शायद वह सन् अस्सी की गर्मियों की कोई दोपहर थी, जब मैं पहली बार दिल्ली पहुंचा- उन दिनों चलने वाली अपर इंडिया एक्सप्रेस से। पूरे महानगर में जिस एक अदद आदमी से पहचान के आधार पर मैं दिल्ली पहुंचा था, वे थे गोरख पांडेय। पहली बार इलाहाबाद में 'परिवेश' की एक गोष्ठी में देखा और सुना था उन्हें। बार-बार दाढ़ी सहलाते और सिगरेट के गहरे कश लेते हुए वे गहन चिंतन की मुद्रा में बोल रहे थे और प्रभावित कर रहे थे।
गोष्ठी के अंत में 'दस्ता' की ओर से मैंने अनिल सिंह तथा कुछ और साथियों के साथ मिल कर गोरख का एक गीत गाया- धुन बदल कर। रामजी भाई बताया करते थे कि गोरख खुद भी गाते हैं और वे इस तरह नहीं, बल्कि इस तरह गाते हैं। फिर वे अपनी आवाज में उन धुनों को सुनाते। कुछ धुनों का मैं अनुकरण करता और कुछ को बदल देता। उस दिन बदली हुई धुन वाला जो गीत गाया गया, वह था- 'केकरा नावें जमीन पटवारी, केकरा नावें जमीन?'
इस गीत की धुन एक होली गीत पर आधारित है। उस सपाट धुन में मुझे गायकी का मजा न मिलता और मैं इस गीत को पूरबी की तरह गाता था। अपने ही गीत को बदली हुई धुन में सुनते हुए गोरख लगभग लगातार मुझे देखते रहे। सांझ हो चली थी। बल्ब जलाया गया, तो मेरा ध्यान उनके मैल से चीकट कुर्ते-पाजामे की ओर गया, जिसे मैंने दिल्ली से इलाहाबाद की यात्रा का परिणाम समझा। ..लेकिन दाढ़ी-बाल के साथ बढ़े हुए नाखून? मुझे लगा, जैसे किसी गंभीर समस्या का समाधान खोजने के क्रम में वे दाढ़ी-बाल और कपड़ों की सफाई जैसे कम जरूरी काम पता नहीं कब से भूले हुए हैं। गीत सुनने के बाद वे देर तक दाढ़ी सहलाते रहे। बीच-बीच में मुस्कराते, होंठों और दांतों के बीच खिली-खिली ऋजुता छलछला उठती और वे कहते- 'तो...मिश्र जी..!'
मुझे लगता कि अब वे कुछ कहने जा रहे हैं, लेकिन ऐसा कुछ न होता। वे फिर दाढ़ी सहलाते और उसी मुदिता के साथ कहते- 'तो... मिश्र जी...!' दसियों बार ऐसा किया उन्होंने। मुझे लगा, गोरख मुझे अपनी स्मृति में सहेज रहे हैं।
दूसरी मुलाकात गोरखपुर में हुई थी। डॉ. लालबहादुर वर्मा तब गोरखपुर विश्वविद्यालय में थे। उन्होंने खुले मैदान में एक बड़े कवि सम्मेलन का आयोजन किया था। अदम गोंडवी, अशोक चक्रधर, रामकुमार कृषक, पुरुषोत्तम प्रतीक और दूसरे अनेक कवि आये थे। इलाहाबाद से मैं था और हिमांशु रंजन। गोरख एक दिन पहले आ गए थे। देवेन्द्र आर्य और गोरखपुर के दूसरे अनेक साथी प्राण-पण से आगंतुक कवियों की खातिर तवज्जो में लगे थे। शायद वे ही हम लोगों को उस हालनुमा कमरे में ले गये, जहां फर्श पर बिछे गद्दों पर बैठे कवियों के बीच लगातार दाढ़ी सहलाते और बीच-बीच में सिगरेट के गहरे कश लेते गोरख दिखे। शाम हो गयी थी। हल्के वाट के बल्ब की पीली रोशनी में उनका सफेद खादी का कुर्ता-पाजामा कुछ कम गंदा लग रहा था। चेहरे पर गंभीरता थी और बीच-बीच में 'साथी आपको चाय मिली या नहीं' या 'अमुक आये या नहीं'- इस तरह के प्रश्न ऐसे पूछ रहे थे वे, जैसे आयोजन का सारा भार उन्हीं पर हो। मुझसे भी उसी आत्मीयता से उन्होंने चाय के लिए पूछा, लेकिन मैंने महसूस किया कि मुझे नहीं पहचान रहे हैं वे। फिर शहर के किसी महंगे होटल में, जिसका नाम मुझे याद नहीं, खाना हुआ- सुस्वादु। फिर सब लोग रिक्शों से उस मैदान की ओर रवाना हुए, जहां कवि सम्मलेन होना था।
मैदान श्रोताओं से भरा था- खचाखच। नाना वर्गों के श्रोता- विश्वविद्यालय के शिक्षक, शोधार्थी, छात्र-छात्राएं, गृहणियां, रेलवे कर्मचारी, नगर के रचनाकार, रंगकर्मी, शहरी मजदूर। रिक्शेवाले मैदान की चहारदीवारी के पार अपने-अपने रिक्शों पर खड़े होकर कविता सुन रहे थे। यह सब देखकर गोरख बहुत उत्साहित थे और पूरी उत्तेजना में अपना गीत प्रस्तुत कर रहे थे- 'जनता के आवे पलटनिया, हिलेले झकझोर दुनिया।' उत्साह में वे इतना खींच कर गा रहे थे कि अंतरा आते-आते गला जवाब दे गया। मैं तत्काल उनकी बगल में खड़ा हुआ और आगे का गीत हम दोनों ने मिलकर पूरा किया। गीत सुनाकर वे बैठे तो लगा, जैसे खींच कर गाने की वजह से थक गए हों। कुछ पलों तक वे सिर झुकाये, आँखें मूंदे बैठे रहे, फिर अचानक मेरी ओर देखा और मुस्कराते हुए बोले- 'तो मिश्र जी...इलाहाबाद वाले।' इसी बीच मेरे नाम की पुकार हुई। मैंने दो गीत सुनाये- एक अवधी में, दूसरा भोजपुरी में। गीत सुनाकर बैठते ही गोरख बोले- 'आइए साथी कहीं कुछ खाते हैं।’ मुझे याद नहीं कि हम लोग किस मुहल्ले में गए। शायद कवि सम्मेलन वाले मैदान से दक्षिण की ओर कुछ दूर चलकर हम लोग किसी मिठाई की दूकान तक गए थे।
'ये तो बूंदी के लड्डू हैं।' - लड्डू खाते हुए मैंने कहा।
'हाँ, भोजपुरी में इसे बुनिया कहते हैं। तरल बेसन की बूँदें खौलते घी में गिरकर ठोस रूप ले लती हैं।' - कविता जैसी भाषा में उन्होंने 'बुनिया' की रचना प्रक्रिया बतायी, फिर मुझे पान खिलाया और अपने लिए सिगरेट का पैकेट खरीदा। लौटती बार वे कुछ देर चुप रहे- सिगरेट का कश लेते हुए।
'जनता के आवे पलटनिया वाला गीत किस लोकधुन पर आधारित है, आप जानते हैं?' -थोड़ी दूर चलकर अचानक उन्होंने पूछा।
' नहीं।'
'रामजी के आवे दुलहिनिया पड़ेले झीर-झीर बुनिया।'
उस समय और उसके बाद भी कई मौकों पर मैंने महसूस किया कि लोकधुनें गोरख को बींधती थीं और उनके भीतर रचनात्मक बेचैनी उत्पन्न करती थीं या उनके भीतर की रचनात्मक बेचैनी को राह सुझाती थीं। लौटकर हम लोग मंच पर पहुंचे ही थे कि दूसरे दौर के लिए मेरा नाम पुकार दिया गया। पान की पीक थूकने की गरज से मैं मंच के पीछे गया। वहां एक स्थानीय वरिष्ठ कवि खड़े मिले, जिनका नाम उस समय मैं नहीं जानता था। खूब तारीफ की उन्होंने मेरी और बोले- ‘सुना है, तुम 'छापक पेड़ छिउलिया' वाला गीत बहुत अच्छा गाते हो, वही सुनाओ।'
अज्ञात वरिष्ठ कवि के द्वारा की गई प्रशंसा और गीत की अनुशंसा को मैंने अपने प्रति उनकी शुभाशंसा समझा। विह्वल भाव से मैं मंच पर गया और इस टिप्पणी के साथ गीत शुरू किया कि अब मैं अवधी का एक लोकगीत प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। जाहिर है कि यह मेरी नहीं, बल्कि माँ-बहनों की सामूहिक रचना है। अभी मैं गीत की दो आरंभिक पंक्तियाँ ही सुना पाया था कि वही वरिष्ठ कवि खड़े हो गए और मुझसे माइक्रोफोन छीन कर अपना भाषण शुरू कर दिया, जिसका आशय यह था कि इस जनवादी क्रांतिकारी मंच से दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से सुनाना जनता के साथ गद्दारी है और वे इसकी भर्त्सना करते हैं। मेरी तो मति मारी गयी। पहली बार इलाहाबाद से बाहर कहीं कवि सम्मेलन में गया था- एम. ए. का विद्यार्थी। वे माइक्रोफोन पर मेरी लानत-मलामत करते रहे। मैं अप्रासंगिक सा खड़ा उन्हें निहारता रहा। अब इतने दिनों बाद मुझे उनके व्यक्तित्व की कोई रेखा याद नहीं, सिवा उनकी थुलथुल हथेली के, जिसकी प्रतीति हाथ मिलाने के दौरान हुई थी। वे बोल चुके, तो मैंने अपना पक्ष रखा, जिसका तात्पर्य यह था कि ये वही कवि महोदय हैं, जिन्होंने मंच के पीछे मुझसे इस लोकगीत को सुनाने की फर्माइश की थी, जिसका अब स्वयं विरोध कर रहे हैं और यह कि अब मैं दूसरा गीत सुनाने जा रहा हूँ, जो मूलत: मेरी रचना है। मैं दूसरा गीत शुरू करूँ, इससे पहले ही श्रोताओं ने तालियाँ बजाकर वही लोकगीत सुनाने की जोरदार फर्माइश की। इस दौरान गोरख की क्या दशा रही, मैं ध्यान नहीं दे पाया। गीत सुनाते हुए गीत में डूबा रहा, फिर अपने में। एक तरफ लोगों का अपार स्नेह, दूसरी तरफ महाकवि की कुत्सा...! देर रात तक चला कवि सम्मेलन। महाकवि फिर मंच पर नहीं दिखे। श्रोताओं की भीड़ जस की तस थी, फिर भी भोर होने से कुछ घंटे पहले कवि सम्मेलन के संपन्न होने की घोषणा कर दी गयी- शायद इसलिए कि थोड़ा आराम करके लोग रोजमर्रा के कामों में लग सकें। कवियों को फिर उसी हालनुमा कमरे में ले जाया गया, जहां शाम को चाय पी गई थी। शायद वह रेलवे की इमारत थी। थके हुए लोग फर्श पर बिछे गद्दों पर लेटते ही खर्राटे लेने लगे। मैं भी लेट गया। इस बीच किसी ने बल्ब बुझा दिया। मैंने आँखें मूँद रखी थीं, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर में मुझे लगा कि कोई टहल रहा है अँधेरे में। आँखें खोलीं तो लगा, कोई छाया कमरे से बाहर निकल गयी। मेरा अनुमान था कि यह गोरख होंगे। उनकी कुछ असहजताओं के किस्से सुन चुका था। मैं भी कमरे से बाहर निकल आया।
शायद वह पीपल का पेड़ था, जिसके नीचे चबूतरे पर बैठे गोरख सिगरेट सुलगा रहे थे। जलती हुई माचिस की तीली के उजाले में उनकी दाढ़ी, कम नुकीली नाक और माथे तक लटकती जुल्फों की झलक दिखी- एक क्षण के लिए। मैं भी बैठ गया उसी चबूतरे पर- गोरख से कुछ फासला बनाते हुए। लगभग घंटे भर बैठा रहा मैं, लेकिन वे मेरे अस्तित्व से बेखबर क्षितिज देखते रहे, जो शहर की रोशनियों और उषा की उजास के संयोग से पीला और ताँबई हो रहा था। लौटकर मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। फिर तो ऐसी नींद आयी कि दोपहर से थोड़ा पहले ही उठ सका।
दोपहर का खाना डॉ. लालबहादुर वर्मा के यहाँ होना था। हुआ- सुरुचिसम्पन्न। सामिष भी, निरामिष भी। लेकिन खाने से पहले एक घटना हो गयी। खूबसूरत मोजैक वाले फर्श पर बिछे टाट पर सब लोग बैठे थे। खाना परोसने की तैयारी हो ही रही थी कि महाकवि फिर नमूदार हुए। वे टाट पर बैठे ही थे कि गोरख शुरू हो गए-अत्यंत गंभीर और बेहद उत्तेजित। गोरख रौद्र होते जा रहे थे। नथुने फड़क रहे थे। दाढ़ी तो सहला रहे थे, लेकिन सिगरेट पीना भूल गए थे शायद कुछ देर के लिए। या इसलिए नहीं पी रहे थे सिगरेट कि अब तो खाना खाना है। महाकवि की ओर तर्जनी उठाकर या कभी मुट्ठी बंधा हाथ उठाकर गोरख ने जो कुछ कहा, उसका सार कुछ इस तरह था कि कल आपने जिस तरह जनता के एक महत्वपूर्ण गीत की प्रस्तुति में बाधा उत्पन्न की और एक उदीयमान कवि को अपमानित करने की घिनौनी साजिश की, हम उसकी निंदा करते हैं। अब तो खाना पीछे छूट गया और सबकी चिंता का विषय यह हो गया कि गोरख को कैसे सम्हाला जाय। आखिरकार स्थिति को देखते हुए महाकवि खुद ही चले गये।
दो मुलाकातों के बाद मैं आश्वस्त था कि गोरख अब मुझे पहचान लेंगे। गर्मी की उस दोपहर, जब मैं डी.टी.सी. की बस से आर. के. पुरम् पहुँचा, तो मन में एक दूसरा संशय उठ रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि वे कमरे में न हों और दिल्ली से बाहर चले गये हों किसी कार्यक्रम में। तिरछी समानांतर दीवारों वाला विश्वविद्यालय का स्थापत्य विचित्र और आकर्षक लग रहा था। अंग्रेजी बोलते देशी-विदेशी छात्र-छात्राओं का समूह मन में आतंक पैदा कर रहा था, लेकिन हर वैचित्र्य, आकर्षण और आतंक पर मन का संशय भारी पड़ रहा था। पेरियार हॉस्टल की ऊपरी मंजिल वाले गोरख के कमरे के सामने पहुंचकर वह संशय भी दूर हो गया। कमरे का नंबर अब मैं भूल चुका हूँ। दरवाजा आधा खुला था। मैंने हल्के से दस्तक दी। देर तक कोई प्रतिक्रिया न होने पर झाँकने की धृष्टता की और पाया कि वे सोये हैं। मैंने अनुमान किया कि सुबह उठे होंगे, नहाया-धोया होगा और दिन का खाना खाकर सो गये होंगे। मैं इलाहाबाद से यात्रा करके आया था-ट्रेन में खड़े-खड़े। खाने के नाम पर सुर्ती-चूना और पीने के नाम पर कुछ नहीं। लंबी यात्रा का अनुभव न होने के कारण पानी की व्यवस्था करके नहीं चला था। गला सूखा था। सीने और आंखों में जलन हो रही थी। ढिठाई करके मैं घुस गया और फर्श पर बिखरी किताबों के बीच जगह बनाकर बैठ गया। खटर-पटर से उनकी नींद में खलल पहुंचा। अधखुली आँखों से उन्होंने मुझे देखा, फिर आँखें मूँद लीं। फौरन नमस्कार किया मैंने और अपना तथा अपने गृह जनपद का नाम बताया। फिर उन्होंने एक बार मेरी ओर देखा और आँखें बंद कर लीं। मुझे लगा, नींद नहीं खुल रही है। वहीं रखे सिगरेट के पैकेट से मैंने एक सिगरेट निकाली, अपने होंठों से लगाकर जलायी और उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘बाबा सिगरेट!’
गोरख ने एक बार मेरी ओर देखा, फिर सिगरेट की ओर। सिगरेट को उँगलियों में फँसाकर उन्होंने फिर आँखें बंद कर लीं। आँखें मूँदे-मूँदे सिगरेट के कुछ कश लेने के बाद वे उठे। मैंने नये सिरे से नमस्कार करते हुए अपना और अपने गृह जनपद का नाम बताया। गोरख पर कोई असर नहीं। अंडी के चादर की अस्त-व्यस्त लुंगी और रेशमी खादी की सिकुड़न भरी कमीज पहने वे कभी आँखें खोलते, कभी बंद करते रहे। कमीज की ऊपर की बटन खुली होने के कारण सीने के घने बाल दिख रहे थे। दाढ़ी पहले से कुछ बड़ी। सिर के बाल भी। हां, नाखून इस बार कुछ कम बड़े लग रहे थे।
‘तो..साथी..यह एक गंभीर समस्या है।’- काफी देर बाद बोले वे- दीवार की ओर देखते हुए।
‘बाबा क्या समस्या है?’- मैंने पूछा, लेकिन वे कुछ नहीं बोले। मैं उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा और वे दाढ़ी सहलाते हुए दीवार देखते रहे- मौन। बीच-बीच में सिगरेट के गहरे कश। कुछ देर बाद उन्होंने मेरी ओर देखा, फिर दीवार की ओर देखने लगे और दाढ़ी सहलाते हुए बोले- ‘तो..साथी..यह एक गंभीर समस्या है।’
मैंने अनुमान किया कि वे मुझे नहीं पहचान रहे हैं।
‘हम लोग हर समस्या हल कर लेंगे बाबा, लेकिन पहले यह तो बताइए कि पानी कहां मिलेगा?’ - इस विश्वास के साथ मैंने कहा कि किसी न किसी तरह अभी वे पहचान लेंगे मुझे।
‘यह भी एक गंभीर समस्या है साथी यहाँ।’- दाढ़ी सहलाते हुए वे बोले-‘यहाँ पानी केवल सुबह शाम आता है।’
फिर वे उठे और कमरे में मौजूद इकलौता शीशे का गिलास उठाकर बगल के कमरे में गये।
‘चलिए साथी, आपको चाय की दूकान पर पानी पिलाते हैं।’
पेरियार की सीढ़ियाँ उतरकर बाँयी ओर की पथरीली पगडंडी से होते हुए हम लोग चाय की दूकान की ओर गये। खुले में चाय की दूकान। अरावली की चोटियों को काटने के दौरान चबूतरों जैसे कुछ छोटे-छोटे टीले छूट गये होंगे। या शायद जान-बूझकर छोड़ दिये गये होंगे। हम लोग ऐसे ही एक टीले पर बैठे थे। आस-पास और भी लड़के-लड़कियाँ बैठे थे। सब बातें कर रहे थे, लेकिन किसी की भी आवाज इतना तेज नहीं थी कि अवांछित ढंग से किसी और को सुनायी पड़ती। सन की मोटी, लंबी रस्सी लगातार सुलग रही थी, ताकि लोग सिगरेट जला सकें। हम लोग लगातार दो कप चाय पी गये। पानी मैं पहले ही पी चुका था। एक गिलास पानी में मुँह की तंबाकू भी साफ करनी थी और गला भी तर करना था।
‘तो..साथी..यह एक गंभीर समस्या है।’
चाय के दौरान गोरख बीच-बीच में बुदबुदाते रहे- कहीं दूर देखते हुए से। माहौल ऐसा नहीं था कि वहाँ भोजपुरी गीत गाया जाता, लेकिन अब मेरे पास इसके सिवा कोई और उपाय नहीं था गोरख के मन में अपनी याद जगाने का। मैंने उन्हीं का एक गीत शुरू किया-बदली हुई धुन में। शुरू की कुछ पंक्तियाँ सुनते ही उन्होंने गौर से देखा मुझे और देखते रहे। हल्की सफेद पुतलियों के पीछे कौतूहल झाँक रहा था। माथे पर सलवटें थीं, जिन्हें सिर के लटकते बालों ने लगभग ढक रखा था। हाँ, कपड़े वही थे उनके- अंडी की चादर की लुंगी, सिकुड़न भरी रेशमी खद्दर की कमीज और पैरों में चट्टी। गीत पूरा होते-होते होठों और दाँतों के बीच वही खिली-खिली ऋजुता छलछला आयी, जो कभी इलाहाबाद में दिखी थी।
‘तो..मिश्र जी..!’ -अब वे मुझसे मुखातिब थे- ‘रामजी भाई कैसे हैं?’
इसका मतलब, वे समझ गये कि मैं इलाहाबाद से आया हूं। उन दिनों इलाहाबाद के साथियों में यह कथन प्रचलित था कि कोई गोरख से कहे कि वह इलाहाबाद से आया है, तो वे पहला समाचार रामजी भाई का पूछेंगे। फिर तो चाय और गीतों का दौर दिन ढले तक चलता रहा। मैं गीत गाता रहा, वे सुनते रहे-अपने ही गीत।
शाम हो गयी थी- पानी आने का समय। हम लोग कमरे की ओर लौट रहे थे। अचानक गोरख का ध्यान इस ओर गया कि सिगरेट खत्म हो गयी है। पगडंडी के विपरीत छोर की ओर झुटपुटे में कुछ कदम चलकर हम लोग सड़क पर पहुँचे। स्ट्रीट लाइट के उजाले में कुछ लड़के-लड़कियाँ खड़े थे। शायद बस का इंतजार कर रहे थे वे। वहीं एक लड़का पान-सिगरेट की दूकान लगाये बैठा था - लकड़ी की गुमटी में।
‘कैसे हो हवासिंह?’-गोरख ने गुमटी में बैठे लड़के से पूछा। जवाब में लड़का मुस्कराया।
‘क्या सचमुच इसका नाम हवासिंह है?’-मैंने पूछा।
‘एक दिन यह पहाड़ से चलकर यहाँ आ गया-हवा की तरह। मैं इसे हवा कहने लगा- हवासिंह।’
काफी अच्छी मनोदशा में लग रहे थे वे।
लौटकर हम लोग कमरे की ओर आये। हॉस्टल की सीढ़ियां और गलियारे दूधिया उजाले से रौशन थे। नल की टोंटियों में पानी आने लगा था। गोरख के कमरे का दरवाजा पहले की तरह आधा खुला था और उससे भीतर का अँधेरा झाँक रहा था। वे अंदर घुसे और बिना लाइट जलाये तखत पर बैठ गये-चुपचाप। मैंने अनुमान से बटन दबायी। ट्यूब लाइट के उजाले में उन्होंने नये सिरे से मुझे देखा, मुस्कराये और दाढ़ी सहलाते हुए बोले-
‘..तो मिश्रजी..!’
फिर उन्होंने स्नान समेत सुबह की सारी क्रियाएँ निबटायीं। मैंने भी। कपड़े न उन्होंने बदले, न मैंने। मेरे पास बदलने के लिए कपड़े नहीं थे और गोरख का इधर ध्यान भी नहीं था।
‘तो..आइए साथी कहीं चलकर कुछ खाया जाय। मेस में तो अभी कुछ मिलेगा नहीं।’
-पता चला कि उन्होंने भी कल रात के बाद से कुछ नहीं खाया है। शाम को सुबह हो रही थी उनकी और नहा-धो लेने के बाद अब भूख महसूस कर रहे थे। फिर एक अप्रचलित सी पगडंडी से होकर वे मुझे डाउन कैंपस ले गये। धुंधलके में पगडंडी के दोनों ओर दिहाड़ी मजदूरों की अस्थायी झोपड़ियाँ दिख रही थीं। डाउन कैंपस के किसी चाइनीज रेस्तराँ में हम लोगों ने कुछ खाया।
‘यहां तक तो हम लोग बस से भी आ सकते थे।’- रेस्तराँ से निकल कर मैंने कहा।
‘हाँ, आ तो सकते थे।’
‘क्यों न इस बार बस से चला जाय?’
उनके कदम रुक गये। कुछ देर खड़े रहे वे सड़क की पटरी पर-लगातार सिगरेट के कश लेते और दाढ़ी सहलाते हुए। इस बीच बस आयी भी और चली भी गयी। पल भर के लिए रफ्तार कम हुई। इसी दौरान लोग चढ़ गये, कुछ उतर गये। गोरख बस की विपरीत दिशा में मुँह किये सिगरेट का धुआँ छोड़ते रहे।
‘तो..साथी..यह रास्ता आपको.. पसंद नहीं आया..!’ - बस चली जाने पर वे मेरी ओर मुड़े और बोले। वे रुक-रुककर बोल रहे थे और परेशान लग रहे थे।
‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है। आइए इधर से ही चलते हैं।’ -बिना कुछ समझे मैं बोल पड़ा। हम लोग फिर उसी पगडंडी से लौटे। गोरख रास्ते भर चुप रहे। कमरे में लौटकर भी देर तक चुप रहे। दाढ़ी सहलाते हुए दीवार की ओर देखते रहे। बीच-बीच में सिगरेट के कश। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। ..किस बात से आहत हुए वे इस तरह? ..बस वाली बात में कुछ अनुचित तो नहीं था। ..किराया भी न लगता। पता नहीं कितनी देर तक हम लोग चुप बैठे रहे। दाढ़ी सहलाते गोरख दीवार देखते रहे और मैं गोरख को। माहौल बोझिल हो रहा था। मेरे लिए तो असह्य भी। गोरख मुझसे वरिष्ठ थे-गुरुस्थानीय। वे मेरी किसी बात से आहत हों, यह सचमुच असह्य था मेरे लिए।
‘बाबा कोई गलती हुई..?’ -करीब घंटे भर बाद मैंने पूछने का साहस किया। उन्होंने मेरी ओर देखा। मैंने ट्यूब लाइट के उजाले में उनके माथे की सलवटें देखीं और आंखों का अपरिचय भी।
‘तो मिश्र जी..!’ क्षण भर बाद वे मुसकराते हुए बोले- मानो नये सिरे से पहचान रहे हों मुझे। मेरी जान में जान आयी, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि किस बात से आहत हुए वे।
‘आइए साथी हम लोग मेस की ओर चलें। खाना मिल रहा होगा।’
-बेतरतीब किताबों के ढेर पर रखी टाइमपीस की ओर देखकर वे बोले। खाने के दौरान वे चुप रहे। खाने के बाद हम लोग फिर चाय की दूकान की ओर गये। दूकान खुली थी। अब भी वहां कुछ लड़के-लड़कियां बैठे थे-टीलों पर। सन की मोटी रस्सी सुलग रही थी। हम लोग भी एक टीले पर बैठ गये।
‘खाना कैसा रहा मिश्र जी?’
‘सब्जी अच्छी नहीं लगी। किस चीज की थी?’
‘कुँदरू की।’
‘कुँदरू?’
‘हाँ मेघदूत की नायिका के होंठों का रूपक-पक्वबिम्बाधरोष्ठी-पके कुँदरू रूपी होंठों वाली।’
‘तो यह बिंबाफल है?’
‘हां, पक जाने पर लाल हो जाता है। आकार भी लड़कियों के होंठों की तरह।’
तब तक मुझे गोरख की संस्कृत-पृष्ठभूमि का पता नहीं था। उनकी बहुज्ञता सुखद और विस्मयकारी लग रही थी। इस बीच एक लड़के और लड़की के बीच की कहा-सुनी तेज हो गयी। देखते-देखते लड़की ने लड़के की पिटाई चालू कर दी-चप्पलों से। लड़का पिटता रहा। न वह आत्मरक्षा कर रहा था, न प्रतिरोध।
‘तुम्हारी शादी हुई है मेरे साथ। कुछ तो सोचो!’
-वह बार-बार कहता। लड़की चुप थी और दोनों हाथों से चप्पल चला रही थी। लड़की की बगल में एक दूसरा लड़का खड़ा था, जो पिटाई के प्रति निरपेक्ष लग रहा था। थोड़ी ही देर में लड़की थक गयी थी शायद। उसने पिटाई बंद कर दी और बगल में खड़े लड़के के साथ चली गयी। पिटा हुआ लड़का कुछ देर वहीं खड़ा रहा, फिर सड़क की ओर चला गया।
इस घटना ने सब का ध्यान आकृष्ट किया। जब तक यह घटित होती रही, सब मंत्रमुग्ध से हुए रहे। लड़की और दोनों लड़कों के चले जाने के बाद लोग फिर बातों में व्यस्त हो गये। कुछ अंग्रेजी में बातें कर रहे थे, कुछ हिंदी में, लेकिन सब की बात-चीत के केंद्र में यही घटना थी। सुन-सुन कर पता चला कि पिटने वाला लड़का पुरानी दिल्ली के किसी सेठ का बेटा है। लड़की की शादी हुई है उसके साथ, लेकिन वह उसे पसंद नहीं करती, यहां पढ़ती है और हॉस्टल में रहती है। लड़का दिन में दूकान पर बैठता है, रात में कभी-कभी यहां आता है।
‘आत्मनिर्णय..का..अधिकार..तो होना ही चाहिए..मनुष्य के पास।’- काफी देर की चुप्पी के बाद गोरख बुदबुदाये।
आखिरी चाय पीकर हम लोग कमरे की ओर लौटै। किताबों के ढेर पर रखी टाइमपीस रात के दो बजने की सूचना दे रही थी।
‘तो..साथी..यह एक..गंभीर समस्या है।’ -गोरख फिर बुदबुदाये।
मैं चौंक गया- ‘अब क्या समस्या है बाबा?’
‘दरअसल..मैं किसी की..उपस्थिति में..सो नहीं पाता..। ..क्या आप..छत पर सो सकते हैं?’ -दाढ़ी सहलाते हुए वे दीवार की ओर देख रहे थे और परेशान लग रहे थे।
‘हां, हां। मुझे दिक्कत नहीं होगी छत पर।’
फिर उन्होंने मुझे छत का रास्ता दिखाया और समझाया कि सुबह उनके उठने की प्रतीक्षा न करूं और मेस में नाश्ता करके हिसाब उनके खाते में लिखवा दूं। मैं काफी थक चुका था और आदत के खिलाफ लेटते ही सो गया, लेकिन थोड़ी ही देर में उड़ान भरते हवाई जहाज की आवाज से घबरा कर उठ बैठा। अचानक लगा कि अगर मैं यूं ही बैठा रहा, तो सिर में जहाज की टक्कर लग सकती है और फिर लेट गया। नींद में बार-बार यह सिलसिला चलता रहा। जहाज आते और जाते रहे। उनकी गड़गड़ाहट सुनकर नींद बार-बार टूट जाती। मैं उठ कर बैठ जाता, फिर लगता कि अगर लेट नहीं गया तो इतनी कम ऊँचाई पर उड़ता जहाज जरूर सिर से टकरा जाएगा, लेकिन पता नहीं कब ऐसी नींद आयी कि मैं दिन चढ़े तक बेसुध पड़ा रहा।
धूप कड़ी हो गयी थी। सिर, माथे और चेहरे का पसीना कानों में घुसने लगा था, जब मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा-भौंचक। कुर्ते के दामन से आँखें मलते हुए नीचे आया। गोरख के कमरे का दरवाजा आधा खुला था-पहले की तरह। लाइट बुझी थी। छत से लटकता पंखा सनसना रहा था और वे अभी सोये थे। घड़ी तो मैंने नहीं पहनी थी, फिर भी अनुमान किया जा सकता था कि सोकर उठने में देर हो गयी है। अनुमान तब प्रमाण बना, जब पता चला कि लैट्रिन और बाथरूम में पानी नहीं आ रहा है। अब मेरे पास इसके सिवा और कोई उपाय नहीं था कि चाय की दूकान पर समय बिताऊँ और गोरख के उठने और शाम होने का इंतजार करूं। दोपहर ढलने लगी थी, जब अंडी की चादर की लुंगी और सलवटों वाली रेशमी खादी की कमीज पहने गोरख चाय की दूकान की ओर आते दिखे। वे सिर झुकाये चले आ रहे थे-दाढ़ी सहलाते हुए। खूब नजदीक आ जाने पर मैंने नमस्कार किया। उन्होंने सिर उठाया-
‘..तो मिश्र जी..। ..आइए साथी चाय पीते हैं।’
‘आपका नाश्ता-खाना वगैरह हुआ?’
-चाय खत्म करके सिगरेट जलाते हुए उन्होंने पूछा।
‘नहीं।’
‘क्यों..?’
मैंने अपनी स्थिति स्पष्ट की।
‘तो..यह एक..गंभीर समस्या है। ’
‘क्या?’
वे कुछ नहीं बोले।
‘यहां..पूर्वांचल के..कई साथी..रहते हैं। ..आज मैं ..आपकी भेंट उन लोगों से करवाता हूं। ..आप गीत सुनाकर उन्हें प्रभावित कर सकते हैं, फिर उन्हीं में से किसी के साथ रह भी सकते हैं। खाना-नाश्ता मेस में हो जायेगा..। ..हिसाब मेरे खाते में लिखवा दीजिएगा..और शाम से देर रात तक हम लोग साथ रहा करेंगे।’
-कुछ देर चुप रहने के बाद वे बोले। अमूमन हम लोगों के बीच यह धारणा प्रचलित थी कि गोरख जितने प्रतिभाशाली कवि और क्रांतिचेता विद्वान् हैं, व्यावहारिक मामलों में उतने ही शून्य भी हैं। इसीलिए उस दिन की उनकी व्यावहारिक चतुराई देखकर मैं विस्मित हो रहा था। लगातार दो-तीन चाय पीकर हम लोग राजेश राहुल के कमरे की ओर गये, जो उसी हॉस्टल की किसी दूसरी लॉबी में था। वहाँ उर्मिलेश मिल गये। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे सीनियर थे और वहाँ की छात्र राजनीति में अत्यंत सक्रिय थे। इलाहाबाद से एम.ए. करके ज.ने.वि. में पी-एच.डी. कर रहे थे। योजना के मुताबिक गोरख ने मेरा परिचय कराया और इसके साथ ही गीत सुनाने का प्रस्ताव भी कर दिया।
‘हाँ गुरू हो जाय।’ -उर्मिलेश ने हँसते हुए समर्थन किया। हँसने के दौरान उनके काले दाँत दिखे। काली दाढ़ी और काले दाँतों के बीच पान से रंगे होंठ चटख भेदक रेखा बना रहे थे। यों तो वहां सब दाढ़ी वाले थे, लेकिन दाढ़ी सहलाने का काम केवल गोरख कर रहे थे। मैंने कुछ गीत सुनाए- दो-तीन गोरख के, कुछ-एक अपने भी। इसी बीच किसी भूल से खुले रह गये वाश बेसिन के नल की टोंटी से पानी गिरने की आवाज आने लगी। यानी शाम हो गयी। घंटे भर बाद चाय की दूकान पर मिलने का वादा करके गान-गोष्ठी मुल्तवी की गयी।
वादे के मुताबिक हम लोग चाय की दूकान पर मिले। फिर चाय, गप-शप और गीत। खाने के बाद भी यह सिलसिला चलता रहा। इस दौरान कुछ और साथी आ गये थे, जिनके नाम मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। देर रात को सब अपने-अपने कमरों की ओर गये। गोरख भी। मैं राजेश राहुल के साथ उनके कमरे की ओर गया। रास्ते में पहाड़ पर सिर पटकता नवयुवक दिखा। वह अंग्रेजी में विलाप कर रहा था, जिसका आशय यह था कि उसकी जरूरत किसी को नहीं है। नींद में मुझे बार-बार उसका विलाप सुनायी पड़ता रहा। अचानक ऐसा लगा, जैसे गोरख बुला रहे हों। नींद खुल जाने पर भी यही लगता रहा कि यह सपना है। इतनी सुबह उनके उठने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। फिर लगा कि खिड़की के पार वे खड़े हैं और मुझे बुला रहे हैं। बाहर निकल कर देखा, तो वे सचमुच खड़े थे। उगते सूरज की लाली में सब कुछ रँगा था। जलते बल्ब बेवजह लगने लगे थे। गोरख की आँखें अधखुली थीं। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। बाद में जो समझ में आया, वह यह कि रात में मैंने निराला की एक गजल सुनायी थी, जिसकी धुन का उन पर ऐसा असर हुआ कि उसी धुन में एक गजल लिख डाली और अब चाह रहे थे कि मैं उसे गाकर सुनाऊँ ताकि वे विश्वस्त हो सकें कि गजल मुकम्मल हो गयी है। गजल सुन लेने के बाद उनके उनींदे चेहरे पर एक विशेष खुशी दिखने लगी। वे मुस्कराये और शाम को मिलने का वादा करके सोने चले गये। निराला की गजल थी- ‘किनारा वो हमसे किये जा रहे हैं।’ गोरख ने जो गजल लिखी, वह थी- ‘हमारे वतन की नयी जिंदगी हो।’
दिन भर सोये गोरख। मैं राजेश राहुल के साथ भारतीय भाषा केंद्र और लाइब्रेरी में कुछ काम करता रहा। बीच-बीच में राजेश राहुल मट्ठे जैसी लस्सी पिलाते रहे, जो उस तपती दोपहरी में अमृत जैसी लग रही थी। शाम को गोरख से फिर भेंट हुई- चाय की दूकान पर। बात-चीत के केंद्र में वह गजल ही रही। इसी सिलसिले में गोरख ने एक महत्वपूर्ण बात कही- ‘सरलता अपने आप में एक मूल्य है- साहित्य का भी और जीवन का भी।’
हम लोग मेस में रात का खाना खा रहे थे, जब किसी ने गोरख को सूचना दी कि बी.एच.यू. में दर्शनशास्त्र के प्रवक्ता की जगह निकली है। गोरख ने यह सूचना ऐसे सुनी, जैसे इससे उनका कोई संबंध ही न हो। थोड़ी देर बाद जब उसी व्यक्ति ने फिर से यह सूचना देते हुए कहा कि आप इस पद के लिए बेहतर अभ्यर्थी हो सकते हैं, तो गोरख ने आश्चर्यपूर्वक उसकी ओर देखा।
‘..तो साथी..क्या सचमुच ऐसा लगता है आपको?’ -अपने वैदुष्य से पूरी तरह बेखबर लग रहे थे वे।
‘हाँ हाँ, क्यों नहीं? लेकिन थोड़ी जल्दी करनी होगी। लास्ट डेट नजदीक है।’-मुँह का कौर जल्दी-जल्दी चबाकर वह फिर बोला- ‘मैं कल फॉर्म लेकर आपके कमरे पर आ जाता हूं।’
‘तो यह तो बहुत अच्छा होगा।’
रोज की तरह उस रात भी हम लोग खाना खाने के बाद चाय की दूकान की ओर गये। फिर देर रात तक चाय, सिगरेट और दुनिया-जहान की बातें। गोरख चुप थे और दाढ़ी सहलाते हुए सिगरेट के कश ले रहे थे। बीच-बीच में वे पूछते-‘..तो..साथी..क्या मेरी नियुक्ति..बी.एच.यू. में हो सकती है?’
‘हाँ हाँ, क्यों नहीं?’
-हम लोग कहते। वे बच्चों की तरह खुश हो जाते। अगले दिन लगभग दो बजे मैं गोरख के कमरे की ओर गया। वे न सिर्फ सोकर उठ गए थे, बल्कि खद्दर की पैंट-कमीज और पैरों में चप्पल पहने कहीं जाने को तैयार लग रहे थे। तखत पर बी.एच.यू. का फॉर्म रखा था और वे सिगरेट के कश लेते हुए कमरे में टहल रहे थे।
‘फॉर्म आ गया क्या बाबा?’
‘तो..मिश्र जी..आपको क्या लगता है? ..क्या मेरी नियुक्ति..बी.एच.यू. में..हो सकती है?’
-मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बदले उन्होंने प्रश्न किया।
‘आप ऐसा क्यों सोचते हैं? आपका नहीं होगा तो किसका होगा?’
‘तो..आइए साथी कहीं चलकर कुछ खाते हैं।’
‘आप कहीं जाने वाले हैं?’
‘नहीं, आज मुझे अपनी गाइड के पास जाना था। वहीं से आ रहा हूं।’
सीढ़ियाँ उतर कर हम लोग उसी अप्रचलित पगडंडी की ओर चल पड़े, जिससे पहले दिन डाउन कैंपस गये थे, लेकिन कुछ कदम चलकर वे रुक गये और कुछ सोचने लगे।
‘क्या हुआ बाबा?’
‘आइए साथी हम लोग चाय से ही काम चला लेंगे।’ -जैसे उन्हें कुछ याद आया हो। मुझे भी पहले दिन वाली घटना याद आयी। पछतावा नये सिरे से होने लगा। ..मेरे किस व्यवहार से उस दिन आहत हुए वे? हम लोग चाय की दूकान की ओर गये। चाय, सिगरेट, गीत और बातों का सिलसिला शाम तक चलता रहा। खाना खाने के बाद फिर बैठे हम लोग- रोज की तरह। हाँ, आज गोरख की स्थिति भिन्न थी। अभी कल तक उन्हें अपनी अभ्यर्थिता को लेकर संदेह था और आज फॉर्म मिल जाने और गाइड तथा मित्रों की आश्वस्तियां सुन लेने के बाद वे मान बैठे थे कि नियुक्ति हो गयी है।
‘तो बाबा कल फॉर्म भर लीजिए। और भी जो औपचारिकताएं हों, पूरी कर लीजिए। लास्टडेट नजदीक है।’ -देर रात को जब हम लोग अलग होने को हुए, तो मैंने कहा। शायद मेरी बात से उनकी कल्पना को ठेस लगी। थोड़ी देर चुप रहे वे, फिर बोले- ‘तो..साथी..क्या आप..कल..सुबह..दस बजे तक..मेरे कमरे पर आ जाएंगे?’
‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं?’
अगले दिन दस बजे मैं उनके कमरे पर पहुंचा, तो वे सो रहे थे। थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद मैंने कोशिश करके जगाया, तो उन्होंने प्रश्नाकुल आँखों से मुझे देखा। सिगरेट के कुछ कश लेने के बाद उन्होंने चाय की दूकान की ओर चलने का इशारा किया। चाय पीकर हम लोग फिर कमरे की ओर लौटे-चुपचाप।
‘तो..क्या..समस्या है साथी?’-तखत पर बैठते हुए उन्होंने पूछा। रात की बात वे पूरी तरह भूल गये थे। मैंने फॉर्म की याद दिलायी। वे थोड़ी देर चुप रहे, फिर उन्हीं कपड़ों में चलने को तैयार हो गये। कमीज बदल गयी थी। लुंगी वही थी।
‘कुछ कागजात लेंगे?’
‘नहीं साथी। गाइड ने कहा है कि चूँकि थीसिस जमा है और डिग्री अभी नहीं मिली है, इसलिए शोधकार्य के बारे में एक संक्षिप्त वक्तव्य टाइप करा देना जरूरी है, बस।’
‘बाबा गाइड के कहने का आशय यह नहीं कि हाई स्कूल से एम.ए. तक के दस्तावेजों की जरूरत ही नहीं है।’
वे चुप हो गये। थोड़ी देर हम लोग चुप खड़े रहे, फिर उन्होंने कुछ किताबों को उलटना-पलटना शुरू कर दिया। तकरीबन आधे घंटे की मशक्कत के बाद विश्वविद्यालय स्तर के दस्तावेज तो मिल गये, लेकिन माध्यमिक और प्राथमिक कक्षाओं के नहीं मिले। देर तक पंखे की सनसनाहट सुनायी पड़ती रही और किताबों की उठा-पटक। गोरख के माथे की सिकुड़नें गहरी हो गयी थीं। कमरा सिगरेट के धुएँ से भर गया था।
‘बाकी..दस्तावेज..टुन्ना के घर में..हो सकते हैं..।’ -अचानक बोले वे -दाढ़ी सहलाते हुए।
‘टुन्ना..?’
‘आप टुन्ना को जानते होंगे साथी।’
तब तक मैं जलेश्वर का यह नाम नहीं जानता था, जबकि वे मेरे आत्मीय थे और बिना मंच और बिना वेश-भूषा के अभिनय करने की प्रथम दीक्षा उन्हीं ने दी थी। गोरख मुझे यह समझाने लगे कि टुन्ना का घर बनारस के किस मुहल्ले की किस गली में है।
‘बाबा यह सब मुझे क्यों समझा रहे हैं?’
‘साथी क्या आप बनारस तक नहीं चले जाएंगे? ..किराया..मैं दूँगा। ..ऐसे भी आपको इलाहाबाद तक जाना है।’
‘ठीक है। चले जाएंगे, लेकिन चलिए पहले आज का काम तो कर लिया जाय।’
थोड़ी देर बाद हम लोग हवा सिंह की दूकान के सामने खड़े थे। गोरख ने अपने लिए सिगरेट का पैकेट लिया। मुझे पान खिलाया, तब तक बस आ गयी। रफ्तार कम हुई। कुछ लोग चढ़ गये, कुछ उतर गये। बस चली गयी। गोरख जहाँ के तहाँ खड़े रहे।
‘क्या हुआ बाबा?’
‘तो..मिश्र जी..क्या आप..उस पगडंडी से..चलना पसंद नहीं करेंगे?’
‘इस धूप में..!’
मेरा प्रतिप्रश्न सुनकर वे चुप हो गये और उदास भी। मैंने इधर ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर में दूसरी बस आयी। रफ्तार कम हुई। मैं पीछे के गेट से चढ़ गया और खाली सीट तलाशते हुए आगे की ओर बढ़ गया। बीच में कुछ सीटें खाली थीं। बैठने से पहले मैंने गोरख की तलाश में पीछे की ओर देखा। वे सबसे पीछे खड़े थे। मैंने इशारे से बुलाया। वे कुछ नहीं बोले, कोई इशारा भी नहीं किया। बहुत व्यग्र लग रहे थे वे। न सिगरेट पी रहे थे, न दाढ़ी सहला रहे थे। फैली हुई आँखों की हल्की सफेद पुतलियाँ शायद कुछ नहीं देख रही थीं। जहाँ थे, वहीं खड़े रहे वे-सबसे पीछे, सबसे अलग। बस डाउन कैंपस पहुंच कर धीरे हुई, तो हम लोग उतर गये। गोरख बस से उतर कर वहीं खड़े हो गये-सड़क किनारे। सिगरेट के कुछ कश लेने के बाद वे सहज हुए।
‘तो..साथी..अब..क्या करना चाहिए?’
‘सबसे पहले तो थीसिस के बारे में अपना वक्तव्य टाइप कराइए
और दस्तावेज मुझे दीजिए, मैं फोटो कॉपी कराके आता हूँ।’
‘..यह तो..गंभीर समस्या है।’-वे बुदबुदाये।
‘अब क्या समस्या है बाबा?’
‘दस्तावेज..तो कहीं..छूट गये।’
‘क्या..?’
‘हाँ..साथी..।’
‘कहीं बस में तो नहीं छूट गये?’
वे कुछ नहीं बोले। हम लोग सड़क किनारे खड़े थे-किंकर्तव्यविमूढ़।
‘जहाँ तक मैं..समझता हूँ, दस्तावेज..हवासिंह की दूकान पर..हो सकते हैं।’
‘तब?’
‘साथी..क्या..आप..बस से..हवा सिंह..की दूकान तक..जा सकते हैं?’-उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
हवा सिंह की दूकान पर कागजात सही-सलामत मिल गये और मैं उन्हें लेकर लौटा, तो गोरख वहीं खड़े मिले, जहाँ पहले खड़े थे-सड़क किनारे।
‘तो..साथी..आपने..बहुत बड़ा काम..किया है। आइए..कहीं..कुछ खाते-पीते हैं।’
अब वे मुस्कराते हुए दाढ़ी सहला रहे थे।
‘नहीं बाबा आइए पहले ये काम कर लिये जाएं।’
‘तो..साथी..आप फोटो कॉपी करा लें..और मैं टाइप करवा लेता हूँ।’
दोनों दूकानें आस-पास थीं। फोटो कॉपी का काम जल्द ही हो गया और मैं गोरख के पास आ गया। सँकरे गलियारे जैसी जगह में टाइपिस्ट एक स्टूल पर बैठा था। बीच में टाइपराइटर। सामने एक दूसरा स्टूल-ग्राहक के लिए। गोरख खड़े थे और आँखें मूँदे डिक्टेशन बोल रहे थे-अँग्रेजी में। उनके खड़े होने के बाद गलियारे में बहुत कम जगह बची थी। एक युवक बार-बार उधर से ही आ-जा रहा था। हर बार उसकी कुहनी गोरख को छू जाती। दो-तीन बार ऐसा हुआ। अचानक गोरख का डिक्टेशन रुक गया। बंद आँखें खुल गयीं और एक अजीब आवेश से काँपने लगे वे।
‘मिश्र जी..यह आदमी..मुझे..इरादतन..अपमानित कर रहा है।’- युवक की ओर तर्जनी उठाकर किसी तरह बोले वे।
‘मैंने तो कुछ नहीं किया।’- युवक हक्का-बक्का खड़ा था। टाइपिस्ट गोरख का चेहरा देख रहा था। मैंने यह सुन रखा था कि किसी से छू जाने पर वे असहज हो जाते हैं, लेकिन उस समय की उनकी उत्तेजना देखकर मैं निरुपाय हो रहा था। कभी मैं गोरख का मुँह देखता, कभी युवक का। वह कोई मजदूर लग रहा था और अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए खड़ा था। गोरख अपनी जगह खड़े थे। नथुने फड़क रहे थे, लेकिन वे कुछ बोल नहीं रहे थे। आँखें खुली थीं, लेकिन ऐसा लगता था, जैसे उन्हें कुछ दिख न रहा हो। थोड़ी देर में आवेश कम हुआ, तो उन्होंने सिगरेट जलायी। कुछ कश लेने के बाद आँखें फिर मुँद गयीं और वे डिक्टेशन बोलने लगे।
लौटती बार हम लोग पैदल आये-पगडंडी से। उनकी स्पर्श-संवेदना का यह हाल देख कर बस से चलने का प्रस्ताव नहीं कर सका मैं। पहाड़ी पगडंडी पर हम लोग चुपचाप चले जा रहे थे। लू चल रही थी। मजदूरों की झोपड़ियों के इर्द-गिर्द छोटे बच्चे खेल रहे थे। मेरे दिमाग में कभी उस युवक का निरीह चेहरा झाँक रहा था, तो कभी गोरख का उद्विग्न चेहरा। ..गोरख जनता के कवि हैं। ..वह युवक भी तो जनता का आदमी था। ..कपड़ों से मजदूर लग रहा है। ..उसकी छुअन से गोरख क्यों इतना परेशान हो गये? ..लेकिन ये तो सहपाठियों से छू जाने पर भी आपा खो बैठते हैं। ..क्या वजह हो सकती है? ..इनकी क्रांतिकारी चेतना पर संदेह नहीं किया जा सकता। ..इनका पूरा रचनाकर्म शोषण और गैर बराबरी के खिलाफ संकल्पित है। ..वह कौन सी अप्रिय छुअन थी, जिसने इनकी स्पर्श संवेदना को सदा के लिए कुंठित कर दिया? मैं गोरख के पीछे-पीछे चला जा रहा था और दिमाग में उधेड़बुन चालू थी।
उसी शाम गोरख ने मुझे बनारस तक का किराया दिया और अधूरे दस्तावेजों के साथ फॉर्म भी। एक चीज और दी उन्होंने-अपना कविता-संग्रह : ‘साथी..बनारस में..आपको..देवरिया के बहुत से विद्यार्थी..मिल जायेंगे। ..किसी से यह किताब..मेरे पिता के पास भिजवा दीजिएगा।’
बनारस पहुँच कर मैंने जलेश्वर का मकान खोज लिया था। जहाँ-जहाँ गोरख के दस्तावेज होने की संभावना थी, जलेश्वर ने तलाश की। कई घंटे की छान-बीन के बाद गोरख की इबारत वाले कुछ पन्नों के सिवा कुछ नहीं मिला। ..अब?
गोरख का कविता संग्रह उनके पिता तक पहुँचाने का काम तो आसानी से हो गया। बनारस में सचमुच देवरिया के बहुत से विद्यार्थी थे। सब गोरख को जानने वाले-चाहने वाले। कविता-संग्रह उनके पिता तक ले जाने की होड़ मची थी उनमें। ..लेकिन फॉर्म का क्या किया जाय? आखिरकार अधूरे दस्तावेजों के साथ ही फॉर्म को डाक के हवाले कर दिया गया। फिर हम लोगों ने मिलकर ठहाका लगाया था- मैं, जलेश्वर और दूसरे कई साथियों ने। उस समय दूर-दूर तक यह आशंका नहीं थी कि ये असहजताएं उनके किसी मनोरोग की अभिव्यक्ति हैं, जो एक दिन उनकी असमय दारुण मृत्यु का कारण बन सकता है।