख्त कर लेना चाहता हूँ। हर चहरे को गौर से देख रहा हूँ। दाढ़ी... । मूंछ... । झुर्रियां... । दाग... । लम्बे-लम्बे बाल... । खूँखारियत... । मासूमियत... । हताशा... । जिन्दगी... । हर चेहरा आदमी का है। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>धक धक धक धक... । </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>गाड़ी खड़ी है। एक दूसरी गाड़ी जा रही है।</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>सामने की बर्थ पर एक युवती आ गयी। उसकी गोद में बच्चा है। ...क्या और कोई नहीं है इसके साथ? ...है। ...यह नौजवान शायद इसका पति है। उसे पीछे की बर्थ मिली है। दोनों आँखों ही आँखों में कुछ कहते हैं। नौजवान अपनी बर्थ पर चला जाता है। मेरे सभी पड़ोसी युवती को घूरते हैं। मैं भी, लगातार लिखने वाले अधेड़ भी और ऊपर का बीमार भी। क्या जाति होगी इसकी...? क्या धर्म होगा इसका...? पहनावे से कुछ समझ में नहीं आ रहा है। पीछे की बर्थ पर बातें चल रही हैं - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'आदमी के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि उसे</b></span><br />
<span style="color: blue;"><b> चहरे या पहनावे से नहीं समझा जा सकता।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'अरे भाई चहरे की बात मत करो। कौन जाने कब एक जोड़ा मासूम</b></span><br />
<span style="color: blue;"><b> आँखों वाला कोई चेहरा अपराजेय समझी जाने वाली मीनार को ढहा दे।' </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>अब भी मेरे सभी पड़ोसी युवती को घूर रहे हैं। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>मैं भी, लगातार लिखने वाले अधेड़ भी और मेरे ऊपर का बीमार भी। सब उसकी जाति और धर्म जान लेना चाहते हैं। देख देखकर। सूंघ सूंघकर। बच्चा रोने लगता है। युवती उसे चुप कराती है। बच्चा चुप नहीं होता। रोता जा रहा है। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...सीटीऽऽऽ। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...झटका। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>धक्क...धक्क...धक्क...धक्क। </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>चल पड़ी गाड़ी। ...बच्चा रोता जा रहा है। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>युवती...युवती नहीं माँ। माँ चुप कराना चाहती है बच्चे को। बच्चा चुप नहीं होता। माँ बच्चे की आँखों में आँखें डालकर कुछ देर देखती है। बच्चे की आँखों में माँ उतर आई। माँ के आँचल में दूध उतर आया। बच्चा छिप गया आँचल में। माँ लेट गयी। दूध पिला रही है बच्चे को। न माँ किसी को देख रही है, न बच्चा। बच्चा चुप है। अब कोई किसी को नहीं देख रहा है। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>छुक छुक छुक छुक... । </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>गाड़ी चली जा रही है। मेरी आँखों की जलन कम नहीं हो रही है। पलकें फिर मुंद जाती हैं। ...लीला हो रही है। गाँव में रामलीला हो रही है। आज बियाह होगा। मंडली मनीजर रामखेलावन जी माइक्रोफोन पकड़ कर बोल रहे हैं -</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'भाइयों और बहनों एक बार प्रेम से बोलिए राजरामचन्द्र की...'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'जैऽऽऽ!'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>'भाइयों-बहनों भगवान राम और माता जानकी के विवाह की लीला है आज। हमने लीला को और रोचक बनाने के लिए इस बार भगवान की बारात में हाथी ले आने की योजना बनायी थी। लेकिन बड़े दुःख की बात है कि चन्दा कम मिलने से हम हाथी नहीं ले आ सके। अब जैसी है भगवान की लीला है। प्रेम से देखिये। एक बार प्रेम से बोलिए राजारामचंद्र की...'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'जैऽऽऽ !' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>छुक छुक छुक छुक छुक छुक छुक छुक... । </b></span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;"><b>...लीला शुरू। प्रार्थना चल रही है -</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'रामसिया नमवा बड़ा अनमोल, बड़ा अनमोल, राधे गोविन्द हरी बोल हरी बोल... । '</b></span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;"><b>प्रार्थना ख़तम। ... मंच पर नचनिया। भजन गा रहा है और नाच दिखा रहा है-</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'दिखाया चीर कर सीना तो सीता राम लिक्खा था।' </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>अब ब्यास जी चौपाई गा रहे हैं। पर्दा गिरा। फिर उठा। दशरथ जी मंच पर। जनकपुर से दूत आये। पत्रिका बांची गयी। अब बारात सज रही है। बिंदा भगत की मंडली ने बीन बजाना शुरू कर दिया। लेकिन यह क्या...? पीछे के दर्शक चौंक गये। वे खड़े हो गये और शोर मचाने लगे - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'ह इ देखो! हाथी!' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हाथी ?' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हाँ रे देख पीछे। चला आ रहा है हाथी।' </b></span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;"><b>कोई मंच की ओर नहीं देख रहा है। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक... । </b></span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;"><b>...रामखेलावन जी बार-बार मंच पर आकर बोल रहे हैं - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'एक बार प्रेम से बोलिए राजा रामचंद्र की ...' </b></span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;"><b>'जय' बोलने वाला कोई नहीं। सब हाथी देख रहे हैं। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'भाइयों और बहनों कृपया शांती का सहजोग कीजै। भगवान की लीला है। विघ्न मत डालिए।' </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>लेकिन लोग रामखेलावन जी की बात पर ध्यान नहीं दे रहे हैं... । </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>वे तो हाथी देख रहे हैं... । मझोले कद का हाथी... । पीठ पर सजीवन। हाथी धीरे-धीरे मंच के पास पहुँच रहा है। रामखेलावन जी, व्यास जी, दशरथ जी- सब चौंक पड़े। हाथी कभी रामखेलावन जी को धक्का मार रहा है, तो कभी किसी दर्शक को। जब मंच खाली होता, हाथी अपनी लीला दिखाता। मंच के एक कोने से दूसरे कोने तक दौड़ता। हाथी पर सवार सजीवन तरह-तरह की आवाजें निकालता - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'गरगत्त गरगत्त !'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'घिट पिट कीऽऽ घिट पिट कीऽऽ !'</b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>सब भूलकर लोग हाथी देख रहे हैं । ...छुक छुक छुक छुक... । </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>गाड़ी चली जा रही है। माँ सोयी है। बच्चा सोया है। ऊपर वाले सज्जन शायद बैठे-बैठे ही सो रहे हैं। पीछे की बर्थ पर बातें चल रही हैं। बाहर अँधेरा है। भीतर उजाला... । गाँव में मिट्टी के तेल वाली फोन्नोगैस का उजाला... । लीला ख़तम। अब हाथी परदे के पीछे जा रहा है। उसके पीछे-पीछे सभी दर्शक। ... सब जान लेना चाहते हैं कि कौन बना था हाथी और कैसे ? सजीवन को पीठ से उतार कर और झरेखू बांवारूपी के कंधे से हाथ हटाकर अंगड़ाई लेते हुए सादिक खड़े हुए। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'धन्नि है! धन्नि है सादिक!'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>सादिक खिलखिला रहे हैं। उनके तम्बाकू से काले दांत साफ दिख रहे हैं...। ... छुक छुक छुक छुक... । झरेखू बांवारूपी चिल्लाया - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'अरे पहले मेरे मूड़ से सूँड़ तो उतारो!' </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>जल्दी-जल्दी सादिक उसके सिर से पुआल ठूंस कर बनाए हुए काले कपड़े का सूँड़ उतारते हैं। अपने शरीर से हाथी वाला काला झिंगोला उतार रहे हैं और झरेखू को निर्देश दे रहे हैं- </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हे झारेखुआ मेरी पिठांह से ई रसरी तो खोल और ई रजाई-गद्दा तो उतार!'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक छुक छुक ... । गाड़ी चली जा रही है। सामने माँ सोयी है। बच्चा सोया है। सब सोये हैं। मेरे भीतर गाँव की छवियाँ जाग रही हैं... । रफ्तार कम हो रही है। शायद कोई स्टेशन आने वाला है। पीछे की बर्थ पर फिर बातें शुरू हो गयीं-</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'कौन सी जगह आने वाली है?' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'पता नहीं...।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>सीटीऽऽऽ... । </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>धक्क धक्क धक्क चींऽऽऽ... । </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'चाऽऽ चा गरम...चाऽऽ चा गरम... चाऽऽ चा गरम... ।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'कौन सा स्टेशन है यार ?'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> कई लोग नाम पढ़ते हैं । ...भीड़ अन्दर घुसी आ रही है। कुछ लोग उतर रहे हैं। झटके से ऊपर वाले महाशय की कापी गिर गयी और कई लोगों के पैरों के तले कुचल गयी। मैंने कापी उठायी। पन्ने खुल गए थे। हर पन्ने में लाल स्याही से 'रामराम' लिखा था। ...अरे यह क्या? कापी थमाते हुए महाशय मुझे इस तरह क्यों घूर रहे हैं?...तिलक लगे मस्तक पर इतनी सिकुड़नें ? ...चश्मे के भीतर से झांकती आँखों में इतनी नफरत ? ...ओह! शायद मेरी दाढ़ी! ...बाप रे! महीने में एक बार कैंची से दाढ़ी छोटी कर लेने का आलस लगता है आज अच्छी कीमत वसूलेगा। मेरा बार-बार मन करता है कि उठकर उन्हें नाम बता दूं। नाम बताने से जाति और धर्म मालूम हो जाएगा और मैं सुरक्षित हो जाऊंगा। ...लेकिन बिना पूछे नाम बताना भी तो अटपटा लगता है। बच्चा कुनमुनाया... । हाथ-पैर चलाने लगा और रोने लगा... । भीड़ आ रही है, जा रही है। तरह-तरह के चहरे। लेकिन इस समय तो मुझे उन्हीं का चेहरा डरावना लग रहा है। सीटीऽऽऽ ... । धक्क धक्क ... । गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। मेरे सामने की सबसे ऊपर वाली बर्थ पर लेटे हुए आदमी ने मुझसे जगह का नाम पूछा। बीच की बर्थ वाले ने टाइम पूछा। अब वे मुझे नहीं घूर रहे हैं। मैं लेट गया हूँ। बच्चा शांत है। माँ दूध पिला रही है । वे फिर 'राम राम' लिखने लगे शायद। मेरी पलकें फिर मुंद जाती हैं। ...सादिक भी लिख रहे हैं राम का नाम। ...लिखेंगे कैसे ? ...गा रहे हैं। ...होली जल रही है। ...सादिक की कमर में ढोलक बाँधी जा रही है। ...पहली फाग सादिक गा रहे हैं -</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'लै लइए राम का नाम, पहिले देबी सारदा गाइ लइए।' </b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"><b>सादिक गा रहे हैं। साथ में सब गा रहे हैं। सादिक गा भी रहे हैं और ढोल भी बजा रहे हैं -'बिम्मलकड़...! । बिम्मलकड़...!'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक...</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b> दूसरी फाग ग्रामदेवता को समर्पित। सादिक शुरू की दो फागों में हर साल नेतृत्व करते हैं। गाँव का नाम सँड़वा, तो ग्रामदेवता साँड़ेबीर । सादिक गा रहे हें -</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>' सँड़वा के साँड़ेबीर बाबा तोहरी सरन ढोलक बाजे.... । ' </b></span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;"><b>सब गा रहे हैं। अब सादिक केवल ढोल पीट रहे हैं -</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'' बिम्मलकड़ ! बिम्मलकड़ !''</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक छुक...</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> गाड़ी चली जा रही है। ...स्टेशन आ रहे होंगे। सवारियां चढ़ -उतर रही होंगी। हो सकता है, वे मुझे घूर रहे हों। लेकिन मैं आँखें नहीं खोल पा रहा हूँ। ...छुक छुक छुक छुक... । सब कुछ नाच रहा है दिमाग में। सचमुच नाच रहे हैं सादिक... । घर-घर। किसी का घर नहीं छोड़ रहे हैं। सबको न्योता दे रहे हैं - </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> 'हे भाई महलूद हो रहा है। आना जरूर। हे कलुआ की माई कलुआ को जरूर भेजना। सीताराम दद्दा जरूर आना। हे भौजाई नचकउना को भेज देना। धियान रखना ! हाँ ! बड़का बतासा आया है। बाजार से। मौलवी साहब आये हैं। सहर से। सब लोग आना।' </b></span><br />
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक छुक...</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> ...छिन भर में पूरे गाँव की परिक्रमा करके बड़के भाई द्वारा बनवाई बंडी और धोती पहन ली सादिक ने। सिर पर गोली टोपी भी लगा ली। ...मौलूद शुरू। मौलवी साहब तखत पर बाकी सब नीचे बैठे हैं। सब का ध्यान मौलवी साहब की बातों पर और सादिक का ध्यान इस बात पर भी कि कहीं कोई कुकुर-माकर बताशा न जुठार दे। इसलिए एक डंडा भी रख लिया है उन्होंने। सब मौलवी साहब का मुंह ताक रहे हैं। सादिक मौलवी साहब की बगल में रखी बताशे की टोकरी ताक रहे हैं। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक ... । </b></span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;"><b>...सब खड़े हो गए। सब गा रहे हैं -</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>' या नबीऽऽ सलामलैकाऽऽ... ।' </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b>बस इतना ही याद है सादिक को। अब क्या करें ? ...अब सिर्फ मुंह डोला रहे हैं वे।</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक... । </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>गाना ख़तम। मौलूद ख़तम। ...अब सादिक एक-एक का नाम लेकर पुकार रहे हैं। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>बताशा बाँट रहे हैं। ...उलींच रहे हैं आह्लाद। जो नहीं आ सकते, उनके घर जा रहे हैं बताशा देने।</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...छुक छुक छुक छुक ... । </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>मेरी आँख खुल गयी। सब सो रहे हैं। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>बच्चा जाग रहा है। बच्चा मेरी ओर देख कर मुस्करा रहा है। ...क्या हो गया ? बच्चा अब चकित होकर मुझे घूर रहा है। अरे! अरे! बच्चा रोने वाला है। बच्चा मुझे देख कर चकित क्यों हुआ ? रुआंसा क्यों हो गया ?अनायास ही मेरा दाहिना हाथ अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी छूने लगा। ...किस जाति का होगा बच्चा...? क्या धर्म होगा इसका...? अरे! अरे मैं पागल हो गया हूँ क्या...? ...मैं बच्चे की ओर देख कर मुस्कराता हूँ। शायद बदले में बच्चा भी मुस्करा दे। ...मुस्करा रहा है बच्चा। आँखों की जलन कम हुई। ...नींद आ गयी। ...आश्वस्ति की आख़िरी परछाईं बच्चे के ऊपर मंडरा रही है। परछाईं बच्चे को खाने के लिए बताशे और खेलने के लिए मिट्टी की मूरतें दे रही है। ...दृश्य बदल गया। ...अचानक अन्धेरा। बाहर भी अन्धेरा। भीतर भी अँधेरा। अँधेरे में गाड़ी चली जा रही है... । </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हाय अंधेरा...!' </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>तरह- तरह की आवाजें। अफरा-तफरी। लोग भाग रहे हैं। गिर रहे हैं एक-दूसरे पर। किसी बोगी से लोगों के चीखने की आवाजें आ रही है। औरतों की चीख... । बच्चों की चीख... । आदमी की चीख। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'गाड़ी में बम!'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'किसने रखा बम ?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'कौन जाने किसने रखा बम ?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'नहीं मालूम ? फौरन पता करो, कौन किस जाति का है, कौन किस धर्म का है?'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>...कोई कड़क कर कह रहा है। ...अब वे टार्च लेकर एक-एक का चेहरा देख रहे हैं अँधेरे में। ...हाय, मेरी दाढ़ी ! ...अब क्या हो ? अचानक टार्च मेरी ओर। टार्च की रोशनी में मैं किसी को नहीं देख पा रहा हूँ। ...सब मुझे देख रहे हैं। ...सब मेरी दाढ़ी टटोल रहे हैं। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'किस जाति की है यह दाढ़ी ? किस मजहब की है ?' </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>-वही कड़कदार आवाज। ...मैं बता देना चाहता हूँ अपना नाम।</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>जाति और धर्म। खूब कोशिश करता हूँ, लेकिन मुंह से आवाज नहीं निकलती... । </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'मार साले को !'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> ...मेरी नींद खुल गयी। ...अजीब सपना था। नींद खुली तो देखा कि सचमुच लोग मार रहे हैं एक आदमी को । उसके पूरे बदन पर केवल एक जांघिया है। लम्बा सांवला जवान। गले में ताबीज। लोगों का कहना है कि वह जेबकट है। ...धक धक धक धक .... । एक बुजुर्ग अपनी सदरी और कुरते के नीचे वाली बनियान की कटी हुई जेब दिखा रहे हैं। पूरे पांच हजार थे। हाईकोर्ट जा रहे थे मुक़दमा लड़ने। पुलिस वाले मार रहे हैं। यात्री भी मार रहे हैं। वह आदमी बिल्कुल नहीं बोल रहा है। उसकी नाक से खून बहने लगा। लोग मार रहे हैं और वह बर्थ के नीचे देख रहा है। अचानक वह गिरा और तेजी से बर्थ के नीचे फिसल गया। पुलिस वाले बर्थ के नीचे डंडा घुसेड़ते हैं, लेकिन वह लापता हो गया... । शायद मार के डर से उसने ऐसा किया। बच्चा रो रहा है। माँ चुप करा रही है। मैं उठ बैठा। ...कितनी बेरहमी से मार रहे थे लोग! ... क्या सचमुच वह चोर था ? ...उसके शरीर पर कपड़े क्यों नहीं थे ? ...एक भी शब्द वह बोला क्यों नहीं? लोग लगातार उसी की बातें कर रहे हैं। उसकी ताबीज के मुताबिक़ उसकी जाति और धर्म का अनुमान कर रहे हैं। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>....धक धक धक धक ....</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> गाड़ी चली जा रही है। भोर होने वाली है। गंदले तांबई उजाले में गाँव, पेड़, पोखरे, आदमी और जानवर नाचती हुई परछाइयों की तरह झलकने लगे। ...गाड़ी सीटी दे रही है। कोई स्टेशन आने वाला है। रफ्तार कम हो गयी । </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>...धक धक धक्क चींऽऽ! </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>अरे ! मैं आ गया ! मैं झांकता हूँ। ...हाँ यही तो है</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> मेरे गाँव के पास का स्टेशन। चोर वाले प्रसंग में दिमाग इस तरह उलझा कि ध्यान ही नहीं रहा। दो ही मिनट रुकेगी गाड़ी यहाँ। मन होता है कि एक बार सब को देख लूं। शायद वे मुझे अब भी घूर रहे हों। बच्चा मुस्करा रहा हो शायद... । चोर शायद यहीं कहीं छिपा हो. लेकिन यथार्थ मजबूर करता है कि केवल अपने जूते देखो। जल्दी-जल्दी जूते पहनता हूँ। बैग और पानी की बोतल लेकर जल्दी से कूद गया मैं। ...गाड़ी के भीतर एक दुनिया थी। अब अपने गाँव के पास के इस छोटे से स्टेशन पर हूँ। यह एक अलग दुनिया है। कोई चायवाला नहीं। ....सहंजन के कुछ पेड़। कुछ कुत्ते। रेलवे के दो ऊंघते हुए मुलाजिम। क्रासिंग पार करके मैं अपने गाँव की पगडंडी खोजना चाहता हूँ। ...यह तो पक्की सड़क है। धुंधले उजाले में काली सड़क दिख रही है। तीन पहियावाले दो टेम्पो खड़े हैं। ...क्या ये मेरे गाँव जायेंगे ?</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'हाँ बाबूजी । निजरब कराओ तो बीस रुपया ,नहीं तो दो रूपये। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>मगर टैम लगेगा। सवारी फुल होने पर चलेंगे।' </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> रात भर के सफर की थकान के बाद मुझे बीस रूपये ज्यादा नहीं लगे। टेम्पो चल पड़ा... फट फट फट फट ... । पूछने पर पता चला कि टेम्पो वाला मेरे गाँव का ही लड़का है, जो मुझे नहीं पहचान रहा था। मैं ने उस से पहला समाचार सादिक का पूछा। उस ने सादिक के बारे में जो कुछ बताया ,उससे एक ब्योरा कुछ इस तरह बनता है-</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b> सादिक से दो गलतियां हुईं इस बीच। ...पहली गलती। ...नसीम का छोटा लड़का कई दिनों से अल्ला मियाँ की मूरत के लिए जिद कर रहा था। सादिक ने बहुत सोचा-बिचारा। ...कैसे होते होंगे अल्लामियां? आखिरकार उन्होंने मौलवी साहब की तरह बना दी अल्लामियां की मूरत। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>किसी मौलूद में मौलवी साहब आये थे। मौलूद के बाद उन्होंने सादिक को बहुत फटकारा अल्लामियां की मूरत बनाने के लिए। कान पकड़कर उठावाया-बैठवाया और आइन्दा दाढ़ी रखने, नमाज पढ़ने और इस तरह की बेवकूफियों से बाज आने का हुक्म दिया। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> ...दूसरी गलती। एक बार गाँव में अकाल पड़ा। गाँव वालों ने साँड़ेबीर के चौरे पर अखंड कीर्तन बैठाया। कीर्तन होगा तो पानी बरसेगा। दिन भर होता रहा कीर्तन - ' सीता राम सीता राम ।' शाम को कीर्तनिया जवानों का स्वागत भांग-ठंडाई से हुआ। बाई-बतास से ग्रस्त बुजुर्गों ने अपनी-अपनी मजबूरियां बतायीं और सोने चले गए। अलबत्ता जाते-जाते समझा गये कि कीर्तन खंडित हुआ तो पुन्न के बदले पाप और लगेगा। रात में कीर्तनिया लड़कों को नशा हो गया। हाथों में करताल लिए -लिए वे सो गये। ...सब सो गये। ...क्या करें अकेले सादिक ? ...किसको बुलाने जायं इतनी रात। ...अब तो कीर्तन खंडित! सादिक ने फौरन सोये हुए लड़कों में से एक की करताल छीनी और लगे कीर्तन करने... । सुबह सब ने देखा। अकेले सादिक कीर्तन कर रहे हैं - ' सीता राम सीता राम। '</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> कीर्तन हुआ। एक दिन। दो दिन। तीन दिन। लोगों ने कई दिनों तक इंतज़ार किया। पानी नहीं बरसा। त्राहि-त्राहि मच गयी। हल-बैल, ट्रैक्टर सब खड़े हो गये। इस बीच तरह-तरह के लोग आये गाँव में। जीप से। कार से। हेलीकाप्टर से। लक-दक कपड़े। एक साधू जैसे नेता जी आये। उन्होंने गाँव वालों को अखंड कीर्तन करने के लिए कहा। गाँव वाले भड़क उठे-</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'किया तो कीर्तन ! नहीं बरसा पानी। '</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'कैसे किया ?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'कैसे किया!'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'ऐसे किया।'</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b>बताया सब ने कि सादिक ने कीर्तन खंडित होते-होते बचा लिया। </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'भाइयों बुरा मत मानियेगा। धर्म-कर्म में तो पवित्रता होनी ही चाहिए।' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'क्या मतलब ?'</b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'क्या मतलब सादिक मुसलमान है कि नहीं ?' </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>'ये बात !' </b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>गाँव वाले सारा रहस्य समझ गये। मुसलमान से कीर्तन कराओगे और समझोगे भगवान खुश...?</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>आज नेता जी गाँव में ही रुकेंगे। सांझ को नौजवानों की सभा करेंगे और अपनी देख-रेख में करायेंगे कीर्तन। ...नेता जी पूरे पंडित थे। अगले दिन उन्होंने मन्त्र पढ़कर चबूतरे के आस-पास की जमीन पर तांबे के लोटे में आम की टेरी और दूब डालकर जल छिड़का और कहा कि इस भूमि में हिन्दू के अतिरिक्त कोई आया तो अनुष्ठान खंडित। फिर नहीं बरसेगा पानी। ...कीर्तन की बैठकी कराकर महराज जीप में सवार हुए और दूसरे गाँव के दौरे पर निकल गए। </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>...सादिक हमेशा की तरह सारा दिन सिंवान में थे। कुछ अपने पशुओं के संग कुछ दूसरों के। वे दुबारा अनुष्ठान और इसके नियम-क़ानून नहीं जान पाए थे। शाम को पशुओं को खूंटे तक पहुंचाया,जल्दी से मिट्टी के तेल वाली फोन्नोगैस जलाई और पहुँच गए कीर्तनिया लड़कों के पास। मटुकमन करताल फ़ेंक कर खड़ा हो गया। वह सादिक की बांह पकड़ कर खींचते हुए लक्ष्मण-रेखा के पार ले गया। इस बीच सादिक पूछते रहे - </b></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"><b>' का बात है हो बचऊ ?कुछ समझ में नाहीं आय रहा। का कौनौ खास बात...?' </b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>'देखो चचा ! धरम-करम का काज कुछ अलग होता है। अभी तक हम लोग इस बात को नहीं समझ पाए थे। अब समझ में आ गया है। अब तक जो हुआ, सो हुआ, मुदा आगे से समझ लो। अब आज का अनुष्ठान तो खंडित ही हो गया। हाँ, आइन्दा धियान रखना !' - तमतमाया मटुक बोला !'</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b>सादिक फटी-फटी आँखों से मटुक का चेहरा देख रहे थे। तब तक मटुक फिर बोला - '</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b>'ले जाओ अपनी फोन्नोगैस । हमें इसकी जरूरत नहीं है और यह भी समझ लो चाचा कि अब हम तुम्हारी चतुराई समझ गये हैं। बताशा में चोरी से थूक कर फिर उसे हमें खिलाते हो चोरी-चोरी धरम भरिस्ट करते हो हम लोगों का ? अब बहुत मुंह मत खुलवाओ। इसी में खैरियत है कि चले जाओ हियाँ से।'</b></span></div>
<div align="right">
<span style="color: blue;"><b>लड़के ने बताया कि सादिक वहां से चल तो पड़े, लेकिन अपने घर का रास्ता नहीं खोज पाए।</b></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><b> फोन्नोगैस लिए वे सिंवान में घूमते रहे सारी रात... । सबेरा होने पर बड़े भाई हाथ पकड़ कर घर ले आये। सुबह के उजाले में फोन्नोगैस सनसना रही थी। उससे रोशनी नहीं निकल रही थी। शीशे में कालिख भर गयी थी। अब सादिक बिल्कुल नहीं बोलते। कहीं नहीं जाते। ऐसा लगता है कि वे लगातार कुछ देख रहे हैं, लेकिन कुछ नहीं देखते। किसी को नहीं पहचानते... । बड़े भाई महीने में एक बार सिर के बाल मुंड़वा देते हैं और लम्बी सफेद दाढ़ी के होठों के बाल कैंची से चुनवा देते हैं। </b></span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="color: blue;"><b>मेरा गाँव आ गया है। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: blue;"><span style="color: white;">गलियों में बिजली के खम्भे खड़े हैं। उनमे जलते बल्ब निस्तेज लग रहे हैं। सुबह की अजान सुनाई पड़ रही है। मंदिर का घंटा घनघना रहा है। माहौल में गोबर, भूसा, हवन और लोहबान की मिली-जुली गंध तैर रही है। मेरा मन होता है, लौट चलूँ। माटी की छवियाँ टूट चुकी है...<span style="color: white;">।</span></span> </span><span style="color: lime; font-family: "webdings";">lll</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #660000;"><b>[''शब्दयोग'', नयी दिल्ली के प्रवेशांक में ''आश्वस्ति की आखिरी परछाईं'' शीर्षक से प्रकाशित ] </b></span></div>
</div>
DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-15562523797040550552010-06-08T13:53:00.000-07:002020-04-21T01:31:31.137-07:00बाबा की उघन्नी- शिवशंकर मिश्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div align="center">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span style="color: black;"></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="text-align: left;"> बारात आयी भी और चली भी गयी। सारा तामझाम हुआ। सारी रस्में पूरी की गयीं।खूब झाँय-झाँय हुआ। खूब झिकझिक हुई। आखिर में बैन करके रोती सियादुलारी भी विदा हो गयी, लेकिन बाबा की चारपाई जहां थी, वहीँ रही।पूरब के दालान में ऐन भंडारघर के सामने। पता नहीं कब से बिछी है यह चारपाई यहाँ... । बाबा के इकलौते पुत्र हीरालाल जी तिवारी कभी-कभी हिसाब करते हैं, तो पाते हैं कि पिछले तीस बरस से बिछी है यह चारपाई यहाँ। इसी पर लेटे रहते हैं बाबा। उठ-बैठ नहीं पाते। शौच आदि के लिए परिवारीजनों पर निर्भर रहते हैं। इन तीस वर्षों में बहुत कुछ बदला। पूरी दुनिया ही बदल गयी। बाबा की अपनी दुनिया थी। अपना परिवार...। अपने खेत... । यह दुनिया भी बदली। दुआर पर बैल कम हो गए। ट्रैक्टर आ गया और यह परिवार ऊपर से अमीर और भीतर से गरीब हो गया। घर में कई बच्चे पैदा हुए और बड़े हो गए। कई बारातें आयीं और गयीं। बाबा की चारपाई अपनी जगह ही रही। यहीं से लेटे-लेटे बाबा सब कुछ देखते-सम्हालते रहे...। कल रात भी वे लेटे-लेटे देखते रहे, जितना देख सकते थे। सुनते रहे, जितना सुन सकते थे। बोलते रहे,जितना बोल सकते थे, हमेशा की तरह। बाजे-गाजे के बीच उनकी आवाज सुनायी नहीं पड़ रही थी।बीच-बीच में संतोख बाबा के पास आता। उनके कान के पास मुंह ले जाकर कुछ कहता और बाबा कांपते हाथों से भंडारघर की चाबियों का गुच्छा उसे थमा देते। जो भी मेहमान आये और गये, सब बाबा के पास आये। नाम बता कर पैलगी की। बाबा ने सब को कांपते हाथों से छुआ। विह्वल हुए। आशीर्वाद दिया और दो-एक मार्मिक बातें कीं, जो बड़ी मुश्किल से लोगों की समझ में आयीं।</span></div>
</div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> कल सांझ से आज सबेरे तक कितनी गहमा-गहमी थी यहाँ और अब आधी रात जैसा सन्नाटा पसरा है भरी दोपहर में। लू चल रही है। दुआर पर शामियाना फड़फड़ा रहा है। लाल फाइबर की कुर्सियां बेतरतीब पड़ी हैं। दालान में परिवार के मर्द और घराती मेहमान सोये हैं। उनके खर्राटे सुनाई पड़ रहे हैं और हवा की साँय-साँय। औरतें भीतर हैं, लकड़ी के इस मेहराबदार फाटक के भीतर। मेहराब और किवाड़ पर मांगलिक अल्पनाएं और बारीक बेलबूटे खुदे हैं। मेहराब, साह चौखट, किवाड़ और खम्भे अलकतरे से रंगे हैं। चूने से पुती सफेद दीवार पर फाटक के दोनों ओर औरतों ने पिसे चावल, हल्दी और सिन्दूर के घोल से हथेलियों की छाप मार दी है। बीच-बीच में औरतों के रोने-झगड़ने की आवाजें किवाड़ के पार आ जाती हैं। अभी भोर तक वे गीत गा रहीं थीं। सारी रात गाती रहीं वे। पंडित मन्त्र पढ़ते रहे। औरतें बेटी के गवन के गीत गाती रहीं :</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> ...ऊसर मिट्टी को गोंड़-गोंड़ कर हमने ककड़ी के बीज बो दिए...। पता नहीं मीठी होंगी ककड़ियां या कड़वी ... । पूरे नगर में घूम-घूम कर पिता ने वर खोजा है तेरे लिए। नहीं मालूम क्या लिखा है तेरी तकदीर में... । </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> गहरा अवसाद जगाने वाली धुनें। न ढोल न मजीरा। बारात खाना खाने बैठी थी, तो औरतों ने गारी के गीत गाये थे। उन गीतों में बजा था ढोल-मजीरा। फिर नहीं बजा। सारी रात कर्मकांड होता रहा। औरतें गीत गाती रहीं...।अब लड़-झगड़ रही हैं दोपहर में। बच्चों का एक बड़ा झुण्ड नीम तले तिकोनी बैलगाड़ी पर खेल रहा है। सब इसी परिवार के बच्चे हैं। सब पांच साल के भीतर। वे कभी तिकोनी बैलगाड़ी के अगले छोर पर चढ़ जाते हैं, तो पिछला उठ जाता है। पिछले पर चढ़ते हैं, तो अगला उठ जाता है। यह उन्हें जादू जैसा लग रहा है।ज्यादा छोटे बच्चे बैलगाड़ी पर नहीं चढ़ पा रहे हैं। वे हाथ उठाकर बड़े बच्चों से गाड़ी पर चढ़ा लेने की शब्दहीन प्रार्थनाएं कर रहे हैं। रो भी रहे हैं। बड़े बच्चे अपने में मस्त हैं। लू चल रही है। नंग-धड़ंग बच्चे लू से बेअसर हैं। वे खेल रहे हैं और शोर मचा रहे हैं। रामलली सबसे अलग खेल रही है। पहले वह मंदिर के पिछवाड़े सुबकती रही देर तक, फिर आम के बाग की ओर चली गयी थी। कच्चे आम तोड़ने का विफल प्रयास करके लौटी है और अब बैलगाड़ी के पास खड़े ट्रैक्टर पर बैठ कर ट्रैक्टर चलाने का खेल खेल रही है। थोड़ी ही देर में वह ऊबने लगी। आज हर खेल थोड़ी ही देर में बेकार लगने लगता है। फिर सियई दीदी का बैन... । ...काहे भेज दिया गया दीदी को, जब वे इतना रो रही थीं...?डकार आई। डकार में केवड़े की गंध। अच्छी नहीं लगी गंध। दो दिन से केवड़े के फूल डाले गये हैं कुंए में। कल अच्छी लगी थी पानी में केवड़े की गंध। आज अजीब-अजीब हो रहा है मन उसी गंध से। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> अचानक उसे लगा कि बाबा पुकार रहे हैं। ...सियई दीदी तो गयीं। ...अब किसे पुकारेंगे बाबा ? ...अब कौन सुनेगा छिन-छिन पर बाबा का अढ़ौना? वह दौड़ कर दालान की ओर गयी। सब सोये हैं। लोगों के मुंह खुले हैं। किसी के मुंह में मक्खी घुस गयी तो...?रामलली चिंतित हुई। वनस्पति तेलों के भभके उठ रहे हैं दालान में। रामलली को उबकाई महसूस हुई। बाबा जाग रहे हैं।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">' छ्बललियाऽऽ छ्बललियाऽऽ अरे का नाम ? का नाम ? छ्बललियाऽऽ।' </span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="color: blue;">-कफ से जूझती खरखराहट भरी आवाज हाथ काँप रहे हैं।</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> पैर कांपते भी नहीं तीस साल से। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'नाम काहे बिगाड़ते हो बाबा? रामलली कहो</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"> रामलली। छ्बलली कहोगे तो नहीं बोलूंगी हाँ। ' </span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="color: blue;">- रामलली ने बाबा के मुंह पर बैठी मक्खियों को उड़ाते हुए कहा। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'हाँ... हाँ...का नाम उघन्नी। हाँ उघन्नीऽ। उघन्नी खोजो बिटियाऽऽ।' </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">-ऐसे ही बोलते हैं बाबा। एक बात को बीस बार। सबका नाम भूल जाते हैं और भूले हुए नाम वाली खाली जगह में कोई दूसरा नाम इस तरह बैठ जाता है कि हट ही नहीं पाता बाबा के दिमाग से। चारपाई के नीचे से सुतली में बंधी चाबियों का एक बड़ा गुच्छा रामलली ने उठाया और बाबा को थमा दिया। कांपते हाथों से बाबा ने चाबियों का गुच्छा थामा। आँखों के पास हाथ ले जाकर चाबियों का निरीक्षण करना चाहा। आँखें साथ नहीं दे पायीं पूरी तरह। उँगलियों से टटोल कर चाबियों की पहचान की बाबा ने। माथे की सिकुड़नें कम हुईं। वनस्पति तेलों की गंध के भभके उठ रहे हैं। मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। बाबा के मुंह पर अब नहीं बैठ पा रही हैं मक्खियाँ। रामलली उड़ा रही है उन्हें। बाबा ने चाबियों का गुच्छा मुट्ठी में कस कर पकड़ रखा है। धुंधली आखें पता नहीं क्या देख रही हैं। नीम तले बच्चे शोर मचा रहे हैं। बीच-बीच में औरतों के रोने-झगड़ने की आवाजें और हवा की साँय-साँय सुनायी पड़ जाती है। बाबा ये आवाजें नहीं सुन पाते। रामलली सुन रही है हर आवाज। उसे कुछ लेना-देना नहीं इन आवाजों से। दीदी के जाने से आज उसका आज उसका महत्त्व बढ़ गया। अभी थोड़ी देर पहले वह दीदी के वियोग में सब कुछ भूल गयी थी। अब दीदी के जाने से बढ़े हुए महत्त्व के एहसास में मगन है। ...अब बाबा दीदी को नहीं बुलायेंगे। अब तो रामलली ही बची है बाबा की टहल के लिए। वह एकटक बाबा का चेहरा देख रही है और मक्खियाँ उड़ा रही है। बाबा के माथे की सिकुड़नें फिर बढ़ने लगीं। </span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;">'का है बाबा ?'</span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;">'का नाम का नाम...'</span></div>
<div align="justify">
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'रामलली रामलली। ' </span></div>
<span style="color: blue;">- बाबा का वाक्य पूरा नहीं हुआ था कि रामलली बोल पड़ी। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'वो नहींऽ वो नहींऽ। लेखाऽ लेखाऽ लेखा दो। जाओ बुला लाओ का नाम संतोख संतोख संतोख को।' - हाथ काँप रहे हैं। कफ से जूझती आवाज बड़ी मुश्किल से निकल रही है। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">...लेखा ? ...लेखा कहाँ मिलेगा ? रामलली सोच में पड़ गयी। ...संतोख कक्कू कहाँ गये ? ...दालान में तो नहीं हैं। ...उत्तर की अटारी पर तो नहीं हैं ? पूरे घर में मिठाइयों और बासी पकवानों के टुकड़े गिरे हैं। हर जगह मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। हर कमरे में लोग उल्टे-सीधे लेटे हैं।सब सो रहे हैं। छोटकी काकी आँगन से सटे अपने कमरे में कराह रही हैं। माई आँगन में खड़ी है। काकी और माई में कुछ कहा-सुनी चल रही है।</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'इस घर में कोई मरे चाहे जरे, किसी को क्या मतलब ? सबको अपनी-अपनी पड़ी है।' - अपने कमरे में कराहती हुई काकी बोल रही थीं।</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'ए नचकऊबहू घर को दोख न लगाओ हाँ ! दुआर पर चार आदमी बैठे हैं, तो लीला दिखा रही हो। जब भगवान ने मेहरारू का तन दे ही दिया, तो यह सब तो लगा ही रहेगा। ' - चिंचियाती हुई माई का चेहरा बहुत खराब लगा रामलली को। कुछ देर वह खड़ी रही आँगन में। अचानक बाबा की बात का ध्यान आया। दौड़ते हुए वह उत्तर की अँटारी की सीढियां चढ़ने लगी। आखिरी सीढ़ी पर पहुँच कर अटक गयी। क्या माँगा है बाबा ने ? उसने खूब कोशिश की, लेकिन नहीं याद आया। क्या कहेगी कक्कू से कि बाबा ने क्या माँगा है ? ...कह देगी बाबा ने बुलाया है। </span></div>
<span style="color: blue;">'काकी हो ! काकी हो ! किवाड़ खोलो। कक्कू को बाबा बुला रहे हैं।' - वह किवाड़ पीट रही थी और चिल्ला रही थी।</span><br />
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'भाग जा नहीं तो उखाड़ लूंगी झोंटा। बड़ी आयी बाबा की दूती बनकर। मांग रहे होंगे, जो मांग रहे होंगे। इतनी बड़ी पलटन पड़ी है घर में। और कोई नहीं है ? अभी तो जाकर सोये हैं किसी तरह।' - दरवाजा खोलते ही काकी झपट पड़ीं। उनका आखिरी वाक्य पूरा होते-होते वह नीचे की आखिरी सीढ़ी उतर रही थी। फिर अटक गयी वह। ...क्या कहेगी बाबा से ? बड़ी देर तक वह वहीँ खड़ी रही मुंह लटकाए। छोटकी काकी कराह रही हैं। माई से उनकी कहा-सुनी चल रही है। रामलाली को डकार आई । फिर केवड़े की गंध...। पेट से निकल कर मुंह में समा गयी गंध। गहरी उदासी भर गयी मन में... । सब भूल कर वह मकान के पिछवाड़े उल्टी लंगड़ी का खेल खेलने चली गयी। जूठी पत्तलों और कुल्हड़ों का ढेर लगा था वहां। वनस्पति तेलों और बासी पकवानों की महक हवा में उड़ रही थी। कुत्ते पत्तलें चाट रहे थे। वे गुर्रा रहे थे और पत्तलें चाट रहे थे। रामलली उल्टी लंगड़ी का खेल खेल रही थी। अचानक एक कुत्ता दूसरे पर टूट पड़ा। रामलली थोड़ी ही देर खेल पायी थी कि कुत्तों ने एक दूसरे को काट खाया। वह डर गयी। भीतर चली गयी वह डरकर। काकी और माई की कहा-सुनी जारी है। आये दिन इस बड़े परिवार की औरतों में झगड़े होते रहते हैं। ज्यादातर झगड़े खाना बनाने के लिए। एक चूल्हे पर इतने लोगों का खाना... । कौन धिके उपलों और लकड़ी की आंच में...? लेकिन खाना तो बनाना ही पडेगा... । बिना खाना खाए कोई कैसे जियेगा...? बात ज्यादा बढ़ने पर कभी फैसला कर दिया था हीरालाल जी ने। आज भी चलता है वही फैसला। पन्द्रह -पन्द्रह दिन के लिए दो-दो औरतों की पारी बाँध दी थी उन्होंने। इस समय नचकऊबहू की पारी चल रही है खाना बनाने की। लेकिन वह बीमार है। माई समझती है कि वह नखरा दिखा रही है। रामलली पल भर खड़ी रही आँगन में। उसे लड़ते हुए कुत्तों के चहरे याद आये। वह दालान की ओर भाग चली। ...क्या माँगा है बाबा ने ? कदम फिर रुक गए... । </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> सांझ हो गयी है। शामियाना उखड़ गया है। औरतें मकान के पिछ्वाड़ेपोखरे के घाट पर चौथी छुड़ा रही हैं। बीच-बीच में उनके गीतों के बोल सुनाई पड़ते हैं-</span></div>
<div align="left">
<span style="color: blue;">'बोये न होतिउँ सरसइया त का दइ पेरउतिउँ होऽ। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">जनमी न होतिउँ बिटीवा त का दइ पुजतिउँ होऽ।' </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">...सरसों न बोई होती, तो क्या देकर तेल पेरातीं ...?</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">...बेटी का जन्म न हुआ होता, तो क्या देकर पूजा करतीं...?'</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> वे पोखरे की पूजा कर रही हैं... । ज्यादातर रिश्तेदार चले गए हैं। जो रुके हैं, उनकी चारपाइयाँ दुआर पर बिछी हैं , जहां अभी कुछ समय पहले शामियाना तना था। बाबा की चारपाई अपनी जगह। ऐन भंडारघर के सामने। संतोख लेखा दे रहा है। बाबा के मुंह की ओर बैठा है मोढ़े पर। लालटेन जल रही है दालान में। बिजली नहीं है। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'बिजली काहे नहीं आ रही है हो ?' - दुआर पर बैठे रिश्तेदारों के प्रश्न । </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'बिजली नहीं आयेगी महराज। चोर तार काट ले गए हैं। तीन किलोमीटर तक । तब से अँधियर घुप्प। हाँ! पूरा ऐकेट - पैकेट अंधियर घुप्प ।' </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"></span></div>
<div align="center">
<span style="color: blue;"></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"><span style="color: black;"> </span><span style="color: black;"> -हीरालाल जी रिश्तेदारों की खातिर -तवज्जो में लगे हैं ,दुआर पर ,नीम तले। हवा में अब भी जलन है। यहाँ रोशनी का कोई इंतजाम नहीं है। लोग अँधेरे में बैठे हैं। दालान में लालटेन जल रही है,बाबा की चारपाई के पास। बाबा लेखा ले रहे हैं। हाथ काँप रहे हैं। होंठ काँप रहे हैं। आवाज बड़ी मुश्किल से निकल रही है। बातें मुश्किल से समझ में आ रही हैं। संतोख की मुसीबत है आज। हर बात कान में बतानी पड़ रही है । बार-बार उठा - बैठक। एक-एक चीज का लेखा ले रहे हैं बाबा। संतोख का दिमाग चकरा रहा है। एक तरफ कर्ज का बोझ, दूसरी तरफ बाबा का लेखा... ।</span><span style="color: black;"><br />
</span></span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'सोनहुलाऽ सोनहुलाऽ सोनहुलाऽ कितने थान ? कितने थान ?' - बाबा जानना चाह रहे हैं कि सोने के कुल कितने गहने बने। संतोख का दिमाग चकरा रहा है। वह निर्णय नहीं ले पाता कि क्या कहे, तब तक बाबा गिनाने लगते हैं अपने समय के गहनोंके नाम। ऐरन, बाजू बैरक्खी, हँसुली, हवेल, झुमकी, माथबेंदी और भी पता नहीं क्या-क्या ? संतोख के मुंह से कभी हाँ निकल जाता है, कभी ना। फिर कौन सी चीज कितने भर। यानी कौन चीज कितने तोला, कितने माशा। अब सोने का रेट। ...क्या बता दे संतोख ?</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">उसने तीस साल पहले की सोने की कीमत का अनुमान किया... । रिश्तेदार चौंक गए। संतोख ने सोने की जो कीमत बतायी, वह प्रचलित कीमत से इतना कम थी कि रिश्तेदार विश्वास नहीं कर सके। अब चांदी। फिर गहनों के नाम। करधन, छागल, पाँवपैजनिया, लच्छा - पटरी, इसी तरह और भी बहुत कुछ। अब फटफटिया। फटफटिया...? मोटरसाइकिल। हर चीज का दाम तीस साल पहले की कीमत का अनुमान करके बताया जा रहा है। दहाई सैकड़ा में। घी, चीनी, कपड़ा, पतरी-दोना, करई-कसोरा। कुछ भी छोड़ नहीं रहे हैं बाबा। बहुत दिमाग लगाना पड़ रहा है संतोख को। हज़ार की चीज सैकड़ा में। सैकड़ा की चीज दहाई में। दहाई की इकाई में। बाबा की आवाज बड़ी मुश्किल से निकलती है। संतोख को तेज बोलना पड़ता है। नीम तले चारपाइयों पर बैठे रिश्तेदार अब आपस में बातें नहीं कर रहे हैं। वे बाबा और संतोख की बातें सुन रहे हैं चकित होकर। तीस साल पहले की कीमतें रिश्तेदारों के दिमाग में अँट नहीं पा रही थीं । बाबा के दिमाग में आज की कीमतें नहीं अँट सकतीं। बेटी का ब्याह अब लाख के नीचे हो ही नहीं सकता और बाबा लाख का लेखा सुन नहीं सकते। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'अब जोड़ोऽ। जोड़ो अब। सामलाट लेखाऽ। सामलाट लेखाऽ।' - सब चीजों का लेखा मिल जाने पर बोले बाबा। ...जोड़ हज़ार में होना चाहिए। लाख की गिनती आई कि बाबा की मौत हो सकती है। बाबा की मौत...। काँप उठा संतोख इस कल्पना से... । बाबा के बिना यह घर नहीं चल सकता, यह सामूहिक विश्वास उस परिवार में प्रचलित था। इस विश्वास का अपना आधार था। बाबा इस परिवार के आधार पुरुष हैं। बाबा के इकलौते पुत्र हीरालाल जी। हीरालाल जी के सात पुत्र और तीन पुत्रियाँ। हीरालाल जी के हर पुत्र के चार-चार, पांच-पांच पुत्र। पुत्रियाँ अलग। इस तरह इस विशाल संयुक्त परिवार के मूल पुरुष बाबा ही हैं। बाबा ने ही खरीदे हैं इतने सारे खेत। कैसे खरीदे , यह हीरालाल जी जानते हैं। कभी-कभी हीरालाल जी बाबा के त्याग के किस्से सुनाते हैं। किस तरह बाबा एक धोती खरीद कर उसके दो टुकड़े करवाते और उसी से साल भर काम चलाते थे। किस तरह बाबा ने अब तक केवल एक मिर्जई, पांच सादी और एक रुइहा बंडी पर एक सौ दस साल का जीवन काट दिया। पूरे एक सौ दस साल गिनकर बताते हैं हीरालाल जी बाबा की उम्र। हाँ ब्याह-बारात के लिए दो कलीकाट कुर्तों और दो जोड़ी चमौधा जूतों की भी जरूरत पड़ी। विवादित खेतों पर कब्जा करने के लिए लाठी चलानी पड़ी। चलाई लाठी बाबा ने। ऐसी चलायी कि नामी लठैत हो गए। उसी बीते पराक्रम के प्रतीक रूप में मोटी लाठी सिरहाने रखी जाती है, जिसे अब बाबा नहीं उठा पाते। जिन दिनों बाबा की नयी उम्र थी, कुछ लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। बाबा की समझ में यह सब ठीक नहीं था। हाकिम-हुक्काम से बैर करने पर नुक्सान ही होगा... । वे जमीन खरीदने में लगे रहे। मिडिल पास करते ही हीरालाल जी को सरकारी नौकरी मिल गई थी। वे दूर-दूर तक साइकिल से जाते। नौकरी करते। बाबा की ही तरह एक धोती के दो टुकड़े करवाते। उसी से साल भर काम चलाने की कोशिश करते और हर महीने पूरी तनख्वाह बाबा के हाथों में रख देते। बाबा की आँखें छलछला आतीं... । इसी किफायतशारी के चलते इतना बड़ा मकान बनवाया है बाबा ने, कचौड़ीदार। भीतर की दीवारें मिट्टी की और बाहर की ईंट की। बड़ा सा लकड़ी का मेहराबदार फाटक, खम्भेदार दालान। दालान के उत्तर में भंडारघर।इसी के सामने रहती है बाबा की चारपाई। भंडारघर की चाबियों का गुच्छा बाबा खुद अपने पास रखते हैं। तब भी रखते थे, जब दादी जीवित थीं और बाबा दूर -दूर तक जाकर खेत खरीदते थे और अब भी, जब कि बाबा उठ-बैठ भी नहीं पाते। यों इस गुच्छे की हर चाबी नकली है , लेकिन सिरहाने रखी लाठी और चाबियों के इस गुच्छे के बल पर ही बाबा की संप्रभुता टिकी है। दालान में ठीक भंडारघर के सामने चारपाई पर पड़े रहते हैं वे। ऋतुएं आती हैं और जाती हैं, बाबा की चारपाई यहीं रहती है। इसी पर होती हैं उनकी सभी क्रियाएं। हाथ कांपते हैं। पैर कांपते भी नहीं। आँखें कम देखती हैं। कान कम सुनते हैं, फिर भी बाबा इस घर को चला रहे हैं। पिछले तीस सालों से चला रहे हैं इसी तरह। बिस्तर पर पड़े-पड़े वे किस खेत में क्या बोया गया और किस काम में कितना खर्च हुआ, इन सब बातों का ब्योरा और लेखा लेते आ रहे हैं।</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'सामलाट लेखाऽ सामलाट लेखाऽ सामलाट लेखाऽ बोलो । बाबा का प्रश्न सुनकर संतोख चौंक गया। वह भी शामिलात लेखा यानी कुल खर्च जोड़ रहा था। तीन लाख के अल्ले-पल्ले जा रहा था कुल खर्च। उसका दिमाग बुरी तरह चकरा रहा था। लाख तो लाख बाबा दस हजार का खर्च सुनते ही असहाय हो जाते हैं। फिजूलखर्ची के चलते परिवार के सत्यानाश की आशंका से मूर्च्छित होने लगते हैं वे। इसीलिये भंडारघर की चाबियों का गुच्छा अपने पास रखते हैं। शादी-ब्याह का खर्च अब लाख से कम नहीं होता और बाबा को लाख के खर्च की सूचना देना प्राणघातक है। इसीलिये कभी तीस साल पहले संतोख ने हीरालाल जी की सहमति से भंडारघर का ताला बदल दिया था। अचानक एक दिन असली चाबियाँ बेकार हो गयीं। नकली चाबियाँ काम आने लगीं। हर रोज संतोख बाबा से चाबी माँगने का नाटक करता है। आज महँगा पड़ रहा है नाटक। बरात विदा होते ही वह खुद जोड़ने लगा था कुल खर्च और कर्ज। ...औरतों के गहने-गिरौं हैं।किसान क्रेडिट कार्ड से सारा पैसा निकाला जा चुका है। ...एक लाख के लगभग दुकानदारों का हो गया है। बेचेने के लिए केवल गेहूं बचा है और गेहूं अभी बहुत सस्ता है। ...गेहूं बेचकर भी क्या पूरा कर्ज अदा हो सकता है ?भूमिविकास बैंक और सहकारी समिति वाले अलग चक्कर लगा रहे हैं। रोती-झगड़ती औरतें,लेखा माँगते बाबा...। नमस्कार करते दुकानदार।चोरों की तरह किसानों को खोजते बैंक वाले... । तहसील वाले... । दुआर पर लेटे बड़के समाधी- सब संतोख के दिमाग में नाच रहे हैं। लालटेन का शीशा गंदा हो रहा है। लौ अभी तेज़ जल रही है।</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'चलो एक बोझ उतर गया, हाँ बोझ। उतर गया बोझ। आगे से इसी तरह काम करो हाथ बाँध कर। हाँ! समझे ! हाथ बांधकर। असाढ़। असाढ़ सिर पर है। समझे? असाढ़। खेती में भी तो लागत लगेगी। खेती में। हाथ बांधकर काम करो, नहीं तो बिक जाओगे। हाँ...।' -बाबा के होठों पर बारीक मुस्कान तैर रही है। लालटेन का शीशा गंदा होता जा रहा है। लौ बढ़ती जा रही है। संतोख मोढ़े से उठा तो उसे चक्कर सा महसूस हुआ। दीवार का सहारा लेते हुए वह उत्तर की अटारी की ओर चला गया। हीरालाल जी रिश्तेदारों के संग बैठे हैं नीम तले अँधेरे में। हवा के झोंके अब भी चल रहे हैं। नीम की पत्तियाँ अँधेरे में सिहर रही होंगी। कोई पक्षी बीच-बीच में पंख फड़फड़ाता है।बेटी का ब्याह किफायत से हो गया, इस ख़ुशी में बाबा मुस्कराते रहे कुछ देर। अचानक धुंधली आँखों ने बाहर का अंधेरा देख लिया।</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">' छ्बललियाऽ छ्बललियाऽ! संतोख संतोख! अरे का नाम। का नाम उघन्नी। उघन्नीऽ उघन्नीऽ उघन्नीऽ।' - बाबा लगातार पुकार रहे हैं। एक ही नाम कई-कई बार। रामलली सो गयी थी शायद। संतोख उत्तर की अटारी की ओर चला गया था। हीरालाल जी के बाकी छः बेटे और उनके बेटों के बेटे थक कर सो गये थे। हीरालाल जी लाठी के सहारे उठे। दस साल हो गये उन्हें सरकारी मुलाजमत से रिटायर हुए। जिस दिन रिटायर हुए, उसी दिन से गठिया के मरीज हो गये। उठ गये, तो बैठ नहीं पाते। बैठ गये, तो उठ नहीं पाते। जैसे ही पैरों ने इजाजत दी, वे दौड़ पड़े। बाबा हीरालाल जी को देख कर जीते हैं और हीरालाल जी बाबा के जीने के लिए जीते हैं, यह मान्यता थी। </span><br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'का है बाबू?'</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">- बाबा के कान के पास मुंह ले जाकर हीरालाल जी ने पूछा। </span></div>
</div>
<div align="justify">
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'दादूऽ दादूऽ उघन्नीऽ। उघन्नीऽ खोजो। उघन्नीऽ।'</span></div>
<span style="color: blue;">-बाबा घबराये से लगे। हाथ काँप रहे हैं। नथुने फड़क रहे हैं। हीरालाल जी ने बाबा के सिरहाने से चाबियों का गुच्छा उठाया और उनके कांपते हाथों में थमा दिया। सुतली से बंधा भंडारघर की असली चाबियों का गुच्छा, जो असली होने के कारण बेकार हो गया है। बाबा के दिमाग के भीतरी हिस्से में एक अलग दुनिया है...। वहां ट्रैक्टर की कीमत तीन हजार है और इस खिलौने के लिए यह भी ज्यादा है। खेती की सारी उपज ट्रैक्टर की किस्त अदा करने में चली जाती है, ज़माना बदल चुका है और नौकरी के अवसर कम हो गए हैं, ये खबरें नहीं पहुँची हैं अभी उस दुनिया में। घर के कई लड़कों ने बी.ए., बी.एस-सी. कर लिया है, लेकिन बाबा की दुनिया में कोई मिडिल नहीं पास है। मिडिल किया होता,तो मुलाजमत न मिल जाती अपने हीरालाल की तरह... । इस दुनिया में चलती हैं ये चाबियाँ। और कहीं नहीं है इनका काम। बेकार की चीज हो गयी हैं ये। बाबा के लिए बड़े काम की है इस गुच्छे की हर उघन्नी-हर चाबी। हुआ यह कि यौवन के पराक्रमी बाबा अब, जबकि वे जीवन के एक सौ दस शरद पार कर चुके हैं, तीन चीजों से डरने लगे हैं - अलगौझी से, भूतों से और मौत से। अलगौझी की समस्या को बाबा लाठी और उघन्नी के सहारे हल करते हैं। हीरालाल जी के सात पुत्रों और उनके पुत्रों के पुत्रों के बीच आये दिन छोटी-छोटी बातों पर कहा-सुनी होने लगती है। झगड़े होते हैं और हर झगड़े का समाधान अलगौझी के प्रस्ताव के साथ होता है। यों तो बाबा कम सुनते हैं, लेकिन कभी-कभी उनके कानों तक अलगौझी की उत्तेजना भरी बातें आ ही जाती हैं। ऐसे अवसरों पर विचलित हो जाते हैं बाबा। वे मूर्छित न हो जाएँ, इससे बचने के लिए हीरालाल जी के दो पुत्र बाबा को सहारा देकर बैठाते हैं। तीसरा लाठी थमाता है। अलगौझी का नाम लेने वाले को खुद ही चलकर बाबा के पास आना पड़ता है। बाबा कांपते हाथों से लाठी पकड़ते हैं। तीसरा लाठी उठाता है। अलगौझी का नाम लेने वाले की पीठ पर लाठी छुआई जाती है। सारे अंतर्विरोध मुल्तवी हो जाते हैं थोड़ी देर के लिए। सब की चिंता एक, कहीं मूर्च्छित न हो जाएँ बाबा। इस दौरान बुरी तरह कांपते रहते हैं बाबा के हाथ, होंठ और नथुने। बड़बड़ाते रहते हैं वे थोड़ी देर तक- 'भीख, भीख, भीख मांगोगे ! भीख हाँ! भीख भी नहीं मिलेगी। कोई दरवाजे पर खड़ा नहीं होने देगा। हाँऽ।' </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">इस तरह लाठी और उघन्नी के सहारे बाबा अलगौझी की समस्या का समाधान करते आ रहे हैं। लेकिन इधर एक नयी समस्या खड़ी हो गयी है। अन्धेरा होते ही भूत दिखने लगते हैं बाबा को। उनके सारे दोस्त और दुश्मन मर गए हैं। अँधेरे में उनकी छवियाँ तैरती हैं।इसीलिये दिन ढलते ही बाबा कसकर पकड़ लेते हैं उघन्नी। सुतली से बंधी लोहे की पुरानी चाबियों के उस गुच्छे की छुअन से भूत पास नहीं आयेंगे, बाबा का विश्वास। अन्धेरा गहरा हो गया था। अब उघन्नी मुट्ठी में आ जाने से भूतों का भय जाता रहा। थोड़ी ही देर में बाबा के खर्राटे सुनाई पड़ने लगे। नीम तले बैठे रिश्तेदार बड़ी देर तक कौतुकपूर्वक बाबा को देखते रहे। अब वे मौसम और जमाने की बातें कर रहे हैं और यह कि किसने कितना दहेज लिया या दिया। कौन कितना कुलीन ब्राह्मण है या किसके खेत में गेहूं की उपज ज्यादा हुई। औरतों के रोने-झगड़ने की आवाजें फिर बाहर आने लगीं। इन आवाजों पर आम तौर पर ध्यान नहीं दिया जाता। घर-घर की बातें हैं ये। बच्चे सो गए हैं। हीरालाल जी के सातों बेटे और उन के बेटों के बेटे इधर-उधर सोये हैं अँधेरे में। कुछ रिश्तेदार भी सो गये हैं। जागने वाले रिश्तेदारों की खातिर-तवज्जो में हीरालाल जी लगे हैं। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">गाँव से बाहर होने के कारण इस घर में रात का खाना देर से खाने का रिवाज है। रिश्तेदारों को भूख महसूस हो रही है। वे बात करने के लिए बातें कर रहे हैं। कुछ नहा-धोकर हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे हैं। हनुमान चालीसा ख़त्म हो जाने पर भी जब भोजन का बुलावा नहीं आया, तो वे सुन्दरकाण्ड का पाठ करने लगे। कहीं थ्रेशर चल रहा है। भूसे के बारीक कण हवा के साथ आ रहे हैं। वनस्पति तेलों की गंध के भभके अब भी उठ रहे हैं। अचानक किसी औरत के कराहने की आवाज बाहर तक सुनाई पड़ने लगी। फिर सब शांत... । रिश्तेदार बातें कर रहे हैं। पूरा परिवार इधर-उधर सोया है नीम तले। संतोख छत पर है। रात में वह छत पर ही सोता है बन्दूक लेकर। आज वह बन्दूक लोड करता है बार-बार। फिर कारतूस निकाल लेता है... । बड़ी बिटिया के ससुर दुआर पर लेटे हैं। सबेरे विदा कराने पर अड़े हैं। बिटिया के भी गहने-गिरौं रखने पड़े हैं। ...कहाँ मुंह दिखाएँगे? उसे डर लगने लगा अपने आप से... । </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">नीम तले रिश्तेदार बातें कर रहे हैं। वे ऊंघते हुए इस बड़े परिवार की मिलौझी और साहुत की तारीफ कर रहे हैं। हीरालाल जी बार-बार शिवमंदिर की ओर हाथ उठा कर कहते हैं - </span><br />
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'सब इन्हीं की कृपा है। '</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;"> या कभी दालान में लेटे बाबा की ओर इशारा करके कहते हैं - 'सब इन्हीं का पुन्य-प्रताप है।'</span></div>
<span style="color: blue;"> बीच-बीच में थ्रेशर की आवाज बंद हो जाती है, तो रींवा बोलते हैं - रींऽ रींऽ रींऽ। कहीं दूर से बीन और ढोल की आवाजें आ रही हैं। सुन्दरकाण्ड का पाठ करने वाले रिश्तेदार थक गए हैं या शायद सुन्दरकाण्ड ही समाप्त हो गया है। अचानक कई औरतों के रोने की आवाजें बाहर आने लगीं। जो सोये थे, वे जाग गए। जो जाग रहे थे, वे चौंक गए। हीरालाल जी, उनके सातों बेटे और सभी नाती-पोते, जो जहां थे, वहीँ से आँगन की ओर दौड़े।</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">' का बात है ? काहे हाहो-बीपो मचा रखा है? आयँ ?'</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'नचकऊ बहू नहीं रहीं! ...अरे मोर करेजाऽ!' </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">-पल भर के लिए एक महिला विलाप बंद करके घूंघट निकालते हुए बोली और फिर विलाप में शामिल हो गयी।</span></div>
<div align="justify">
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'कैसे ?'</span></div>
<span style="color: blue;">- हीरालाल जी और उनके सभी बेटे एक साथ बोल पड़े। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'अब कैसे मुंह फोर के बताएं...? खून जारी था एक महीना से।' - हीरालाल जी की पत्नी ने उन्हें एक कोने में ले जाकर कहा। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'तो दवा-दारू काहे नहीं हुई ? डाक्टर को काहे नहीं दिखाया गया?'</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'महीना भर से सब बियाह - काज में दौड़ रहे हैं। किसी को मरने भर की तो मोहलत नहीं। किससे कहें और का कहें ?' इतने भारी परिवार में किसी का दुख-दुरापद जानने में ही एक महीना लग जाता है।'</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'देखो, अब जो होना था, हो गया। धीरज से काम लो सब लोग। बात अभी फैलने न पाए, नहीं तो नात-मेहमान खाना नहीं खायेंगे। मिट्टी पिछवाड़े रखवा दी जाय। भोर में किरिया-करम होगा। पहले मेहमानों को खाना खिलाओ।' </span><br />
<span style="color: blue;">-हीरालाल जी ने फुसफुसाते हुए कहा। औरतें बैन करके रो रही थीं। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'हाय मोर बहुरियाऽ।' </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'हाय मोर करेजा।' </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'ए चोप्प अब कोई नहीं रोयेगा। खबरदार।'</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">xx xx xx xx </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">रिश्तेदारों ने खाना खा लिया है। अब वे सो रहे हैं नीम तले। बाबा दालान में सो रहे हैं। हवा के झोंके अब भी गर्म हैं। नीम पर कोई पक्षी बेचैन होता है बार-बार। लाश पिछवाड़े रख दी गयी है। कुछ औरतें लाश को घेरकर बैठी हैं। ...लाश को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए! कुछ उपले सुलगा दिए गये हैं। ...लाश के पास आग जलनी चाहिए! एक दिया जला दिया गया है। ...लाश के पास रोशनी होनी चाहिए! रह-रहकर औरतें सुबकने लगती हैं। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">अचानक बाबा गिंगिंयाने लगे।</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'गींऽऽगींऽऽ गींऽऽ।' </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">-बकार नहीं फूट रहा था। शब्द नहीं निकल पा रहे थे। सोये हुए लोग चौंक कर जाग गए। जो जाग रहे थे, चौंक कर बाबा के पास पहुँच गए। हीरालाल जी लाठी लिए पिछवाड़े खड़े थे। वे जितना दौड़ सकते थे, दौड़ कर बाबा के पास पहुंचे लाठी के सहारे। बाबा रो रहे थे शायद। सब चकित हुए। जो बाबा दादी के मरने पर भी नहीं रोये थे, आज इस तरह क्यों रो रहे हैं?हीरालाल जी को लगा कि नचकऊबहू वाली खबर किसी ने दे दी बाबू को...। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'गींऽऽ गींऽऽ गींऽऽ !' </span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="color: blue;">- गिंगिंया रहे हैं बाबा। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'बाबूऽ बाबूऽ !' </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">- हीरालाल जी ने बाबा के कान के पास मुंह ले जाकर कहा। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'दादूऽऽ दादूऽऽ दादूऽऽ !' </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">-अब फूटा बकार। निकलने लगे कफ से जूझते हुए शब्द। इस बीच किसी ने लालटेन का शीशा साफ कर दिया था। हाथ, होंठ और नथुने बुरी तरह काँप रहे थे। बहुत डरे हुए लग रहे थे बाबा। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'दादूऽऽ दादूऽऽ जल्दी करो। बत्तिस आना। बत्तिस आना ले आओ। हाकिमऽहाकिम आये हैं। जमपुरी के हाकिम आये हैं। टिकस काट रहे हैं टिकस। अरे जल्दी करो। बत्तिस आना। हाँ बत्तिस आना...।'</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">रिश्तेदार एक दूसरे का मुंह देखने लगे। हीरालाल जी ने जल्दी से बंडी से एक नोट निकाला, लालटेन के उजाले में देखा और बाबा के हाथों में थमा दिया। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'दोहाई परगना हाकिम की। दोहाई सरकार की। बड़ी कच्ची गिरस्ती। बड़ी कच्ची गिरस्ती सरकार।' आँखें मुंदी थीं। पैर छोड़कर पूरा शरीर काँप रहा था। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'पांच साल की मोहलत सरकार। बस पांच साल। बहुत गरीब असामी सरकार। बड़ी कच्ची गिरस्ती। हाँ सरकार बस पांच साल....।' </span><br />
<span style="color: blue;"> -बुरी तरह गिड़गिड़ा रहे थे बाबा। रिश्तेदार कभी बाबा का मुंह देखते, कभी आपस में एक-दूसरे का। सब चुप थे। बड़ी देर बाद सहज हो पाए बाबा। रिश्तेदार एक-एक कर चारपाइयों की ओर चले गए। अकेले हीरालाल जी खड़े थे बाबा के पास, लाठी के सहारे। लालटेन की रोशनी में वे बाबा का चेहरा देखते रहे लगातार। अब सहज थे बाबा। चेहरे पर चिंता की कोई रेखा नहीं। दाहिने हाथ की मुट्ठी ढीली पड़ गयी थी। दो रुपये का नोट नीचे गिर गया था। बाबा के खर्राटे सुनाई पड़ रहे थे। हीरालाल जी लाठी के सहारे पिछवाड़े गये। दूर से ही उन्होंने खांसना शुरू कर दिया कि औरतें पर्दा कर लें। पिछवाड़े रखी लाश को घेर कर बैठी औरतें रोते-रोते सो गयी थीं। दीया बुझ गया था। अँधेरे में उपलों के अंगारे चमक रहे थे एक कोने में। बाकी सब धूसर-सा दिख रहा था। लाश, लाश को घेर कर सोयी हुई औरतें, पोखरा, पीपल का पेड़ , खेत, जंगल - सब धूसर अँधेरे में डूबे थे। यह क्या चमक रहा है ...? अरे ! किसी जानवर की आँखें हैं... । कई जानवरों की आँखें हैं। ये तो दूर तक फैले हैं। मरी मिट्टी की गंध इन्हें इतनी जल्दी मिल जाती है ... । अँधेरे में आँखें दिख रही हैं, शरीर नहीं...। आँखें आगे बढ़ रही हैं...। धीरे-धीरे एक साथ... । औरतें सोयी थीं। अँधेरे में चमकती आँखों की घेराबंदी नजदीक आती जा रही थी। हीरालाल जी को डर महसूस हुआ। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">''हियाँ सब सो रही हैं और जंगली जानवर घेरे आ रहे हैं। उठो सब लोग! सोना हो तो भीतर जाओ ।' -हीरालाल जी ने डांट लगायी। वे कुकुरनिंदिया सो रही थीं। सब जाग गयीं। जागते ही लाश को देखा। उन्होंने नए सिरे से रोना शुरू कर दिया। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'हाय मोर बहुरियाऽ हो!'</span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'हाय मोर करेजा!'</span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="color: blue;">एक औरत ने बुझे दीपक को फिर से जला दिया। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'हायऽ हमें कटारी मार गयी रेऽ..!' </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue;">'हायऽ हमें लैसंसी मार गयी रेऽ..!' </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> - बैन करने की होड़ मच गयी। हीरालाल जी औरतों से थोड़ी दूरी बनाकर खड़े थे। खड़े-खड़े सोच रहे थे। सबेरे हरे बांस कटवाने होंगे... । सुहागिन का कफन लाल साड़ी का होना चाहिए... । उन्हें अपनी माँ की याद आ गयी... । लाल साड़ी में लाश बंधी थी माई की... । हरे बांस की टिकठी... । वे छोटे थे। अँधेरे में आंसू बह चले उनकी आँखों से। थोड़ी ही देर में किरिया-करम के खर्च का अनुमान करने लगे और आंसू कहीं सूख गये। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;"> गुमसुम पक्षी आकाश की ओर उड़े जा रहे हैं। साँयऽ साँयऽ...! हीरालाल जी ने आकाश की ओर देखा और संतोख को पुकारा। उनकी तेज आवाज पोखरे और मकान से होकर लौट आयी। संतोख भी आ गया। पिता-पुत्र बिना कुछ बोले बाबा के पास गए। संतोख एक बाल्टी पानी ले आया कुएं से। हीरालाल जी ने देखा,बाबा जाग रहे थे। दोनों ने पैताने का बिस्तर लपेटा। मूंज की चारपाई में बाध को काट कर एक वृत्ताकार जगह बना दी गयी थी बाबा की कमर से थोड़ा नीचे। दोनों ने पहले बाबा की, फिर चारपाई की वृताकार जगह की सफाई की। इस बीच न संतोख कुछ बोला, न हीरालाल जी। संतोख को थोड़ी राहत मिली। ...अब अब तेरह दिन बिदाई तो होगी नहीं। इस बीच वह बड़ी बिटिया के लिए कलाई-मुलम्मा वाले गहनों का इंतजाम कर सकेगा। दूसरी तरफ तेरही-बरखी का खर्च। हीरालाल जी सोच रहे हैं, अभी बाबा को नचकऊबहू वाली बात न बतायी जाय... । बाबा न सिर्फ मरने से डरते हैं, बल्कि मौत की खबरों से भी उतना ही डरते हैं और इस मृत्युलोक में कोई न कोई मरता ही रहता है... । दूसरों के मरने की खबर से जब इतना परेशान होते हैं, तो यह तो घर की ही औरत थी। जब नचकऊबहू की पारी होती खाना बनाने की, बाबा उड़द की दाल जरूर बनवाते। बाबा को सबसे ज्यादा प्रिय रसाज-बग्जा तो नचकऊबहू के सिवा कोई बना ही नहीं सकता था। जब तक बाबा का मुंह वगैरह धुला कर उन्हें फिर से लेटाया गया, उजास इतना फैल चुकी थी कि लालटेन की रोशनी बेवजह लगने लगी थी।पेट साफ़ होते ही रात का प्रसंग याद आया बाबा को। बाप रे बाप...! जमपुरी के परगना हाकिम...! लाल-लाल आँखें...! बड़ी-बड़ी मूंछें ... ! एक क्षण के लिए फिर डर गए बाबा। थोड़ी ही देर में उन्हें पछतावा होने लगा। ...मति मारी गयी थी। बत्तिस आना और दे देते। दस साल की मोहलत मिल जाती... । </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">झालाफाली होते-होते हरे बांस काट लिए गए थे। बाजार से लाल साड़ी, लाल चूड़ियाँ, सिन्दूर और सिंगार के दूसरे सामान आ गए थे। खुद नचकऊ गया था बाजार। फिर गया नचकऊ... । अब कहाँ...? थोड़ी ही देर में आ गया वह अंजुरी में फूल लेकर। कुछ फूल गमछे में भी थे। हर फूल महक रहा था। अभी दिन नहीं निकला था, लेकिन चीजें साफ -साफ दिखने लगी थीं। दुआर पर एक जगह गोबर से लीप दी गयी थी। हरे बांस की टिकठी वहीँ रख दी गयी । लाल साड़ी में लिपटी लाश। नचकउना पगला गया है। दौड़कर जाता है। अंजुरी में महकते फूल ले आता है और लाश पर डाल देता है। महीने भर से उसकी मेहरारू डाक्टर को दिखाने के लिए कह रही थी। उसने सोचा था कि ब्याह-काज निपट जाए और खेत-खलिहान का काम हो जाए, तो ले जाएगा डाक्टर के पास...। फिर रुपया तो चाहिए...। रुपया संतोख भैया के पास रहता है... । क्या कह के मांगता रूपया...? इसी हाय-बिस्स में समय निकल गया। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">लोग मृतक-कर्म के जरूरी सामान सहेजने में लगे हैं। औरतों ने नचकऊ के मन की दशा को भांप लिया । अचानक औरतों की रुलाई का ऐसा आवेग उमड़ा कि आस-पास के पेड़ों पर चहचहाते पक्षी पल भर के लिए चुप हो गए। बाबा के कानों तक पहुँच गयी रुलाई। अब क्या करें...?हीरालाल जी चिंतित। अर्थी उठने के पहले जैकारे के पहले ही हीरालाल जी ने बाबा को नचकऊबहू के मरने की खबर दे दी डरते-डरते। बाबा विचलित। कांपने लगा पूरा शरीर पैरों को छोड़कर। हीरालाल जी बहुत डर गये। कुछ हो न जाय बाबू को... । </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'जब ऐसी हारी-बीमारी थी , तो हमें काहे नहीं बताया? आँय? काहे नहीं बताया? '- बाबा की बात से हीरालाल जी चकित। क्या कर लेते बाबू...? मौत को टाल सकते थे क्या...?</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">'बेकार गया। बेकार गया बत्तिस आना। हाँ। अब हम जी कर का करेंगे? का करेंगे जी कर? नचकउना नचकउना नचकउना कि गिरस्ती बिगड़ गयी... । गिरस्ती हाँ... ।'- नए सिरे से पछता रहे हैं बाबा। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">''उघन्नीऽ उघन्नीऽ दादूऽ उघन्नीऽ कहाँ है उघन्नीऽ ?'' - वे डरे हुए लग रहे थे। हीरालाल जी ने बाबा के सिरहाने रखा लोहे की चाबियों का गुच्छा उन्हें थमा दिया। बाबा ने कसकर पकड़ लिया गुच्छे को। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">''अब दस दिन दस दिन सूदक रहेगा। हाँ हाँ दस दिन। भूत-प्रेत नाचेंगे भूत-प्रेत। दिन-दुपहरिया हाँ।'' बाबा ने फिर एक बार चाबियों के गुच्छे पर पकड़ मजबूत की। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">''अब दिन में भी उघन्नीऽ मुट्ठी में पकड़ कर रखनी पड़ेगी। '' - मन में कहा बाबा ने। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">''जाओ जाओ। सहूर से सहूर से हाँ सहूर से किरिया-करम करो। बहुत फैरबक्सी नहीं।''</span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">टिकठी जा चुकी थी। कुछ फूल दालान में गिरे थे, कुछ दुआर पर। वनस्पति तेलों की गंध के भभके अब भी उठ रहे थे। मक्खियाँ उजाला होते ही भिनभिनाने लगी थीं। बाबा के पूरे शरीर पर बैठी थी मक्खियाँ। रामलली बाबा के सिरहाने खड़ी थी, लेकिन उसका ध्यान बाबा के मुंह पर बैठी मक्खियों की ओर नहीं था। पता नहीं क्या देख रही थीं उसकी सूजी हुई आँखें। बाबा की भी आँखें खुली थीं। </span></div>
<div align="justify">
<span style="color: blue;">उघन्नी को मुट्ठी में जकड़े बाबा तेरही-बरखी के खर्च का अनुमान कर रहे थे। बच्चे अन्यमनस्क खड़े थे, जहां अभी टिकठी पड़ी थी। वे धरती पर बिखरे फूलों, अधजली अगरबत्तियों और आटे की गोलियों को सहमे-सहमे देख रहे थे। </span></div>
<div align="center">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #660000;">[ 'कथादेश', अगस्त - 2007 में प्रकाशित ]</span></div>
</div>
DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5270386993970738922.post-48083802202102165432010-05-24T09:52:00.000-07:002020-04-20T09:55:08.084-07:00अंतिम उच्चारण- शिवशंकर मिश्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div align="center">
<strong style="color: #660000; font-size: x-large; text-align: left;">अंतिम उच्चारण -</strong></div>
<div align="right">
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #660000; font-weight: bold; text-align: left;"> </span><span style="background-color: white; color: blue; font-weight: bold; text-align: left;"> दस साल का हो जाने पर भी जब तीसरा लड़का बोलने की बजाय महज इशारे करता और लोगों को देख कर निर्मल हँसी हँसता, तो हरखू मिसिर को निराशा हुई। उन्हें लगा कि यह बड़े लड़के की तरह नहीं कि बम्बई से पैसा कमा कर भेजे , घर आने पर खेती के काम में हाथ बँटाये या गाँव में किसी से झगड़ा-टंटा होने पर बाप की बगल में लाठी लिये डटा रहे। एक रात नींद आने से पहले मिसिर को जंगी पाठक के भाई गूंगे पाठक की याद हो आयी। गूंगे पहलवान ने गूँगेपन और थोड़ा बहरेपन के बावजूद अपने परिवार की उन्नति में जो मदद की, गाँव में जब-तब इसके चर्चे चलते- ...कि कैसे गूंगे के रहते गांवदारी के मसलों में जंगी पाठक से लोग हमेशा दबते थे, ...कि कैसे गूंगे पाठक जब खेत में पहुँचते तो मजदूर मुस्तैदी से काम करने लगते, ...कि कैसे एक बार हाथ भर जमीन के लिए लाठियां चलीं और गूंगे शहीद हो गए... आदि-आदि। मिसिर खिल उठे। उन्हें लगा कि अगर दूध-घी की भर्ती की जाय और रियाज-पानी पर जोर दिया जाय, तो घर में जल्दी ही गूंगे पहलवान जैसा एक लठैत तैयार हो सकता है। फिर मिसिर की आँखों में पंचायतों में उनका रुख भांपते लोगों, दखल की हुई बंजर जमीन, डरे हुए मुस्तैदी से हल चलाते मजदूरों और लहलहाती फसलों के कई सपने तैर उठे। शायद इसी उत्साह में अगले दिन जब भैंस की खली और मिट्टी के तेल की खरीद के लिए मिसिर बाजार गए, तो तीसरे लड़के के लिए मारकीन का कुर्ता और चारखाने का जांघिया सिलाते आये। मिसिराइन को निर्देश दिया कि इसे थोड़ा दूध-मट्ठा दे दिया कर। यह पहली बार था, जब कि उसकी ओर ध्यान दिया गया। मिसिर दिन भर खेतों में होते या सरपंच की चौपाल में बैठ कर अपनी हैसियत पुख्ता कर रहे होते। मिसिराइन भोर से देर रात तक घरेलू धंधों में उलझी रहतीं। बड़ा बेटा बम्बई में पैसे कमा रहा होता। मझला प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाता, छुट्टी होने पर दखिनहिया माई के चौरे के पास पीपल की छाँव में गुल्ली-डंडा खेलता या कुछ अनाज झटक कर लाई-गुड और चूरन खरीदने की फिराक में इधर-उधर मंडराता रहता। छोटे को पढाई के काबिल नहीं समझा गया। ...जब बोलता ही नहीं, तो पढेगा क्या? इस तरह पढ़ाई -लिखाई के जंजाल से बचा रहा वह। बच्चों के संग खेलने का बड़ा मन होता। लेकिन उसकी उम्र के लड़के मजाक उड़ाते। छोटे बच्चे उसके संग खेलने में हिचकते, शायद डर जाते थे। वह मुंह लटका कर किसी नुक्कड़ पर खड़ा हो जाता। आते-जाते कोई दिख जाता तो फिर वही निर्मल हंसी। लोग गंभीर हो जाते, अजनबी आँखों से उसे घूरते और आगे बढ़ जाते। वह उदास हो जाता और चुपके से पड़ोस के मंदिर में घुस जाता। वहां बेडौल चिकने पत्थरों को सूंघने -चाटने और चढ़ाए हुए फूलों को इकट्ठा करने में व्यस्त हो जाता। कम ही कभी ऐसे अवसर आते, जब दोपहरी में मिसिराइन को तेल लगाने के लिए मिसिर कोठरी में बुलाते। खूब आत्मीयतापूर्वक बैठे माता-पिता के चेहरों पर एक विशेष प्रकार का मानवीय भाव दमकता रहता, जो कभी ऐसे ही अवसरों पर दिखता था। वह भी दौड़कर वहां पहुंच जाता। जल्दी ही माता-पिता दृढ़ता से उसे खेलने भेज देते। वह कहाँ जाए..? किसके संग खेले..? कोई तो नहीं खेलता उसके साथ..! मुंह लटकाए वह फिर पड़ोस के मंदिर में पहुंच जाता, जहां तरह-तरह के फूलों, चन्दन और हवन की गंध में एक अलग माहौल मिलता, जो घर के माहौल से बेहतर होता।</span></div>
</div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> छोकरा बाढ़ पर है और आगे चलकर कपड़े छोटे हो सकते हैं, इस भय से मिसिर ने अभी तक उसे नए कपड़े नहीं सिलाए थे। भाइयों के जो पुराने रंगउड़े कपड़े पहनाये गए, उनमें उसकी रूचि नहीं बनी। इस तरह उन कपड़ों के चीथड़े हमेशा मंदिर के पिछवाड़े घूर पर पाए गए। लेकिन आज नए कपड़े पहनकर वह बड़ी देर तक खुद को निहारता रहा और दरवाजे से हो कर गुजरने वालों को दिखाता रहा। नए कपड़ों की चिकनाई से बदन में गुदगुदी होने लगी। उसे लगा कि अब गर्मियों में जब बारातें सजेंगी, झैंयक-झैंयक बाजे बजेंगे और सजे-धजे पुरुष और कुछ एक बच्चे ट्रैक्टर पर सवार होकर कहीं बहुत दूर जायेंगे, मिठाइयाँ खायेंगे, तो उनके संग वह भी जा सकेगा। इस विचार से उसे इतनी खुशी हुई कि कुर्ते का दामन खींचते हुए गाँव की गलियों में दौड़ पड़ा। जो भी मिला, प्रसन्नता से 'हे हे' करके उसका ध्यान खींचा, कुर्ता दिखाया और आगे बढ़ गया। इस तरह गाँव की दो परिक्रमा हो गयी और मन की खुशी नहीं चुकी, तो नहर की ओर दौड़ गया वह। वहां बहते हरे पानी और दूर तक फैले बेतरतीब सिंवान को देखते-देखते कपड़ों की ओर से ध्यान हट गया भूख लग आयी और वह घर की ओर लौट पड़ा। नहर से गाँव की ओर जाने वाली पगडंडी के किनारे-किनारे दरारों वाली काली मिट्टी में पलाश और झरबेरी के तितर-बितर झाड़ खड़े थे। थोड़ी देर तो कुर्ते की जेब में हाथ डाले बिना कुछ देखते हुए चलता रहा वह, लेकिन जल्द ही, लगभग बीस कदम चलने के बाद, झरबेरी के झाड़ में चमकते नन्हे सिंदूरी फलों ने उसका चित्त मोह लिया। दौड़ कर वह झाड़ के निकट उकडूँ बैठ गया। उसे याद आया कि मंदिर में जब एक दिन बहुत-सी औरतों ने जल चढ़ाया था, तो कुछ विचित्र फलों, फूलों और पत्तियों के साथ ये नन्हे सिंदूरी फल भी दिखे थे। ताबड़तोड़ पांच-छः झरबेरियाँ तोड़ते-तोड़ते उंगलियों में कई कांटे चुभ गए। कांटे चुभते, तो वह कान के पास हाथ ले जाकर हिलाता, खून को कुर्ते में पोंछता और झरबेरियाँ तोड़ने-खाने लगता। दोपहर तक झरबेरियाँ खाते-खाते जब तृप्त हो गया और कुर्ता कई जगह से फट गया,तो उसके मन में एक विचार कौंध गया कि जो चीज उसको इतनी भली लगी, वह जरूर सबको भली लगेगी। फिर कुर्ते को उतार कर ढेर सारी झरबेरियों की पोटली बनायी और गाँव की ओर दौड़ पड़ा। वह झरबेरियाँ खाकर खुश होते लोगों की कल्पना कर रहा था। इस कल्पना से मन में कुछ ऐसा उल्लास उमग आया कि बरबस उसके मुंह से 'बईऽऽऽऽ बईऽऽऽऽ ' का उच्चारण फूट पड़ा। 'बेर' कहने की कोशिश में वह 'बईऽऽऽऽ बईऽऽऽऽ' चिल्लाता जा रहा था। पहला उच्चारण था यह उसका ....। दरवाजे-दरवाजे 'बईऽऽऽऽबईऽऽऽऽ' चिल्लाते हुए वह बच्चों को झरबेरियाँ बांटता रहा । बाद में बड़ी उम्र की लड़कियों और बहुओं ने भी झरबेरियाँ लूटने में उत्साह दिखाया। बहुओं के देर से भोजन बनाने या नौजवानों की आवारगी पर झींकते और माला जपते बूढ़ों को भी उसने झरबेरियाँ देनी चाहीं, लेकिन उन्होंने यह समझ कर कि छोकरा चिढ़ा रहा है, झिड़क दिया।किसी-किसी ने तो लाठी भी उठा ली। वह कुछ दूरी पर खड़ा होकर विस्मय से उन्हें देखता और चल देता.... । </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">गाँव के मंद उबाऊ जीवन में, जहाँ अतीत की छोटी-छोटी बातों का जिक्र कर के लोग ऊब मिटाते हैं, यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। बच्चों के लिए तो पूरा मेला था। उनकी पूरी पलटन उसके पीछे- पीछे गलियों में दौड़ती रही। वे उछल रहे थे और तालियाँ पीट रहे थे। नए सखा को छू रहे थे और बेर मांग रहे थे। बहुत अच्छा लग रहा था उसे। उसका सब कुछ बच्चों को अच्छा लग रहा था आज। भरा-पूरा स्वस्थ शरीर, छोटे-छोटे खड़े बाल,गेहुंआ रंग, शरीर पर भूरे चकत्ते, सदा खुले रहने वाले होठों से बहता लिसलिसा पदार्थ, निर्मल खिलखिलाहट,आँखों में सहज जिज्ञासा और आत्मीयता की चमक, उच्चारण की विफल चेष्टा और सफल संकेत-बच्चों का मन मोह रहा था यह सब। अब तक उसके पिता ने उसका कोई नाम नहीं रखा था। वह घर में सबसे छोटा था, लिहाजा उसको सब छोटका कहते थे। यही उसका नाम था। लेकिन छोटे बच्चों को अपनी उम्र से बड़े सखा को 'छोटका' कहना शायद उचित नहीं लगा। उन्होंने उसके प्रथम उच्चारण को ही उसका नाम मान लिया और उसे 'बई' कहना शुरू कर दिया। बाद में पूरे गाँव ने इस संज्ञा को स्वीकार कर लिया। बई के लिए अपूर्व उल्लास का दिन था वह। घर के अकेलेपन से उबरकर पहली बार वह गाँव के जीवन में शामिल हो गया था- अपने ढंग से। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> साँझ हो रही थी। आकाश में पक्षियों के काफिले उत्तर की ओर उड़े जा रहे थे।सिंवान से लौटते पशुओं के खुरों से धूल उड़ रही थी गाँव की गलियों में। अँधेरा चुपचाप पसर रहा था। बई की टांगों और आँखों में कच्ची जामुन-सी कसैली थकान महसूस हुई। घर की ओर लौट पड़ा वह- फटे कुर्ते की पोटली में थोड़ी झरबेरियाँ लिए हुए। उसे पूरा विश्वास था कि माई झरबेरियाँ पाकर बहुत खुश होगी। आंगन में ढिबरी जलाती मिसिराइन छोकरे की वजह से होने वाली जगहँसाई से वैसे ही काफी गुस्से में थीं और जब नए कुर्ते की यह गत देखी, तो लाल भभूका हो गयीं।कान उमेठते हुए उसकी पीठ और गाल पर दो-तीन हाथ जड़ दिये उन्होंने और देर तक बड़बड़ाती रहीं, जिसका सारांश यह था कि अभी क्या पिटाई हुई है, बाप के आने पर असली कुटम्मस होगी। डर के मारे वह भीतर कोठरी में दुबक कर बैठ गया, जहां कुछ देर में मिसिराइन ने दीवार के बिलके में जलती हुई ढिबरी रख दी। पहले तो वह बाप के आने का इन्तजार करता रहा -सहमा हुआ, लेकिन जब मिसिर देर तक नहीं आये तो डर-भय भूलकर ढिबरी की सिंदूरी लौ और धुंए को देखने में डूब गया। वह हल्के-हल्के फूंक मारता, ढिबरी की लौ कांपती, फिर स्थिर हो जाती कोठरी को आलोकित करते हुए।मजा मिल रहा था उसे। एक बार फूंक तेज हो गयी, ढिबरी बुझ गयी। अंधेरी कोठरी में ऊबने लगा वह । कुछ देर में प्यास महसूस हुई। माई गुस्से में थी। ...पानी कैसे मांगे ? ...क्या करे? अचानक एक जुगत सूझी.... । अँधेरे में उसने ढिबरी टटोली। मिट्टी का तेल मुंह में जाते ही उसका जी मिचलाने लगा और उल्टियां शुरू हो गयीं। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> गोधूली बीत चुकी थी। पीपल के पीछे पूर्णिमा का चाँद झाँकने लगा था, जब मिसिर सरपंच के यहाँ से बैठकबाजी करके लौटे। वे बहुत खुश थे। ख़ुशी की बात यह थी कि हरिजन बस्ती में डाका डालने की जिम्मेदारी सरपंच ने मुख्य रूप से मिसिर को ही सौंपी थी, जिसमें सवर्ण परिवारों के और भी लठैत शामिल थे । मिसिर को यह बिलकुल उचित लगा कि अगर इन सालों को लतियाया नहीं गया,तो फिर कलट्टर के यहाँ बंधुआ मजदूरी के खिलाफ दरखास भेजेंगे। लेखपाल जांच करने आयेगा और बेमतलब घूस देना पड़ेगा।शायद इसी ख़ुशी में हाथ नहीं उठाया मिसिर ने। या इस वजह से भी, कि उनके पहुंचने पर बई का चेहरा घिन से विकृत हो रहा था। बुरी तरह उल्टी कर रहा था वह। या इस वजह से कि मिसिराइन उसका सिर सहलाते हुए मिसिर को बरज रही थीं कि खुद अपनी करनी से मर रहा है, मार-पिटाई मत करो। पिटाई के लिए हाथ तो नहीं उठाया मिसिर ने, लेकिन गुस्से में बार-बार आँगन से दरवाजे तक चक्कर लगाते रहे। दांत पीसते हुए बड़बड़ाते रहे कि साला पिछले जनम का मुद्दई है, जिसने बदला लेने के लिए औतार लिया है... आदि-आदि। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> इस तरह बई गाँव का चर्चित छोकरा हो गया। काम-काज से फुर्सत हो कर लोग गांवदारी के गंभीर मसलों पर बातें करते और जब ऊबने लगते तो उसकी नित नयी वारदातों के चर्चे चलाते। गाँव के किसी भी टोले के बच्चों के खेल और बालकलह में उसे सहज प्रवेश मिल गया था। सांझ को जब बुजुर्ग जम्हाइयां लेते हुए बातें करते और घरों के भीतर औरतें खाना बना रही होतीं, तो बच्चे घुटपहला खेलते। वे बई को आँख मूंदने को कहते। वह आँख बंद कर लेता। बच्चे गीत गाते -</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">' सिल फूटे सिलौटी फूटे </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">देखन वाले की आंखी फूटे... ।'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> फिर बच्चे खंडहरों में छिप जाते। बई उन्हें खोजने और छू लेने के लिए इधर-उधर छापे मारता। अब वह रोज नए-नए शब्द बोलने की विफल कोशिश करता। कभी बच्चे बई के नेतृत्व में आकाश में उड़ते पंछी जैसे जहाजों को देखते। फेरी वालों की अजीब बेरस आवाजों या आइसक्रीम वालों के भोंपू सुन कर वे गाँव की सरहद तक उनका पीछा करते। कभी घर में कलह करके दरवाजे पर बैठे गंभीर, चिंतित लोगों को वे कौतूहल से घूरते और तालियाँ बजाते हुए भाग जाते । </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;">एक <span style="font-family: "arial";"> दिन पासियों के टोले में बारात आयी। </span></span></span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: blue; font-family: "arial";">दिन ढलते-ढलते बीन और ढोलक के संगीत के साथ-साथ आग में भुनते सुअर की चिघ्घाड़ पूरे गाँव में सुनाई पड़ने लगी। सवर्ण घरों के बच्चों को उनके माता-पिता ने वहां जाने की अनुमति नहीं दी। बच्चे रोते रहे। लुकते-छिपते कुछ बच्चे बई के साथ वहां जा पहुंचे। सुअर के पैर बंधे थे। गुदामार्ग में जलती हुई सलाख डाल कर आग की लपटों में पकाया जा रहा था उसे।बच्चे बुरी तरह डर कर भाग गये। कुछ देर में सुअर शांत हो गया...। बीन बज रही थी। ढोलक पर थाप पड़ रही थी। पता नहीं क्या जादू था उस संगीत में कि बच्चे डर-भय भूल कर फिर आ गये। बारातियों को पहले मिर्चवांग [ गुड़ और काली मिर्च का शरबत ] पिलाया गया, फिर महुए की शराब। थोड़ी देर में मशालें जलीं और चमन्नचवा शुरू हो गया - बिना मंच के। नकली घोड़े पर सवार एक आदमी मिर्जा बन कर आ गया - हाथ में चाबुक लिए। वह अपने पैरों पर चलता था, लेकिन बच्चों को लगता, घोड़ा नाच रहा है। पीछे-पीछे सुमांगी नाचता- कागज की लम्बी टोपी लगाये हुए। पखावज और सतावर बजते। बीच-बीच में अचानक मिर्जा चाबुक फटकारता, बाजे बंद हो जाते और सुमांगी तरह-तरह के चुहल करता। इसी बीच मिर्जा ने एक बार चाबुक फटकारा, बाजे बंद हो गए। मिर्जा कड़क कर बोला- </span></div>
<div align="center" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue; font-family: "arial";">'सुमांगी!' </span></div>
<div align="center" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue; font-family: "arial";">'जी सरकार !'</span></div>
<div align="center" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue; font-family: "arial";">'एक गधा ले आओ! '</span></div>
<div align="center" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue; font-family: "arial";">' हजूर अब गधे नहीं मिलते! '</span></div>
<div align="center" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue; font-family: "arial";">' क्यों ?'</span></div>
<div align="center" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;"><span style="font-family: "arial";">'अब सारे </span><span style="font-family: "arial";">गधे नेता हो गए </span><span style="font-family: "arial";">सरकार!'</span></span></span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<div style="text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue; font-family: "arial";">लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो रहे थे। </span></div>
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;"><span style="font-family: "arial";">बच्चों के लिए तो यह बिलकुल नया तमाशा था। देर रात तक वे आँखें फाड़े वहीँ डटे रहे। इस बीच सभी बच्चों के बाप,चाचा या बड़े भाई आये। वे बच्चों को डांटते-पीटते घर ले गए। बई के लिए कोई नहीं आया। हरखू कहीं गाँव से बाहर गये थे। मिसिराइन पासियों के टोले में जा नहीं सकती थीं। आधी रात को खाने- पीने के लिए पंगत बैठी तो बई भी एक किनारे बैठ गया। बारात और घरात के लोग नशे में चूर थे। वे भावुक हो रहे थे। कोई हँस रहा था। कोई रो रहा था। पहले तो बाँभन के लड़के को खाना खिलाने में संकोच किया उन्होंने, लेकिन बई के हाथ पसार देने पर द्रवित हो उठे। दो-एक निवाले गले के नीचे उतरते ही उसे उबकाइयां आने लगीं। फिर तो भीतर का सारा माल बाहर-मूल ब्याज समेत। बारातियों का सारा मजा किरकिरा हो गया। डांटकर भगा दिया उन्होंने उसे। वह अँधेरी गलियों में भागा जा रहा था, लड़खड़ाते हुए। गलियों में सोये कुत्ते जाग गए और भौंकने लगे। कुछ देर भौंकते रहे। फिर अपना दायित्व निभा कर सो गए। दूसरे दिन पूरे गाँव में यह खबर बिजली की तरह फैल गयी। अक्सर लोग यह चर्चा करते पाए गए कि बइअवा साला तो पगलेट है ही, लेकिन हरखू मिसिर को क्या कहा जाय? उन्हें निगरानी नहीं करनी चाहिए? साला पासियों के यहाँ भच्छाभच्छ खा आया। बड़े कर्मकांडी बनते हैं। आखिर जिस बर्तन में बइअवा खायेगा, उसी में तो खायेंगे। भला बोलो </span>अब हरखू के घर खाने पीने लायक है? इस तरह खासा बात का बतंगड़ बन गया। बात मिसिर के कान तक पहुँच गयी। उन्हें गांवदारी, न्योता-ब्याह और जजमानी का भी संकट दिखाई पड़ा। उन्होंने जमकर बई की धुनाई की और थाली पीटते हुए पूरे गाँव में ऐलान किया कि पंचों, अब हमें इस कुजात से कुछ लेना-देना नहीं और न आज से इसे हम अपने बर्तन में खिलाएंगे। घर लौटकर उन्होंने मिसिराइन को ख़बरदार किया कि आज से यह पम्पूसेट पर रहेगा। रेंड़ के पत्ते पर खाना परोस देना। अंजुरी से पानी पिला देना। ध्यान देना कि घर में घुसने न पाए और इसे छूना मत। ...बहुत कोशिश के बाद भी यह माजरा बई की समझ में नहीं आया। घर में घुसना चाहता, तो पिता लाठी लेकर दौड़ा लेते। अब भी वह गाँव में घूमता। बच्चों के संग खेलना चाहता, बच्चे भी उसके साथ खेलना चाहते, लेकिन ज्यों ही सवर्ण टोले का कोई बड़ा-बुजुर्ग उसे देख लेता, डांटकर भगा देता और सारी घृणा धरती पर थूककर पवित्र हो लेता। सबने अपने-अपने बच्चों को उसके साथ खेलने और उसे छूने की मनाही कर दी थी। पम्पिंगसेट पर कोई बच्चा नहीं जाता था। गाँव से बहुत दूर था पम्पिंगसेट बिना बच्चों के संग खेले वह रह नहीं पाता था। अक्सर वहां पिता उपस्थित होते थे। पिता की उपस्थिति आतंकित करती थी। हरखू पूरी तरह निराश और उदासीन हो गए थे उसकी तरफ से। </span></span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">गाँव से हटकर दक्खिन की ओर हरिजन बस्ती थी। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">अब उसका सारा समय वहीं बीतता। कोई बाधा नहीं थी वहां... । बच्चों के संग घुटपहला और गुल्ली-डंडा खेलता। बच्चों को छू लेता और निर्मल हँसी हँसता। पानी की कोई कमी नहीं थी। भूख लगने पर दिक्कत होती। सांझ होते-होते थके-हारे स्त्री-पुरुष खेतों से मजदूरी करके लौटते-पोटली में दिन भर की मेहनत का मोल बांधे हुए। झोपड़ों के ऊपर धुंआ उठता। अपने-अपने भाग का कुछ खाना वे बई को दे देते। वह चपड़ी मटर की रोटियों को एकत्र करता और खा लेता। जब अन्न से शरीर में कुछ शक्ति का संचार होता, तो हर झोपड़े के सामने जा कर खिलखिलाता। शायद आभार व्यक्त करता इस तरह। कभी-कभी बस्ती के झोपड़ों के ऊपर धुंआ नहीं उठता था। भूख से बिलबिला उठता वह, तो देर रात को दबे पाँव सवर्ण टोले में प्रवेश करता। घर के पिछवाड़े की सांकल धीरे से खटखटाता। हरखू पम्पिंग्सेट की रखवाली के लिए खेत के किनारे बने झोपड़े में होते। माई धीरे से सांकल खोलती। रेंड़ के पत्ते पर भात और नमक रख देती। वह खाने लगता-सड़प-सड़प। माई लोटे से पानी की धार गिराती। वह अंजुरी से पी लेता। तृप्त होने पर माई को देख कर खिलखिलाता। माई डांट देती-</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'चुप नासपीटे, करमजले! कोई सुन लेगा तो सांसत हो जाएगी सारे परिवार की।'</span><br />
<span style="background-color: white; color: blue;"> फिर वह भाग जाता हरिजन बस्ती में। भूख के सिवा कोई बाधा नहीं थी उसके लिए वहां। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">तीन साल बीत गए इसी तरह। बहुत कुछ सीख-समझ लिया उसने इस बीच। जांघिये का नाड़ा बांधना सीख लिया, जो सबसे मुश्किल कम था उसके लिए। जाड़े की ठिठुरन भरी रातों में आग, पुआल और कपड़ों से आदमी का रिश्ता समझ लिया। गर्मी की तपती दोपहरियों में पानी और छाँव से जिन्दगी का नाता समझ लिया। दाना-पानी और बच्चों के संग खेले बिना नहीं रहा जा सकता, यह भी समझ लिया। अब भी वह कभी-कभी देर रात को दबे पाँव सवर्ण टोले में घुसता। कुत्ते सो रहे होते। वह धीरे से कुंडी खटखटाता। माई किवाड़ खोलती। रेंड़ के पत्ते पर बचा-खुचा खाना परोस देती। लोटे से पानी की धार गिराती। अंजुरी से पानी पी लेता वह पहले की तरह। कभी-कभी माई बड़े या मझले भाई का कोई पुराना कपड़ा दे देती। अब वह उनके चीथड़े नहीं करता था, फिर भी बहुत कुछ ऐसा था, जो नहीं सीख -समझ सका था वह। सवर्ण टोले के लोग उसे छूते क्यों नहीं? बापू उसे घर में घुसने क्यों नहीं देते? माई रेंड़ के पत्ते पर खाना क्यों देती है? थाली में क्यों नहीं? उसे अंजुरी से पानी क्यों पीना पड़ता है? बड़ी कोशिश के बाद भी ये बातें बिल्कुल समझ में नहीं आयी थीं । एक अजीब परिवर्तन हो गया था उसके अन्दर। खिलखिलाती लड़कियाँ बहुत सुन्दर लगतीं, हर चीज से सुन्दर। हंसते-खेलते लड़के-लड़कियाँ किसी झाड़ , झोपड़ी या अरहर के खेत में छिप जाते । उसका बहुत मन होता कि कोई खिलखिलाती लड़की उसके संग खेले...। फिर वह भी छिप जाय कहीं उसे लेकर...। उसकी सूरत और बेवकूफियों को देख कर चंपा खूब हंसती। बई को बहुत अच्छा लगता। चंपा के काले-कलूटे गालों में पकी झरबेरी-जैसी चमक उग आती। वह खिलखिलाती तो सांवले होंठ और उजले दांतों के बीच एक जादू कौंध जाता। अजीब सम्मोहन ! भूख लगने पर रोटी, प्यास लगने पर पानी, पेट भरा होने पर फूल जितने सुन्दर लगते, उससे भी सुन्दर और आकर्षक था वह जादू ! उससे रहा नहीं गया। एक दिन उसने चम्पा के गाल छू लिए 'तड़ -तड़ ' दो झापड़ जड़ दिए चंपा ने उसके गालों पर। यह छुअन अच्छी लगी उसे... । बहुत अच्छी... । लेकिन एक बात समझ में नहीं आयी। चंपा के चहरे पर घृणा का भाव...? वह बोली-</span><br />
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'पहले ऐना में अपनी सूरत तो निहार ले।' </span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">वह तुरंत समझ गया कि जब तक ऐना में अपनी सूरत नहीं देखेगा, </span></div>
<span style="background-color: white; color: blue;">चंपा उसे छूने नहीं देगी। भूख-प्यास से मोहलत मिलती तो आइने की तलाश में जुट जाता। एक दिन बिसाती आया - साइकिल के आगे-पीछे फीते, चोटियाँ, सोने की-सी दिखती अंगूठियाँ, मोती की-सी चमकती मालाएं, रिबन और पता नहीं क्या-क्या लटकाए। लड़कियों, बहुओं का मेला लग गया उसके चारों ओर । बई ने देखा कि उसके पास छोटे-बड़े कई तरह के आइने हैं। वह दौड़ कर बिसाती के पास पहुँच गया। लड़कियाँ हँस पड़ीं उसे देख कर। बई ने महसूस किया कि निश्चय ही उसका यहाँ आना सब को अच्छा लगा। आत्मीयता की चमक से दीप्त आँखों और निर्मल मुस्कान से आभार व्यक्त किया उसने सब के प्रति। फिर इशारों से आइना माँगा बिसाती से। बिसाती ने आइनों के मोल बता दिए - </span><br />
<span style="background-color: white; color: blue;">'छोटा ऐना दो रुपैया। उससे बड़ा तीन रुपैया। सबसे बड़ा पांच रुपैया। कौन-सा चाहिए ?' </span><br />
<div style="text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> बई ने बड़े आइने की ओर इशारा किया। </span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> 'तो पांच रुपैया निकालो !' </span></div>
<span style="background-color: white; color: blue;">वह सोच में डूब गया... । रुपैया...? ...ऐना रुपैया से मिलता है ? ...चंपा के गाल छूने के लिए पहले ऐना में मुंह निहारना होगा। ...ऐना रुपैया देने पर मिलेगा। ...रुपैया कहाँ मिलेगा...? कैसे बनाया जाता है रुपैया? बहुत कठिन काम लगा यह उसे। उसने चकित हो कर बिसाती की ओर देखा। ...कैसा आदमी है यह? ...इतने सारे ऐना हैं इसके पास। ...एक ऐना दे नहीं सकता? ...उसके पास एक भी ऐना होता,तो बारी-बारी से पूरे गाँव को दे देता। हर आदमी ऐना में अपनी सूरत निहार लेता और लड़कियों के गाल छू लेता । बहुत उदास हो गया वह और धीरे-धीरे सिर झुकाए लौट पड़ा...। लड़कियाँ हंसने लगीं। उसने मुड़कर अचरज से उन्हें देखा। इस हँसी का अर्थ उसकी समझ में नहीं आया...। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<div style="text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> असाढ़ के दिन थे। खूब पानी बरस चुका था।</span></div>
<span style="background-color: white; color: blue;"> पेड़-वृक्ष सब धुलकर और भी तरो-ताजा लग रहे थे। कहीं डौल न बैठने से खूब भूख लग आयी थी बई को। वह इधर-उधर मंडरा रहा था-भूख से विकल...। सैयद पांड़े के खेत में ककड़ी की काफी अच्छी उपज हुई थी इस साल। उनका नाम सियादत्त पांड़े था। लोग ऊब मिटने और मजा लेने के लिए सैयद पांड़े कहते थे। बाद में यही नाम लोकप्रिय हो गया। गर्मी में पांड़े ककड़ियां तोड़ कर बाजार ले जाते। पैसे मिलते। बरसात आने पर ककड़ियां कम फलतीं। जो फलतीं, कड़ी और मोटी हो जातीं। उनके पैसे न मिलते। कोई खरीदता नहीं था। पैसे न मिलें, न सही । बच्चे खायेंगे इस इरादे से उन्होंने ककड़ी की फसल नहीं उजाड़ी थी। लगभग दस बिस्वा खेत में ककड़ी की पियराई विरल लताएँ छ्छ्ड़ी हुई थीं। बीच-बीच में कुछ एक बड़ी ककड़ियां चमक रही थीं। बई को यह सब बहुत भाया...। अभी वह नहीं समझ सका था कि हवा, बारिश, धूप-छाँव, सूरज-चाँद और तारों की तरह धरती सब की नहीं होती। वह टुकड़ों में बँटी होती है। टुकड़ों पर अलग-अलग लोगों का मालिकाना होता है, सब का नहीं। खेतों में उगी फसल और पेड़ों में लगे फल सब के नहीं होते। उससे नहीं रहा गया...। खेत में कूदकर ककड़ियां खाने लगा। तृप्त होने पर भी ताजा नहायी लताओं का सौन्दर्य और ककड़ी का स्वाद लुभाता रहा। उस सौन्दर्य और स्वाद को सार्वजनिक करने का बरबस मन हो आया उसका। ककड़ी खा कर खुश होते बच्चों की कल्पना करके वह इतना प्रसन्न हुआ कि 'ककई-ककई' का उच्चारण फूट पड़ा मुंह से। तार-तार हुए कुरते की पोटली में ककड़ियां भरता, 'ककई-ककई' चिल्लाता और बच्चों में बाँट आता। बच्चे खुश होते। वह खिल उठता... । पोटली की ककड़ियां ख़त्म होतीं, तो फिर तोड़ लाता। पहले तो हरिजन बस्ती में ककड़ियां बांटता रहा, फिर उसे लगा कि उस परम स्वाद से कोई वंचित न रह जाय। इस तरह उल्लास के अतिरेक में सारी मूमानियत और मर्यादा भूल कर सवर्ण टोले में भी जा पहुंचा। पुरुष खेतों में थे। कोई जुताई करवा रहा था। कोई धान की रोपाई करा रहा था। बच्चों ने बहुत दिनों के बाद सखा को पाया, वह भी ककड़ियों के साथ। उन सब ने ककड़ियां खायीं। खुश हुए... ।वह खिलखिला रहा था...। होठों और नाक से बहता लिसलिसा पदार्थ ठोढ़ी पर आ रहा था। मानो भीतर का उल्लास छलक रहा हो। घर-घर ककड़ी बाँटते हुए सैयद पांड़े के भी घर जा पहुंचा वह। कुंडी खटखटायी। पंड़ाइन ने दरवाजा खोला। खिलखिलाते हुए ककड़ियों की पोटली पसार दी उसने पंड़ाइन के सामने...। पंड़ाइन को मामला समझते देर नहीं लगी। पूरे गाँव में केवल उन्हीं के खेत में ककड़ी की फसल हुई थी उस साल। वे आगबबूला हो उठीं। पिछले चार साल से उन्हें कुछ मनोरोग थे शायद। बात करते-करते बेवजह झगड़ने लगती थीं। पांड़े के खेतों में वैसी ही उपज होती, जैसे दूसरों के खेतों में, लेकिन पंड़ाइन इस बात पर कुढ़ती रहतीं कि उनके खेतों में अच्छत भी नहीं निकलता। गुजारा कैसे होगा...? उनके लड़के हृष्ट-पुष्ट थे। लेकिन उन्हें फ़िक्र बनी रहती कि उनके लड़के दिन पर दिन दुबले होते जा रहे हैं। बड़ी बहू आये अभी तीन साल ही हुए थे, लेकिन उन्हें यह भी उलझन रहती कि यह मुंहझौंसी बाँझ उन्हीं के लड़के की किस्मत में थी...। पूरे गाँव के बारे में दुश्मन होने का शक था उन्हें...। लेकिन चूंकि वे घर की सार-सँभार ठीक से करती थीं और चिंता करती थीं, तो अपनी सम्पत्ति, अपने पति और अपनी संतानों की, इसलिए गाँव में मनोरोगी के रूप में स्वीकृत नहीं हुई थीं। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<div style="text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> यह घटना मथती रही उन्हें। ...छोकरे की ढिठाई तो देखो कि </span></div>
<span style="background-color: white; color: blue;">मेरे ही खेत की ककड़ी तोड़ी और मुझे ही चिढ़ाने आ गया। ...ऊपर से हँस भी रहा है। आज ककड़ी तोड़ रहा है, कल डकैती भी कर सकता है। ...धान पकेंगे। ...खलिहान गाँव से बाहर ही रहेगा। ...आग भी लगा सकता है खलिहान में। ...बच्चे दिन भर इधर-उधर टहलते रहते हैं। ...गला भी दबा सकता है उनका। ...जरूर इसमें उसके माई-बाप का भी हाथ रहा होगा। नहीं तो उसकी ऐसी मजाल कि मेरी ही ककड़ी तोड़ कर मेरे ही घर आ गया कि लो ककड़ी खा लो और करेजा तर कर लो। आपे से बाहर हो गयीं पंड़ाइन। पूरे शरीर में क्रोध की लहर उठने लगी । दिन ढलने में अभी कुछ देर थी, जब वे उलाहना देने पहुँच गयीं हरखू के दरवाजे। मिसिराइन ने बहुत समझाया की छोकरा पागल है। लेकिन पंड़ाइन की समझ में बात आयी नहीं । </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'पागल है कि बौरहा। हम नहीं जानते। तुम्हें मना नहीं करना चाहिए। </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">बिना तुम्हारी मर्जी के इतना बड़ा कांड कर डाला उसने ? आंय ?'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">' अरे पंड़ाइन ककड़ी ही तोड़ी है, किसी की मूड़ी तो नहीं </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">मरोड़ दी। बेमतलब की बात हमें नहीं अच्छी लगती। '</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'क्या कहा ? बेमतलब की बात है यह ? मूड़ी </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">मरोरेगा तो टेंटुआ नहीं दबा देंगे हम उसका ?'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">दोनों महिलाएं गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने लगीं । </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">कोई किसी की सुनने को तैयार ही नहीं था। ताने-तिश्ने बढ़ते गये। </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">' तेरा भतार मरे। तू रांड़ हो जा।'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'मेरा काहे ? तेरा भतार मरे । तेरा पूत मरे। '</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">पंड़ाइन क्रोध में काँप रही थीं -</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> 'तेरा झोंटा उखाड़ लूंगी डाइन !'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">वे लिपट गयीं मिसिराइन से। अन्य महिलाएं और बच्चे तटस्थ</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> प्रेक्षक के रूप में खड़े थे। पुरुष खेतों में थे। कुछ बूढ़े, जो काम पर नहीं जा सकते थे, लाठी का सहारा लेकर आ गये थे। दोनों महिलाएं गुत्थम-गुत्था...।इसी बीच पंड़ाइन की धोती की गांठ खुल गयी। किफायतशारी के चलते पेटीकोट पहनती नहीं थीं। बेपर्द हो गयीं वे। मामला संगीन हो गया...। अपमानित पंड़ाइन घर चली गयीं। अपने ही बाल नोचने लगीं।वे काँप रही थीं। सिर पटक रही थीं और गला फाड़ कर चिल्ला रही थीं । बच्चे धोती दे रहे थे - </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'माई धोती पहन ले। चुप हो जा।' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">लेकिन वे चुप न हुईं।</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'हटा ले धोती। आज खून पी के रहूंगी इस डाइन का, तभी धोती </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">पहनूंगी। चोरी, ऊपर से सीनाजोरी ...? मजाल तो देखो रांड़ की !'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">सैयद धान की रोपनी करा कर लौट रहे थे। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">रास्ते में ही सारा मामला मिर्च-मसाले के साथ सुन लिया था उन्होंने। घर पहुँच कर मेहरारू का यह हाल देखा, तो संयम खो बैठे। फौरन तमंचा निकाला। कारतूस भरा। कुछ कारतूस कमर में खोंस लिए और पहुँच गये हरखू के घर। हरखू धान की रोपनी करा कर लौटे थे। थके हुए लेटे थे चारपाई पर। सैयद ने ललकारा - 'निकाल अपनी मेहरारू को घर से। आज इसे नंगी नचाएंगे पूरे गाँव में। एक तो तेरे लडके ने ककड़ी तोड़ी, ऊपर से तुम्हारी मेहरारू ने नंगी कर दिया मेरी जोरू को सारे गाँव के सामने। निकाल डाइन को। आज मजा चखाऊंगा।' </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">हरखू ने सैयद के हाथ में तमंचा देखा। वे तुरंत सजुक हो गए। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">सिर में फेंटा बांध लिया और लाठी उठा ली। बोले- </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'देखो सैयद ! मेरा छोकरा पागल है। ससुरे को हमने घर से भी निकाल दिया है।</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">फिर ककड़ी तोड़ी तो कोई हीरा-मोती तो तोड़ नहीं लिया? रही मेहरारू कीबात तो मेहरारू </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">जानें। हमसे बात करनी है तो जबान सम्हाल कर बात करो, नहीं तो जीभ खींच लूंगा हाँ !'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">दोनों ओर से वीरोचित बातें होती रहीं। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">सारा गाँव इकट्ठा हो गया था। हरखू ने सोचा कि हाथ पर लाठी मारकर तमंचा छीन लें। उन्होंने लाठी तानी, तब तक ''धाँयऽऽऽ...!'' हरखू वीरगति को प्राप्त हुए.... । चहचहाते पक्षी उड़ गये। सिंवान से लौटते पशु इधर-उधर भागने लगे। तमाशबीन भाग गए। तमाशबीनों में बई भी खड़ा था। वह कुछ भी नहीं समझ पाया । बापू की लाश के पास खड़ा हो गया। हरखू का बेजान जिस्म धरती पर पड़ा था। सिर छितरा गया था। खून के फौव्वारे निकल रहे थे। बापू की लाश के पास माई छाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थी। बापू की यह दुर्दशा देख कर या माई का विलाप सुनकर या पता नहीं किस कारण सेअचानक बई चीख पड़ा- 'हू...' और गाँव से बाहर भाग गया। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">कई दिनों तक गाँव में सन्नाटा रहा। सैयद गाँव छोड़कर भाग गये। पुलिस ने उनके घर कुर्की कर डाली थी। दिन भर कौए मंडराते। सांझ को दक्खिन के पोखरे में बनमुर्गियाँ चहकतीं । रात को सियार बोलते । कुत्ते रोते। लोगों का कहना था कि यह सब भयानक अपशकुन है। कई दिनों तक शौच-मैदान के सिवा लोग घरों से बाहर नहीं निकले। घरों में रात भर दीये जलाए जाते। सोते बच्चे रातों को अचानक चीख पड़ते। रात भर स्त्रियाँ पतियों से चिपकी रहतीं। कहीं किसी से भेंट होने पर लोग एक-दूसरे का रुख भांपते, फिर सम्हल कर फुसुर-फुसुर बातें करते -</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'बाल्हा रे! ऐसा इस्टीडन्ट? '</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'महराज सोनबरसा में ऐसा कब्भी नहीं हुआ ।' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'ई बइअवा साला महाकारनी लौंडा है। चाहे जो करा दे।' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'क्या कहा पुलुस ?'</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'भागो महराज पुलुस का क्या भरोसा? '</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'पता नहीं ससुरे क्या बात-बेबात पूछें ।' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">मृतक संस्कार हो चुका था। दसवें दिन </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">होने वाली शुध्दि और तेरहवें दिन होने वाले भोज सम्बन्धी कर्म-कांड अभी बाकी थे। हरखू का बड़ा लड़का बम्बई से आ गया था। सैयद अदालत में हाजिर हो चुके थे। गाँव का जनजीवन अभी सामान्य नहीं हो पाया था कि एक दिन गाँव वालों ने उसे देखा। उसने शायद किसी को नहीं देखा... । सूरज निकलने में देर थी। उजाला फैल चुका था। आकाश में कौओं के झुण्ड दक्खिन की ओर जा चुके थे। गाँव के नर-नारी, बच्चे-बूढ़े पेट साफ करने और पगडंडियों को गन्दी करने की गरज से गाँव से बाहर निकल रहे थे। प्रथम दृष्टि शास्त्री जी की पड़ी। देश के एक पूर्व प्रधानमन्त्री की तरह ठिगने होने की वजह से लोगों ने उन्हें यह उपाधि दे दी थी। शास्त्री जी ने उपाधि की मर्यादा के अनुसार निरंतर तालव्य 'श' बोलने का अभ्यास कर लिया था। तुरंत उनहोंने सारी सुर्ती थूक दी। नाक पर गमछा रख लिया और बुदबुदाये -</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> 'राम-राम ! महा अशुभ! पितरघाती!' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">नौरंगी बहू के पेट में मरोड़ थी। लेकिन </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">वह भी पल भर के लिए ठिठक गयी- 'पिच्च'। सारी घृणा थूककर वह आगे बढ़ गयी। लगभग इसी तरह सबने उसे देखा।उसने किसी को नहीं देखा। 'माई' कहने की विफल चेष्टा में 'बाँईऽऽबाँईऽऽ!' चिल्लाता चला जा रहा था वह। खेतों की मेड़ों पर लड़खड़ाता,सम्हलता, फिर वेग से चल देता। जिस समय उसने गाँव में प्रवेश किया, बछड़े रस्सी तोड़ डालने की कोशिश में कुलांचे भर रहे थे। गायों के थनों में दूध की उत्तेजना भर गयी थी। ...लेकिन वह इन सबसे बेखबर था। बस 'बाँईऽऽ बाँईऽऽ' चिल्लाता चला जा रहा था। सुबह की नम हवा, चिड़ियों की चहचह और गाँव की अलसायी शांति को उसकी चीत्कार नुकसान पहुंचा रही थी। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<div style="text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">गाँव के बाहर उत्तर की ओर बंदरहिया बारी है। बंदरहिया बारी में </span></div>
<span style="background-color: white; color: blue;">न तो बन्दर हैं,न बारी। शायद कभी बन्दर भी रहे हों और बारी भी। अब तो केवल नीम, बबूल,गूलर और पीपल के कुछ पेड़ बचे हैं। झाड़-झंखाड़ । कम ही कोई उधर जाता है। भागते-भागते वहीँ गिर पड़ा था बई। दिमाग बिल्कुल सन्न ... । एक गहरा अँधेरा दिमाग में भरता जा रहा था। उस अँधेरे में कुछ भी नहीं दिख रहा था। कुछ देखने, करने, सुनने, बोलने की इच्छा भी नहीं महसूस हो रही थी ... ।</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">आराम... । बहुत आराम मिल रहा था... । तन-मन पूरी तरह ढीला ... । अनंत विश्राम... । वह अचेत हो गया... । कई दिन, कई रात वह इसी तरह पड़ा रहा... । कभी सूरज की किरणें या बारिश की तेज बौछारें जगा देतीं। भूख-प्यास की अवश प्रेरणा से वह इधर-उधर टहलता, लड़खड़ाते हुए। पीपल के फल, निबोली, बबूल की पत्तियां - जो भी मिल जाता, खा लेता। धरती के गड्ढों में जगह-जगह बरसाती पानी भर गया था। पानी में कुंजीबेरा के दूधिया रंग वाले फूल खिल गये थे... । वह पानी पी लेता। कुछ देर कुंजीबेरा के फूलों को निहारता... । फिर सो जाता...। दिन में चील, कौए और गीध मंडराते। रातों में मेढक और झींगुर बोलते। सियार 'हुआ-हुआ' करते। तरह-तरह के जलजीव और वन्यजीव निकलते। वे उसे सूंघते-चाटते। चलती हुई सांस को महसूस करते। उसके जिस्म में कोई हरकत न होती। उसकी निर्भय अहिंसा पर वे चकित होते और अपनी राह चले जाते, बिना कोई नुकसान पहुँचाये। कभी-कभी नींद खुलने पर बड़ी मुश्किल होती उसे। सोनबरसा के पास ही सोहागी पहाड़ था। सोहागी की चोटियों को काटकर कोई कारखाना बनाया जा रहा था। आये दिन डायनामाइट के धमाके होते। धरती काँप उठती... । वह बुरी तरह डर जाता। दिमाग में तरह-तरह के दृश्य तैरने लगते... । कहीं बहुत से लोग गिर गये हैं... । उनके सिर के टुकड़े बिखरे हैं ... । खून के फौव्वारे बह रहे हैं...। डर कर वह भागने लगता है इधर-उधर... । हर जगह धमाकों की गूँज... । हर जगह धरती कांपती... । कहाँ जाए... ? फिर दिमाग सन्न... । गहरा अँधेरा दिमाग में पसरने लगता... । इस अँधेरे में कुछ भी न दिखता... । कुछ भी सुनायी न देता... । वह अचेत हो जाता... ।</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> ...इस बीच कुछ सपने देखे उसने। सपनों का वर्णन संभव नहीं है। वर्णन के लिए भाषा के सिवा कोई साधन नहीं है, जबकि सपने भाषा में नहीं देखे थे उसने। या कम से कम इस भाषा में नहीं देखे थे, जिसमे उनका वर्णन किया जा रहा है -</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> प्यास.... । बहुत तेज प्यास.... । गला सूख गया है। जीभ तालू से चिपक गयी है। जान चली जायेगी बिना पानी के।....पोखरा पास में है। वह दौड़कर पहुँचना चाहता है वहां...। पूरी ताकत से कदम उठाता है। लेकिन आगे नहीं बढ़ पाता... । हवा का बहुत तेज झोंका ऊपर उड़ा ले जाता है। ...फिर वह गिर जाता है। पोखरा फिर उतनी ही दूरी पर, जितना पहले था... । बार-बार यही सिलसिला... । अंत में उसे लगा कि छलांग लगा कर नहीं पहुंचा जा सकता पानी के पास... । प्यास बुझाने के लिए लेट कर, धरती को पूरी तरह पकड़ कर ही जाना होगा पोखरे तक... । छाती के बल घिसट कर वह पोखरे के किनारे पहुँच जाता है। ...स्थिर शांत जल... । वह अंजुरी डुबोना चाहता है कि अचानक चौंक जाता है। ....पानी में एक चेहरा... । ...अरे यह तो उसका अपना ही चेहरा है। वह हंसता है और पानी में अपनी निर्मल हँसी का प्रतिबिम्ब देख कर मुग्ध हो जाता है। ...बिना पानी पिए जिया नहीं जा सकता। अंजुरी डुबोने से निर्मल हँसी का अपना ही प्रतिबिम्ब टूट सकता है। क्या किया जाय...? ...एक अजीब कशमकश में फंस जाता है वह। प्राण या प्रतिबिम्ब...? ...आखिरकार वह अंजुरी डुबो देता है... । पानी में हलचल हुई। प्रतिबिम्ब टूट गया... । डूबते सूरज की लाली से लाल पानी में होंठ, दांत, आँखें - अलग-अलग हो गए। वे टेढ़े-मेढ़े होकर तैरने लगे... । ...बहुत उदास हो गया वह। थोड़ी ही देर में पोखरे का पानी फिर स्थिर हो गया। उसे फिर अपना प्रतिबिम्ब दिखने लगा। ...अरे यह क्या? पोखरे के किनारे की कीचड़ हिलने लगी...। ...धीरे-धीरे कीचड़ ऊपर उठने लगी। ...नहीं-नहीं... । यह कीचड़ नहीं है...। कौन है यह...? कौन है यह...? कौन...? चम्पा... । वह बहुत खुश हो गया। बहुत खुश... । वह कहना चाहता है कि चम्पा मैंने अपनी सूरत देख ली। आइने में नहीं,पानी में। ...लेकिन मुंह से बोल फूटते ही नहीं... । चम्पा खिलखिला रही है। वह चम्पा के गाल छूना चाहता है। लेकिन जितना हाथ बढ़ाता है, चम्पा की लम्बाई उतनी ही बढ़ती जाती है। सिर उठा कर चम्पा के होठों और दांतों के बीच बहता जादू देखना चाहता है वह। लेकिन दृष्टि चम्पा के मुंह तक नहीं पहुँच पाती। बहुत सिर उठाने के बाद भी वह चम्पा के सीने से ऊपर नहीं देख पाता। अरे यह क्या...?चम्पा के शरीर में तो यह अंग नहीं था... । स्तन ... । खुले हुए... । स्तनों से दूध की धार बहने लगी.... । नहीं यह चम्पा नहीं है! फिर कौन है...? दूध की धार में नहा उठा वह... । अरे यह तो माई है। माई ! माई! वह खिलखिलाना चाहता है। लेकिन बोल नहीं फूटते ! पूरी ताकत लगा कर एक बार चीखता है। मुंह से निकलता है - 'बाँई...'। ...नींद टूट गयी। सपना नहीं टूटा... । या कम- से- कम सपने का प्रभाव ख़त्म नहीं हुआ। सपने को असलियत समझ रहा था वह। बार-बार 'बाँईऽऽ-बाँईऽऽ!' चीख रहा था। सूरज निकलने में अभी देर थी। लेकिन उजास फैल चुकी थी। बंदरहिया बारी के पेड़ों पर बैठे पंछी चहक रहे थे। उसकी चीख से पंछी एकबारगी चुप हो गये। फिर और तेजी से चहकने लगे...। वह इन सबसे बेखबर था। एक उन्माद - सा छा गया था मन में। एक ही सनक - माई से मिलने की, उससे लिपट जाने की। वह गाँव की ओर दौड़ा जा रहा था। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">पति की मृत्यु के बाद से मिसिराइन का अजब हाल था। रात भर नींद नहीं आती थी।</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> पता नहीं क्या-क्या बिसूरती रहतीं और भोर होते-होते सो जातीं। फिर दिन चढ़ने पर अचकचा कर उठ जातीं। गृहस्थी की सार-संभार भी नहीं कर पाती थीं। रोटी-पानी बड़ी बहू कर देती। मिसिराइन आँगन में सोयी थीं। दरवाजा खुला था। आँगन में जूठे बर्तन इधर-उधर बिखरे थे। बड़ी बहू उन्हें इकट्ठा कर रही थी। बड़ा लड़का शौच-मैदान के लिए चला गया था। मझले ने गाय का दूध दुह लिया था। बछड़े की रस्सी खोल दी थी और धान के खेतों को देखने चला गया था। बछडा बार-बार गाय के थन में मुंह मार रहा था, लेकिन दूध नहीं निकल रहा था...। 'बाँईऽऽ!' 'बाँईऽऽ!' की दहाड़ मारता बई सीधे आँगन में पहुंचा। बड़ी बहू चौंक गयी। नंग-धड़ंग बई को देख कर बरबस उसके मुंह से निकल पडा- </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'हाय दैया!'</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> बई को कुछ नहीं दिख रहा था। बस माई दिख रही थी।</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> अजीब उन्माद...। सोयी हुई माई से लिपट गया वह। अचकचा कर माई ने आँखें खोलीं। सारी दुर्दशा का कारण साक्षात लिपटा था। माई ने झटक दिया। बई चारपाई से नीचे गिर पडा। फिर माई घूंसे बरसाती रही। रोती रही। ...बहुत दिनों के बाद माई की छुअन मिली थी। घूंसे बहुत भले लग रहे थे बई को... । आंसुओं की बूँदें शरीर पर पड़ रही थीं। उसे माँ के दूध में नहाने की अनुभूति हो रही थी... । गुदगुदी हो रही थी। वह खिलखिला रहा था और 'बाँईऽऽ !' 'बाँईऽऽ !' चिल्ला रहा था। माई ने घसीट कर उसे द्वार पर बैठा दिया। लेकिन वह माई को छोड़ नहीं रहा था। लिपट गया था माई से और खिलखिला रहा था। इस बीच गाँव के बड़े-बुजुर्ग हरखू के द्वार पर इकट्ठा हो गये। उन्होंने बई के चाचा रामजियावन को भी साथ में ले लिया था। गाँव की परम्पराओं को सुरक्षित रखने का जिम्मा था उनके सिर पर। काफी गंभीर थे सब लोग। कौतूहलवश कुछ बच्चे भी आ गये। बुजुर्गों ने उन्हें डांटा -'भागो यहाँ से! तुम्हारा क्या काम ?' </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">बच्चे फिर भी डटे रहे। शास्त्री जी कड़क मिजाज के आदमी थे। धार्मिक कर्मकांड में</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> किसी तरह की त्रुटि, गाँव के रीति-रिवाज और जात-पांत की मर्यादाओं का किसी भी तरह का उल्लंघन देख कर आपे से बाहर हो जाते। मनुस्मृति पढ़ते थे। उन्होंने कहा-</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> 'ऐशे नहीं मानेंगे ये।'</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">फिर बच्चों की ओर मुखातिब हो कर दांत पीसते हुए कड़क कर बोले - </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'भाग जाओ शरऊ नहीं तो हुमक कर चढ़ बैठेंगे। तुम्हारा यहाँ का परोजन है ?'</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">बच्चे भयभीत हो कर भाग गये...। अन्य लोगों ने शास्त्री जी की बात का समर्थन किया-</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'महराज बच्चों की दोस्ती जान का खतरा।' 'बालक-बर्रै एक समाना।' आदि-आदि। </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">बई को कुछ नहीं दिख रहा था। वह अब भी माई से लिपटा था और खिलखिला रहा था।</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> माई उसे झटकने की कोशिश करती तो 'बाँई-बाँई' कहते हुए और कसकर चिपक जाता। माई का अजब हाल था। आंसुओं की धार बंद नहीं हो रही थी। आवाज निकल नहीं रही थी। कभी बई को झटकना चाहती। कभी खुद भी कसकर चिपक जाती उससे... । लोगों के सामने समस्या थी। बई को उसकी माई से अलग कैसे किया जाय ? उसे छुआ नहीं जा सकता था ?धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। रामजियावन ने उपाय खोज निकाला। एक डंडा कसकर मारा बई की पीठ पर। बोले-</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> 'मार के आगे भूत नाचते हैं सरऊ ! क्या मुंह दिखाएँगे जात-बिरादरी में ? </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">आँय ? बेटा-बेटियों का बियाह कैसे होगा ? कुलच्छनी ससुर !' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">वे बड़ी देर तक बड़बड़ाते रहे। </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">डंडे की चोट से बई का सपना टूट गया... । अचानक उसे सब कुछ याद आने लगा। गाँव के जिम्मेदार बुजुर्गों के चहरे देखे उसने। उसे लगा कि अभी इन लोगों के हाथों में कोई खिलौने जैसी चीज आ सकती है। धमाका हो सकता है। खून के फौव्वारे फूट सकते हैं। ...बुरी तरह डर गया वह। मुंह से चीख भी नहीं निकल सकी और भाग गया। माई ने दौड़ कर पकड़ लिया उसे। बड़ा बल आ गया था माई के शरीर में। बोली - 'कहाँ जा रहा है ? चल बैठ घर में !'</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">शास्त्री जी ने फैसला सुनाया- </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'देखो हरखू बहू, तुम्हारे लड़के ने शुअर का मांश खाया है।</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> मैंने बहुत शे शाश्तर-पुराण बांचे, इश का कोई पराश्चित नहीं है।</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> छत्री मांश-मदिरा का शेवन कर शकता है, परंच बाम्हन के लिए</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> महापाप है। फिर शुअर का मांश ? राम-राम!'</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> इतना कह कर उन्होंने जमीन पर थूक दिया। फिर बोले- </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'हाँ तुम्हारा पराश्चित हो शकता है। तुम्हें उशने छुआ है, तुम पंचगब्ब पियो। </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">दूध में शंखपुहुपी उबाल कर पियो। तभी हम लोग तुम्हारे भोज में खायेंगे।</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> रही लड़के की बात तो अपना लड़का शबको पियारा होता है। मुदा इश </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">कारनी लड़के के मोह में न फंशो । यह अभगुतमूल नछत्तर में पैदा हुआ है।</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> बाप को लील लिया, यह तुमने देखा ही। यदि यह घर में रहेगा तो पूरे बंश </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">का बिनाश हो जाएगा। जो हमारा करतब था, हमने शमझा दिया। बाकी तुम जानो।' </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">हरखू बहू बोलीं-</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'ऐसा न करो पंडीजी ! कुछ तो उपाय खोजो!' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">इतना ही कह पायीं वे और रोने लगीं... । </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">हरखू का बड़ा लड़का धीरे से बोला- </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'आज-कल होटलों में हर जाती के लोग सब कुछ खाते-पीते हैं।' </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">शास्त्री जी तमतमा उठे- </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'होटल-फोटल की बात छोड़ो। शोनबरशा की बात करो। हमारे गाँव की</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> बंभनमंडली का आचरण पूरे इलाके में बखाना जाता है। इशी के बलबूते</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> हम लोगों को और गाँव वालों शे अधिक दैजा-दहेज़ मिलता है। शमझे ?' </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: right;">
<span style="background-color: white; color: blue;">आम तौर पर सरपंच दयालु आदमी थे। दखल की हुई जमीन, बंधुआ मजदूरी और उनके </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">प्रभुत्व के खिलाफ बोलने वालों को छोड़कर बाकी सब के लिए वे बहुत भले आदमी थे। अपने आदमियों के लिए जायज-नाजायज सब कुछ करने के लिए तैयार रहते। हरखू बहू का रोना देख कर वे पसीज उठे। उन्होंने शास्त्री जी को घुड़का- </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'सास्त्री जी हरखू हमारे आदमी थे। हर चीज का परास्चित होता है। </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">जरा होस-हवास में बाँचो किताब। कोई रास्ता निकल आयेगा। तुम </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">पंचगब्ब, दूध और संखपुहुपी पिलाने को कहते हो। मैं कहता हूँ नहला</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> दो साले को उसी में। तो भी नहीं होगा परास्चित ? क्यों भाई तुम लोग बोलो ?' </span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">प्राइमरी स्कूल के मास्टर रामतवंकल बोले -</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'अरे भाई जून - जमाना बदल रहा है और फिर जब सरपंच</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> साहब कह रहे हैं तो जरा सोच-समझ कर बोलो सास्त्री जी। '</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">शास्त्री जी दबे मन से बोले- </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'उपाय तो कुछ नहीं है। मुदा शमरथ को नहि दोश गोशांई। </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">जब शरपंच शाहब कहते हैं तो इशको भी शंखपुहुपी और</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> पंचगब्ब पिलाओ। शतनरायन की कथा शुनाओ। अब हम क्या</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> कहें ? मुदा छोकरा कारनी है। इश बात को शमझ लो। '</span></div>
<div align="justify" style="font-weight: bold;">
<span style="background-color: white; color: blue;">सरपंच ने कहा- </span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;">'कुछ कारनी - वारनी नहीं। देखो हरखू बहू, सास्त्री जी जो कह रहे हैं, सो करो</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> और इस ससुरे को घर में रखो। अब कोई भच्छाभच्छ न खाने पाए। न कोई</span></div>
<div style="font-weight: bold; text-align: center;">
<span style="background-color: white; color: blue;"> खुराफात करने पाए। घर से निकले तो हड्डी - पसली एक कर दो साले की।' </span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;"><span style="font-weight: bold;">बई</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">का</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">प्रायश्चित</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हुए</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">कई</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">साल</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">बीत</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गए</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हैं।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">झरबेरियों</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">में</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">भी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">फल</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">लगते</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हैं।</span><span style="font-weight: bold;"> </span></span></span></div>
<div align="justify">
<span style="background-color: white;"><span style="color: blue;"><span style="font-weight: bold;">चम्पा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">के</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गालों</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">की</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">चमक</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">और</span> <span style="font-weight: bold;">मुस्कान</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">का</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जादू</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">और</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">भी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">बढ़</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गया</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">बिसाती</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">भी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">आइने</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">बेचता</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">लेकिन</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">उसे</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">किसी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">चीज</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">की</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जरूरत</span> <span style="font-weight: bold;">नहीं।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">वह</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गाँव</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">में</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">नहीं</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">मंडराता।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सारे</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">दिन</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अपने</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">द्वार</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">पर</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">बैठा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">रहता</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">निर्मल</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हँसी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">नहीं</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हँसता।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">उच्चारण</span> <span style="font-weight: bold;">की</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">विफल</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">चेष्टा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">और</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सफल</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">संकेत</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">नहीं</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">करता।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">किसी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">आदमी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">को</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">देख</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">कर</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">झट</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">से</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">भाग</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जाता</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">और</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">कोठरी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">में</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">छिप</span> <span style="font-weight: bold;">जाता</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है।</span><span style="font-weight: bold;"> ...</span><span style="font-weight: bold;">शरीर</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">में</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सूजन</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">बढ़</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गयी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">लोगों</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">का</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">विचार</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">कि</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">वह</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सुधर</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गया</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">है।</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-family: "webdings";"><span style="font-weight: bold;"></span></span></span></span><br />
<span style="background-color: white;"><span style="color: #660000;"><span style="font-weight: bold;"><br /></span></span></span></div>
<div style="color: #006600; font-weight: bold; text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #660000;">[ 'अभिप्राय ', इलाहाबाद, संयुक्तांक - २४ -२५ में प्रकाशित।] </span></div>
</div>
DR. SHIV SHANKAR MISHRAhttp://www.blogger.com/profile/13510786708538068120noreply@blogger.com12