मंगलवार, 8 जून 2010

बाबा की उघन्नी- शिवशंकर मिश्र

                 बारात आयी भी और चली भी गयी। सारा तामझाम हुआ। सारी रस्में पूरी की गयीं।खूब झाँय-झाँय हुआ। खूब झिकझिक हुई। आखिर में बैन करके रोती सियादुलारी भी विदा हो गयी, लेकिन बाबा की चारपाई जहां थी, वहीँ रही।पूरब के दालान में ऐन भंडारघर के सामने। पता नहीं कब से बिछी है यह चारपाई यहाँ... । बाबा के इकलौते पुत्र हीरालाल जी तिवारी कभी-कभी हिसाब करते हैं, तो पाते हैं कि पिछले तीस बरस से बिछी है यह चारपाई यहाँ। इसी पर लेटे रहते हैं बाबा। उठ-बैठ नहीं पाते। शौच आदि के लिए परिवारीजनों पर निर्भर रहते हैं। इन तीस वर्षों में बहुत कुछ बदला। पूरी दुनिया ही बदल गयी। बाबा की अपनी दुनिया थी। अपना परिवार...। अपने खेत... । यह दुनिया भी बदली। दुआर पर बैल कम हो गए। ट्रैक्टर आ गया और यह परिवार ऊपर से अमीर और भीतर से गरीब हो गया। घर में कई बच्चे पैदा हुए और बड़े हो गए। कई बारातें आयीं और गयीं। बाबा की चारपाई अपनी जगह ही रही। यहीं से लेटे-लेटे बाबा सब कुछ देखते-सम्हालते रहे...। कल रात भी वे लेटे-लेटे देखते रहे, जितना देख सकते थे। सुनते रहे, जितना सुन सकते थे। बोलते रहे,जितना बोल सकते थे, हमेशा की तरह। बाजे-गाजे के बीच उनकी आवाज सुनायी नहीं पड़ रही थी।बीच-बीच में संतोख बाबा के पास आता। उनके कान के पास मुंह ले जाकर कुछ कहता और बाबा कांपते हाथों से भंडारघर की चाबियों का गुच्छा उसे थमा देते। जो भी मेहमान आये और गये, सब बाबा के पास आये। नाम बता कर पैलगी की। बाबा ने सब को कांपते हाथों से छुआ। विह्वल हुए। आशीर्वाद दिया और दो-एक मार्मिक बातें कीं, जो बड़ी मुश्किल से लोगों की समझ में आयीं।
                 कल सांझ से आज सबेरे तक कितनी गहमा-गहमी थी यहाँ और अब आधी रात जैसा सन्नाटा पसरा है भरी दोपहर में। लू चल रही है। दुआर पर शामियाना फड़फड़ा रहा है। लाल फाइबर की कुर्सियां बेतरतीब पड़ी हैं। दालान में परिवार के मर्द और घराती मेहमान सोये हैं। उनके खर्राटे सुनाई पड़ रहे हैं और हवा की साँय-साँय। औरतें भीतर हैं, लकड़ी के इस मेहराबदार फाटक के भीतर। मेहराब और किवाड़ पर मांगलिक अल्पनाएं और बारीक बेलबूटे खुदे हैं। मेहराब, साह चौखट, किवाड़ और खम्भे अलकतरे से रंगे हैं। चूने से पुती सफेद दीवार पर फाटक के दोनों ओर औरतों ने पिसे चावल, हल्दी और सिन्दूर के घोल से हथेलियों की छाप मार दी है। बीच-बीच में औरतों के रोने-झगड़ने की आवाजें किवाड़ के पार आ जाती हैं। अभी भोर तक वे गीत गा रहीं थीं। सारी रात गाती रहीं वे। पंडित मन्त्र पढ़ते रहे। औरतें बेटी के गवन के गीत गाती रहीं :
                  ...ऊसर मिट्टी को गोंड़-गोंड़ कर हमने ककड़ी के बीज बो दिए...। पता नहीं मीठी होंगी ककड़ियां या कड़वी ... । पूरे नगर में घूम-घूम कर पिता ने वर खोजा है तेरे लिए। नहीं मालूम क्या लिखा है तेरी तकदीर में... ।
                              गहरा अवसाद जगाने वाली धुनें। न ढोल न मजीरा। बारात  खाना खाने बैठी थी, तो औरतों ने गारी के गीत गाये थे। उन गीतों में बजा था ढोल-मजीरा। फिर नहीं बजा। सारी रात कर्मकांड होता रहा। औरतें गीत गाती रहीं...।अब लड़-झगड़ रही हैं दोपहर में। बच्चों का एक बड़ा झुण्ड नीम तले तिकोनी बैलगाड़ी पर खेल रहा है। सब इसी परिवार के बच्चे हैं। सब पांच साल के भीतर। वे कभी तिकोनी बैलगाड़ी के अगले छोर पर चढ़ जाते हैं, तो पिछला उठ जाता है। पिछले पर चढ़ते हैं, तो अगला उठ जाता है। यह उन्हें जादू जैसा लग रहा है।ज्यादा छोटे बच्चे बैलगाड़ी पर नहीं चढ़ पा रहे हैं। वे हाथ उठाकर बड़े बच्चों से गाड़ी पर चढ़ा लेने की शब्दहीन प्रार्थनाएं कर रहे हैं। रो भी रहे हैं। बड़े बच्चे अपने में मस्त हैं। लू चल रही है। नंग-धड़ंग बच्चे लू से बेअसर हैं। वे खेल रहे हैं और शोर मचा रहे हैं। रामलली सबसे अलग खेल रही है। पहले वह मंदिर के पिछवाड़े सुबकती रही देर तक, फिर आम के बाग की ओर चली गयी थी। कच्चे आम तोड़ने का विफल प्रयास करके लौटी है और अब बैलगाड़ी के पास खड़े ट्रैक्टर पर बैठ कर ट्रैक्टर चलाने का खेल खेल रही है। थोड़ी ही देर में वह ऊबने लगी। आज हर खेल थोड़ी ही देर में बेकार लगने लगता है। फिर सियई दीदी का बैन... । ...काहे भेज दिया गया दीदी को, जब वे इतना रो रही थीं...?डकार आई। डकार में केवड़े की गंध। अच्छी नहीं लगी गंध। दो दिन से केवड़े के फूल डाले गये हैं कुंए में। कल अच्छी लगी थी पानी में केवड़े की गंध। आज अजीब-अजीब हो रहा है मन उसी गंध से।
           अचानक उसे लगा कि बाबा पुकार रहे हैं। ...सियई दीदी तो गयीं। ...अब किसे पुकारेंगे बाबा ? ...अब कौन सुनेगा छिन-छिन पर बाबा का अढ़ौना? वह दौड़ कर दालान की ओर गयी। सब सोये हैं। लोगों के मुंह खुले हैं। किसी के मुंह में मक्खी घुस गयी तो...?रामलली चिंतित हुई। वनस्पति तेलों के भभके उठ रहे हैं दालान में। रामलली को उबकाई महसूस हुई। बाबा जाग रहे हैं।
' छ्बललियाऽऽ छ्बललियाऽऽ अरे का नाम ? का नाम ? छ्बललियाऽऽ।'
-कफ से जूझती खरखराहट भरी आवाज हाथ काँप रहे हैं।
 पैर कांपते भी नहीं तीस साल से।
'नाम काहे बिगाड़ते हो बाबा? रामलली कहो
 रामलली। छ्बलली कहोगे तो नहीं बोलूंगी हाँ। '
- रामलली ने बाबा के मुंह पर बैठी मक्खियों को उड़ाते हुए कहा।
'हाँ... हाँ...का नाम उघन्नी। हाँ उघन्नीऽ। उघन्नी खोजो बिटियाऽऽ।'
-ऐसे ही बोलते हैं बाबा। एक बात को बीस बार। सबका नाम भूल जाते हैं और भूले हुए नाम वाली खाली जगह में कोई दूसरा नाम इस तरह बैठ जाता है कि हट ही नहीं पाता  बाबा के दिमाग से। चारपाई के नीचे से सुतली में बंधी चाबियों का एक बड़ा गुच्छा रामलली ने उठाया और बाबा को थमा दिया। कांपते हाथों से बाबा ने चाबियों का गुच्छा थामा। आँखों के पास हाथ ले जाकर चाबियों का निरीक्षण करना चाहा। आँखें साथ नहीं दे पायीं पूरी तरह। उँगलियों से टटोल कर चाबियों की पहचान की बाबा ने। माथे की सिकुड़नें   कम हुईं। वनस्पति तेलों की गंध के भभके उठ रहे हैं। मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। बाबा के मुंह पर अब नहीं बैठ पा रही हैं मक्खियाँ। रामलली उड़ा रही है उन्हें। बाबा ने चाबियों का गुच्छा मुट्ठी में कस कर पकड़ रखा है। धुंधली आखें पता नहीं क्या देख रही हैं। नीम तले बच्चे शोर मचा रहे हैं। बीच-बीच में औरतों के रोने-झगड़ने की आवाजें और हवा की साँय-साँय सुनायी पड़ जाती है। बाबा ये आवाजें नहीं सुन पाते। रामलली सुन रही है हर आवाज। उसे कुछ लेना-देना नहीं इन आवाजों से। दीदी के जाने से आज उसका आज उसका महत्त्व बढ़ गया। अभी थोड़ी देर पहले वह दीदी के वियोग में सब कुछ भूल गयी थी। अब दीदी के जाने से बढ़े हुए महत्त्व के एहसास में मगन है। ...अब बाबा दीदी को नहीं बुलायेंगे। अब तो रामलली ही बची है बाबा की टहल के लिए। वह एकटक बाबा का चेहरा देख रही है और मक्खियाँ उड़ा रही है। बाबा के माथे की सिकुड़नें फिर बढ़ने लगीं।
'का है बाबा ?'
'का नाम का नाम...'
'रामलली रामलली। '
- बाबा का वाक्य पूरा नहीं हुआ था कि रामलली बोल पड़ी।
'वो नहींऽ वो नहींऽ। लेखाऽ लेखाऽ लेखा दो। जाओ बुला लाओ का नाम संतोख संतोख संतोख को।' - हाथ काँप रहे हैं। कफ से जूझती आवाज बड़ी मुश्किल से निकल रही है।
...लेखा ? ...लेखा कहाँ मिलेगा ? रामलली सोच में पड़ गयी। ...संतोख कक्कू कहाँ गये ? ...दालान में तो नहीं हैं। ...उत्तर की अटारी पर तो नहीं हैं ? पूरे घर में मिठाइयों और बासी पकवानों के टुकड़े गिरे हैं। हर जगह मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। हर कमरे में लोग उल्टे-सीधे लेटे हैं।सब सो रहे हैं। छोटकी काकी आँगन से सटे अपने कमरे में कराह रही हैं। माई आँगन में खड़ी है। काकी और माई में कुछ कहा-सुनी चल रही है।
'इस घर में कोई मरे चाहे जरे, किसी को क्या मतलब ? सबको अपनी-अपनी पड़ी है।' - अपने कमरे में कराहती हुई काकी बोल रही थीं।
'ए नचकऊबहू घर को दोख न लगाओ हाँ ! दुआर पर चार आदमी बैठे हैं, तो लीला दिखा रही हो। जब भगवान ने मेहरारू का तन दे ही दिया, तो यह सब तो लगा ही रहेगा। ' - चिंचियाती हुई माई का चेहरा बहुत खराब लगा रामलली को। कुछ देर वह खड़ी रही आँगन में। अचानक बाबा की बात का ध्यान आया। दौड़ते हुए वह उत्तर की अँटारी की सीढियां चढ़ने लगी। आखिरी सीढ़ी पर पहुँच कर अटक गयी। क्या माँगा है बाबा ने ? उसने खूब कोशिश की, लेकिन नहीं याद आया। क्या कहेगी कक्कू से कि बाबा ने क्या माँगा है ? ...कह देगी बाबा ने बुलाया है।
'काकी हो ! काकी हो ! किवाड़ खोलो। कक्कू को बाबा बुला रहे हैं।' - वह किवाड़ पीट रही थी और चिल्ला रही थी।
'भाग जा नहीं तो उखाड़ लूंगी झोंटा। बड़ी आयी बाबा की दूती बनकर। मांग रहे होंगे, जो मांग रहे होंगे। इतनी बड़ी पलटन पड़ी है घर में। और कोई नहीं है ? अभी तो जाकर सोये हैं किसी तरह।' - दरवाजा खोलते ही काकी झपट पड़ीं। उनका आखिरी वाक्य पूरा होते-होते वह नीचे की आखिरी सीढ़ी उतर रही थी। फिर अटक गयी वह। ...क्या कहेगी बाबा से ? बड़ी देर तक वह वहीँ खड़ी रही मुंह लटकाए। छोटकी काकी कराह रही हैं। माई से उनकी कहा-सुनी चल रही है। रामलाली को डकार आई । फिर केवड़े की गंध...। पेट से निकल कर मुंह में समा गयी गंध। गहरी उदासी भर गयी मन में... । सब भूल कर वह मकान के पिछवाड़े उल्टी लंगड़ी का खेल खेलने चली गयी। जूठी पत्तलों और कुल्हड़ों का ढेर लगा था वहां। वनस्पति तेलों और बासी पकवानों की महक हवा में उड़ रही थी। कुत्ते पत्तलें चाट रहे थे। वे गुर्रा रहे थे और पत्तलें चाट रहे थे। रामलली उल्टी लंगड़ी का खेल खेल रही थी। अचानक एक कुत्ता दूसरे पर टूट पड़ा। रामलली थोड़ी ही देर खेल पायी थी कि कुत्तों ने एक दूसरे को काट खाया। वह डर गयी। भीतर चली गयी वह डरकर। काकी और माई की कहा-सुनी जारी है। आये दिन इस बड़े परिवार की औरतों में झगड़े होते रहते हैं। ज्यादातर झगड़े खाना बनाने के लिए। एक चूल्हे पर इतने लोगों का खाना... । कौन धिके उपलों और लकड़ी की आंच में...? लेकिन खाना तो बनाना ही पडेगा... । बिना खाना खाए कोई कैसे जियेगा...? बात ज्यादा बढ़ने पर कभी फैसला कर दिया था हीरालाल जी ने। आज भी चलता है वही फैसला। पन्द्रह -पन्द्रह दिन के लिए दो-दो औरतों की पारी बाँध दी थी उन्होंने। इस समय नचकऊबहू की पारी चल रही है खाना बनाने की। लेकिन वह बीमार है। माई समझती है कि वह नखरा दिखा रही है। रामलली पल भर खड़ी रही आँगन में। उसे लड़ते हुए कुत्तों के चहरे याद आये। वह दालान की ओर भाग चली। ...क्या माँगा है बाबा ने ? कदम फिर रुक गए... ।
             सांझ हो गयी है। शामियाना उखड़ गया है। औरतें मकान के पिछ्वाड़ेपोखरे के घाट पर चौथी छुड़ा रही हैं। बीच-बीच में उनके गीतों के बोल सुनाई पड़ते हैं-
'बोये न होतिउँ सरसइया त का दइ पेरउतिउँ होऽ।
जनमी न होतिउँ बिटीवा त का दइ पुजतिउँ होऽ।'
...सरसों न बोई होती, तो क्या देकर तेल पेरातीं ...?
...बेटी का जन्म न हुआ होता, तो क्या देकर पूजा करतीं...?'
                   वे पोखरे की पूजा कर रही हैं... । ज्यादातर रिश्तेदार चले गए हैं। जो रुके हैं, उनकी चारपाइयाँ दुआर पर बिछी हैं , जहां अभी कुछ समय पहले शामियाना तना था। बाबा की चारपाई अपनी जगह। ऐन भंडारघर के सामने। संतोख लेखा दे रहा है। बाबा के मुंह की ओर बैठा है मोढ़े पर। लालटेन जल रही है दालान में। बिजली नहीं है।
'बिजली काहे नहीं आ रही है हो ?' - दुआर पर बैठे रिश्तेदारों के प्रश्न ।
'बिजली नहीं आयेगी महराज। चोर तार काट ले गए हैं। तीन किलोमीटर तक । तब से अँधियर घुप्प। हाँ! पूरा ऐकेट - पैकेट अंधियर घुप्प ।'
              -हीरालाल जी रिश्तेदारों की खातिर -तवज्जो में लगे हैं ,दुआर पर ,नीम तले। हवा में अब भी जलन है। यहाँ रोशनी का कोई इंतजाम नहीं है। लोग अँधेरे में बैठे हैं। दालान में लालटेन जल रही है,बाबा की चारपाई के पास। बाबा लेखा ले रहे हैं। हाथ काँप रहे हैं। होंठ काँप रहे हैं। आवाज बड़ी मुश्किल से निकल रही है। बातें मुश्किल से समझ में आ रही हैं। संतोख की मुसीबत है आज। हर बात कान में बतानी पड़ रही है । बार-बार उठा - बैठक। एक-एक चीज का लेखा ले रहे हैं बाबा। संतोख का दिमाग चकरा रहा है। एक तरफ कर्ज का बोझ, दूसरी तरफ बाबा का लेखा... ।
'सोनहुलाऽ सोनहुलाऽ सोनहुलाऽ कितने थान ? कितने थान ?' - बाबा जानना चाह रहे हैं कि सोने के कुल कितने गहने बने। संतोख का दिमाग चकरा रहा है। वह निर्णय नहीं ले पाता कि क्या कहे, तब तक बाबा गिनाने लगते हैं अपने समय के गहनोंके नाम। ऐरन, बाजू बैरक्खी, हँसुली, हवेल, झुमकी, माथबेंदी और भी पता नहीं क्या-क्या ? संतोख के मुंह से कभी हाँ निकल जाता है, कभी ना। फिर कौन सी चीज कितने भर। यानी कौन चीज कितने तोला, कितने माशा। अब सोने का रेट। ...क्या बता दे संतोख ?
उसने तीस साल पहले की सोने की कीमत का अनुमान किया... । रिश्तेदार चौंक गए। संतोख ने सोने की जो कीमत बतायी, वह प्रचलित कीमत से इतना कम थी कि रिश्तेदार विश्वास नहीं कर सके। अब चांदी। फिर गहनों के नाम। करधन, छागल, पाँवपैजनिया, लच्छा - पटरी, इसी तरह और भी बहुत कुछ। अब फटफटिया। फटफटिया...? मोटरसाइकिल। हर चीज का दाम तीस साल पहले की कीमत का अनुमान करके बताया जा रहा है। दहाई सैकड़ा में। घी, चीनी, कपड़ा, पतरी-दोना, करई-कसोरा। कुछ भी छोड़ नहीं रहे हैं बाबा। बहुत दिमाग लगाना पड़ रहा है संतोख को। हज़ार की चीज सैकड़ा में। सैकड़ा की चीज दहाई में। दहाई की इकाई में। बाबा की आवाज बड़ी मुश्किल से निकलती है। संतोख  को तेज बोलना पड़ता है। नीम तले  चारपाइयों पर बैठे रिश्तेदार अब आपस में बातें नहीं कर रहे हैं। वे बाबा और संतोख की बातें सुन रहे हैं चकित होकर। तीस साल पहले की कीमतें रिश्तेदारों के दिमाग में अँट नहीं पा रही थीं । बाबा के दिमाग में आज की कीमतें नहीं अँट सकतीं। बेटी का ब्याह अब लाख के नीचे हो ही नहीं सकता और बाबा लाख का लेखा सुन नहीं सकते।
'अब जोड़ोऽ। जोड़ो अब। सामलाट लेखाऽ। सामलाट लेखाऽ।' - सब चीजों का लेखा मिल जाने पर बोले बाबा। ...जोड़ हज़ार में होना चाहिए। लाख की गिनती आई कि बाबा की मौत हो सकती है। बाबा की मौत...। काँप उठा संतोख इस कल्पना से... । बाबा के बिना यह घर नहीं चल सकता, यह सामूहिक विश्वास उस परिवार में प्रचलित था। इस विश्वास का अपना आधार था। बाबा इस परिवार के आधार पुरुष हैं। बाबा के इकलौते पुत्र हीरालाल जी। हीरालाल जी के सात पुत्र और तीन पुत्रियाँ। हीरालाल जी के हर पुत्र के चार-चार, पांच-पांच पुत्र। पुत्रियाँ अलग। इस तरह इस विशाल संयुक्त परिवार के मूल पुरुष बाबा ही हैं। बाबा ने ही खरीदे हैं इतने सारे खेत। कैसे खरीदे , यह हीरालाल जी जानते हैं। कभी-कभी हीरालाल जी बाबा के त्याग के किस्से सुनाते हैं। किस तरह बाबा एक धोती खरीद कर उसके दो टुकड़े करवाते और उसी से साल भर काम चलाते थे। किस तरह बाबा ने अब तक केवल एक मिर्जई, पांच सादी और एक रुइहा बंडी पर एक सौ दस साल का जीवन काट दिया। पूरे एक सौ दस साल गिनकर बताते हैं हीरालाल जी बाबा की उम्र। हाँ ब्याह-बारात के लिए दो कलीकाट कुर्तों और दो जोड़ी चमौधा जूतों की भी जरूरत पड़ी। विवादित खेतों पर कब्जा करने के लिए लाठी चलानी पड़ी। चलाई लाठी बाबा ने। ऐसी चलायी कि नामी लठैत हो गए। उसी बीते पराक्रम के प्रतीक रूप में मोटी  लाठी सिरहाने रखी जाती है, जिसे अब बाबा नहीं उठा पाते। जिन दिनों बाबा की नयी उम्र थी, कुछ लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। बाबा की समझ में यह सब ठीक नहीं था। हाकिम-हुक्काम से बैर करने पर नुक्सान ही होगा... । वे जमीन खरीदने में लगे रहे। मिडिल पास करते ही हीरालाल जी को सरकारी नौकरी मिल गई थी। वे दूर-दूर तक साइकिल से जाते। नौकरी करते। बाबा की ही तरह एक धोती के दो टुकड़े करवाते। उसी से साल भर काम चलाने की कोशिश करते और हर महीने पूरी तनख्वाह बाबा के हाथों में रख देते। बाबा की आँखें छलछला आतीं... । इसी किफायतशारी के चलते इतना बड़ा मकान बनवाया है बाबा ने, कचौड़ीदार। भीतर की दीवारें मिट्टी की और बाहर की ईंट की। बड़ा सा लकड़ी का मेहराबदार फाटक, खम्भेदार दालान। दालान के उत्तर में भंडारघर।इसी के सामने रहती है बाबा की चारपाई। भंडारघर की चाबियों का गुच्छा बाबा खुद अपने पास रखते हैं। तब भी रखते थे, जब दादी जीवित थीं और बाबा दूर -दूर तक जाकर खेत खरीदते थे और अब भी, जब कि बाबा उठ-बैठ भी नहीं पाते। यों इस गुच्छे की हर चाबी नकली है , लेकिन सिरहाने रखी लाठी और चाबियों के इस गुच्छे के बल पर ही बाबा की संप्रभुता टिकी है। दालान में ठीक भंडारघर के सामने चारपाई पर पड़े रहते हैं वे। ऋतुएं आती हैं और जाती हैं, बाबा की चारपाई यहीं रहती है। इसी पर होती हैं उनकी सभी क्रियाएं। हाथ कांपते हैं। पैर कांपते भी नहीं। आँखें कम देखती हैं। कान कम सुनते हैं, फिर भी बाबा इस घर को चला रहे हैं। पिछले तीस सालों से चला रहे हैं इसी तरह। बिस्तर पर पड़े-पड़े वे किस खेत में क्या बोया गया और किस काम में कितना खर्च हुआ, इन सब बातों का ब्योरा और लेखा लेते आ रहे हैं।
'सामलाट लेखाऽ सामलाट लेखाऽ सामलाट लेखाऽ बोलो । बाबा का प्रश्न सुनकर संतोख चौंक गया। वह भी शामिलात लेखा यानी कुल खर्च जोड़ रहा था। तीन लाख के अल्ले-पल्ले जा रहा था कुल खर्च। उसका दिमाग बुरी तरह चकरा रहा था। लाख तो लाख बाबा दस हजार का खर्च सुनते ही असहाय हो जाते हैं। फिजूलखर्ची के चलते परिवार के सत्यानाश की आशंका से मूर्च्छित होने लगते हैं वे। इसीलिये भंडारघर की चाबियों का गुच्छा अपने पास रखते हैं। शादी-ब्याह का खर्च अब लाख से कम नहीं होता और बाबा को लाख के खर्च की सूचना देना प्राणघातक है। इसीलिये कभी तीस साल पहले संतोख ने हीरालाल जी की सहमति से भंडारघर का ताला बदल दिया था। अचानक एक दिन असली चाबियाँ बेकार हो गयीं। नकली चाबियाँ काम आने लगीं। हर रोज संतोख बाबा से चाबी माँगने का नाटक करता है। आज महँगा पड़ रहा है नाटक। बरात विदा होते ही वह खुद जोड़ने लगा था कुल खर्च और कर्ज। ...औरतों के गहने-गिरौं हैं।किसान क्रेडिट कार्ड से सारा पैसा निकाला जा चुका है। ...एक लाख के लगभग दुकानदारों का हो गया है। बेचेने के लिए केवल गेहूं बचा है और गेहूं अभी बहुत सस्ता है। ...गेहूं बेचकर भी क्या पूरा कर्ज अदा हो सकता है ?भूमिविकास बैंक और सहकारी समिति वाले अलग चक्कर लगा रहे हैं। रोती-झगड़ती औरतें,लेखा माँगते बाबा...। नमस्कार करते दुकानदार।चोरों की तरह किसानों को खोजते बैंक वाले... । तहसील वाले... । दुआर पर लेटे बड़के समाधी- सब संतोख के दिमाग में नाच रहे हैं। लालटेन का शीशा गंदा हो रहा है। लौ अभी तेज़ जल रही है।
'चलो एक बोझ उतर गया, हाँ बोझ। उतर गया बोझ। आगे से इसी तरह काम करो हाथ बाँध कर। हाँ! समझे ! हाथ बांधकर। असाढ़। असाढ़ सिर पर है। समझे? असाढ़। खेती में भी तो लागत लगेगी। खेती में। हाथ बांधकर काम करो, नहीं तो बिक जाओगे। हाँ...।' -बाबा के होठों पर बारीक मुस्कान तैर रही है। लालटेन का शीशा गंदा होता जा रहा है। लौ बढ़ती जा रही है। संतोख मोढ़े से उठा तो उसे चक्कर सा महसूस हुआ। दीवार का सहारा लेते हुए वह उत्तर की अटारी की ओर चला गया। हीरालाल जी रिश्तेदारों के संग बैठे हैं नीम तले अँधेरे में। हवा के झोंके अब भी चल रहे हैं। नीम की पत्तियाँ अँधेरे में सिहर रही होंगी। कोई पक्षी बीच-बीच में पंख फड़फड़ाता है।बेटी का ब्याह किफायत से हो गया, इस ख़ुशी में बाबा मुस्कराते रहे कुछ देर। अचानक धुंधली आँखों ने बाहर  का अंधेरा देख लिया।
' छ्बललियाऽ छ्बललियाऽ! संतोख संतोख! अरे का नाम। का नाम उघन्नी। उघन्नीऽ उघन्नीऽ उघन्नीऽ।' - बाबा लगातार पुकार रहे हैं। एक ही नाम कई-कई बार। रामलली सो गयी थी शायद। संतोख उत्तर की अटारी की ओर चला गया था। हीरालाल जी के बाकी छः बेटे और उनके बेटों के बेटे थक  कर सो गये थे। हीरालाल जी लाठी के सहारे उठे। दस साल हो गये उन्हें सरकारी मुलाजमत से रिटायर हुए। जिस दिन रिटायर हुए, उसी दिन से गठिया के मरीज हो गये। उठ गये, तो बैठ नहीं पाते। बैठ गये, तो उठ नहीं पाते। जैसे ही पैरों ने इजाजत दी, वे दौड़ पड़े। बाबा हीरालाल जी को देख कर जीते हैं और हीरालाल जी बाबा के जीने के लिए जीते हैं, यह मान्यता थी।
'का है बाबू?'
- बाबा के कान के पास मुंह ले जाकर हीरालाल जी ने पूछा।
'दादूऽ दादूऽ उघन्नीऽ। उघन्नीऽ खोजो। उघन्नीऽ।'
-बाबा घबराये से लगे। हाथ काँप रहे हैं। नथुने फड़क रहे हैं। हीरालाल जी ने बाबा के सिरहाने से चाबियों का गुच्छा उठाया और उनके कांपते हाथों में थमा दिया। सुतली से बंधा भंडारघर की असली चाबियों का गुच्छा, जो असली होने के कारण बेकार हो गया है। बाबा के दिमाग के भीतरी हिस्से में एक अलग दुनिया है...। वहां ट्रैक्टर की कीमत तीन हजार है और इस खिलौने के लिए यह भी ज्यादा है। खेती की सारी उपज ट्रैक्टर की किस्त   अदा करने में चली जाती है, ज़माना बदल चुका है और नौकरी के  अवसर  कम हो गए हैं, ये खबरें नहीं पहुँची हैं अभी उस दुनिया में। घर के कई लड़कों ने बी.ए., बी.एस-सी. कर लिया है, लेकिन बाबा की दुनिया में कोई मिडिल नहीं पास है। मिडिल किया होता,तो मुलाजमत न मिल जाती अपने हीरालाल की तरह... । इस दुनिया में चलती हैं ये चाबियाँ। और कहीं नहीं है इनका काम। बेकार की चीज हो गयी हैं ये। बाबा के लिए बड़े काम की है इस गुच्छे  की हर उघन्नी-हर चाबी। हुआ यह कि यौवन के पराक्रमी बाबा अब, जबकि वे जीवन के एक सौ दस  शरद पार कर चुके हैं, तीन चीजों से डरने लगे हैं - अलगौझी से, भूतों से और मौत से। अलगौझी की समस्या को बाबा लाठी और उघन्नी के सहारे हल करते हैं। हीरालाल जी के सात पुत्रों और उनके पुत्रों के पुत्रों के बीच आये दिन छोटी-छोटी बातों पर कहा-सुनी होने लगती है। झगड़े होते हैं और हर झगड़े का समाधान अलगौझी के प्रस्ताव के साथ होता है। यों तो बाबा कम सुनते हैं, लेकिन कभी-कभी उनके कानों तक अलगौझी की उत्तेजना भरी बातें आ ही जाती हैं। ऐसे अवसरों पर विचलित हो जाते हैं बाबा। वे मूर्छित न हो जाएँ, इससे बचने के लिए हीरालाल जी के दो पुत्र बाबा को सहारा देकर बैठाते हैं। तीसरा लाठी थमाता है। अलगौझी का नाम लेने वाले को खुद ही चलकर बाबा के पास आना पड़ता है। बाबा कांपते हाथों से लाठी पकड़ते हैं। तीसरा लाठी उठाता है। अलगौझी का नाम लेने वाले की पीठ पर लाठी छुआई जाती है। सारे अंतर्विरोध मुल्तवी हो जाते हैं थोड़ी देर के लिए। सब की चिंता एक, कहीं मूर्च्छित न हो जाएँ बाबा। इस दौरान बुरी तरह कांपते रहते हैं बाबा के हाथ, होंठ  और नथुने। बड़बड़ाते रहते हैं वे थोड़ी देर तक- 'भीख, भीख, भीख मांगोगे ! भीख हाँ! भीख भी नहीं मिलेगी। कोई दरवाजे पर खड़ा नहीं होने देगा। हाँऽ।'
इस तरह लाठी और उघन्नी के सहारे बाबा अलगौझी की समस्या का समाधान करते आ रहे हैं। लेकिन इधर एक नयी समस्या खड़ी हो गयी है। अन्धेरा होते ही भूत दिखने लगते हैं बाबा को। उनके सारे दोस्त और दुश्मन मर गए हैं। अँधेरे में उनकी छवियाँ तैरती हैं।इसीलिये दिन ढलते ही बाबा कसकर पकड़ लेते हैं उघन्नी। सुतली से बंधी लोहे की पुरानी चाबियों के उस गुच्छे की छुअन से भूत पास नहीं आयेंगे, बाबा का विश्वास। अन्धेरा गहरा हो गया था। अब उघन्नी मुट्ठी में आ जाने से भूतों का भय जाता रहा। थोड़ी ही देर में बाबा के खर्राटे सुनाई पड़ने लगे। नीम तले बैठे रिश्तेदार बड़ी देर तक कौतुकपूर्वक बाबा को देखते रहे। अब वे मौसम और जमाने की बातें कर रहे हैं और यह कि किसने कितना दहेज लिया या दिया। कौन कितना कुलीन ब्राह्मण है या किसके खेत में गेहूं की उपज ज्यादा हुई। औरतों के रोने-झगड़ने की आवाजें फिर बाहर आने लगीं। इन आवाजों पर आम तौर पर ध्यान नहीं दिया जाता। घर-घर की बातें हैं ये। बच्चे सो गए हैं। हीरालाल जी के सातों बेटे और उन के बेटों के बेटे इधर-उधर सोये हैं अँधेरे में। कुछ रिश्तेदार भी सो गये हैं। जागने वाले रिश्तेदारों की खातिर-तवज्जो में हीरालाल जी लगे हैं।
गाँव से बाहर होने के कारण इस घर में रात का खाना देर से खाने का रिवाज है। रिश्तेदारों को भूख महसूस हो रही है। वे बात करने के लिए बातें कर रहे हैं। कुछ नहा-धोकर हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे हैं। हनुमान चालीसा ख़त्म हो जाने पर भी जब भोजन का बुलावा नहीं आया, तो वे सुन्दरकाण्ड का पाठ करने लगे। कहीं थ्रेशर चल रहा है। भूसे के बारीक कण हवा के साथ आ रहे हैं। वनस्पति तेलों की गंध के भभके अब भी उठ रहे हैं। अचानक किसी औरत के कराहने की आवाज बाहर तक सुनाई पड़ने लगी। फिर सब शांत... । रिश्तेदार बातें कर रहे हैं। पूरा परिवार इधर-उधर सोया है नीम तले। संतोख छत पर है। रात में वह छत पर ही सोता है बन्दूक लेकर। आज वह बन्दूक लोड करता है बार-बार। फिर कारतूस निकाल लेता है... । बड़ी बिटिया के ससुर दुआर पर लेटे हैं। सबेरे विदा कराने पर अड़े हैं। बिटिया के भी गहने-गिरौं रखने पड़े हैं। ...कहाँ मुंह दिखाएँगे? उसे डर लगने लगा अपने आप से... ।
नीम तले रिश्तेदार बातें कर रहे हैं। वे ऊंघते हुए इस बड़े परिवार की मिलौझी  और साहुत  की तारीफ  कर रहे हैं। हीरालाल जी बार-बार शिवमंदिर की ओर हाथ उठा कर कहते हैं -
'सब इन्हीं की कृपा है। '
 या कभी दालान में लेटे बाबा की ओर इशारा करके कहते हैं - 'सब इन्हीं का पुन्य-प्रताप है।'
 बीच-बीच में थ्रेशर की आवाज बंद हो जाती है, तो रींवा बोलते हैं - रींऽ रींऽ रींऽ। कहीं दूर से बीन और ढोल की आवाजें आ रही हैं। सुन्दरकाण्ड का पाठ करने वाले रिश्तेदार थक गए हैं या शायद सुन्दरकाण्ड ही समाप्त हो गया है। अचानक कई औरतों के रोने की आवाजें बाहर आने लगीं। जो सोये थे, वे जाग गए। जो जाग रहे थे, वे चौंक गए। हीरालाल जी, उनके सातों बेटे और सभी नाती-पोते, जो जहां थे, वहीँ से आँगन की ओर दौड़े।
' का बात है ? काहे हाहो-बीपो मचा रखा है? आयँ ?'
'नचकऊ बहू नहीं रहीं! ...अरे मोर करेजाऽ!'
-पल भर के लिए एक महिला विलाप बंद करके घूंघट निकालते हुए बोली और फिर विलाप में शामिल हो गयी।
'कैसे ?'
- हीरालाल जी और उनके सभी बेटे एक साथ बोल पड़े।
'अब कैसे मुंह फोर के बताएं...? खून जारी था एक महीना से।' - हीरालाल जी की पत्नी ने उन्हें एक कोने में ले जाकर कहा।
'तो दवा-दारू काहे नहीं हुई ? डाक्टर को काहे नहीं दिखाया गया?'
'महीना भर से सब बियाह - काज में दौड़ रहे हैं। किसी को मरने भर की तो मोहलत नहीं। किससे कहें और का कहें ?' इतने भारी परिवार में किसी का दुख-दुरापद जानने में ही एक महीना लग जाता है।'
'देखो, अब जो होना था, हो गया। धीरज से काम लो सब लोग। बात अभी फैलने न पाए, नहीं तो नात-मेहमान खाना नहीं खायेंगे। मिट्टी पिछवाड़े रखवा दी जाय। भोर में किरिया-करम होगा। पहले मेहमानों को खाना खिलाओ।'
-हीरालाल जी ने फुसफुसाते हुए कहा। औरतें बैन करके रो रही थीं।
'हाय मोर बहुरियाऽ।'
'हाय मोर करेजा।'
'ए चोप्प अब कोई नहीं रोयेगा। खबरदार।'
xx                             xx                           xx                                  xx 
रिश्तेदारों ने खाना खा लिया है। अब वे सो रहे हैं नीम तले। बाबा दालान में सो रहे हैं। हवा के झोंके अब भी गर्म हैं। नीम पर कोई पक्षी बेचैन होता है बार-बार। लाश पिछवाड़े रख दी गयी है। कुछ औरतें लाश को घेरकर बैठी हैं। ...लाश को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए! कुछ उपले सुलगा दिए गये हैं। ...लाश के पास आग जलनी चाहिए! एक  दिया जला दिया गया है। ...लाश के पास रोशनी होनी चाहिए! रह-रहकर औरतें सुबकने लगती हैं।
अचानक बाबा गिंगिंयाने लगे।
'गींऽऽगींऽऽ गींऽऽ।'
-बकार नहीं फूट रहा था। शब्द नहीं निकल पा रहे थे। सोये हुए लोग चौंक कर जाग गए। जो जाग रहे थे, चौंक कर बाबा के पास पहुँच गए। हीरालाल जी लाठी लिए पिछवाड़े खड़े थे। वे जितना दौड़ सकते थे, दौड़ कर बाबा के पास पहुंचे लाठी के सहारे। बाबा रो रहे थे शायद। सब चकित हुए। जो बाबा दादी के मरने पर भी नहीं रोये थे, आज इस तरह क्यों रो रहे हैं?हीरालाल जी को लगा कि नचकऊबहू वाली खबर किसी ने दे दी बाबू को...।
'गींऽऽ गींऽऽ गींऽऽ !'
- गिंगिंया रहे हैं बाबा।
'बाबूऽ बाबूऽ !'
- हीरालाल जी ने बाबा  के कान के पास मुंह ले जाकर कहा।
'दादूऽऽ दादूऽऽ दादूऽऽ !'
-अब फूटा बकार। निकलने लगे कफ से जूझते हुए शब्द। इस बीच किसी ने लालटेन का शीशा साफ कर दिया था। हाथ, होंठ और नथुने बुरी तरह काँप रहे थे। बहुत डरे हुए लग रहे थे बाबा।
'दादूऽऽ दादूऽऽ जल्दी करो। बत्तिस आना। बत्तिस आना ले आओ। हाकिमऽहाकिम आये हैं। जमपुरी के हाकिम आये हैं। टिकस काट रहे हैं टिकस। अरे जल्दी करो। बत्तिस आना। हाँ बत्तिस आना...।'
रिश्तेदार एक दूसरे का मुंह देखने लगे। हीरालाल जी ने जल्दी से बंडी से एक नोट निकाला, लालटेन के उजाले में देखा और बाबा के हाथों में थमा दिया।
'दोहाई परगना हाकिम की। दोहाई सरकार की। बड़ी कच्ची गिरस्ती। बड़ी कच्ची गिरस्ती सरकार।' आँखें मुंदी थीं। पैर छोड़कर पूरा शरीर काँप रहा था।
'पांच साल की मोहलत सरकार। बस पांच साल। बहुत गरीब असामी सरकार। बड़ी कच्ची गिरस्ती। हाँ सरकार बस पांच साल....।'
              -बुरी तरह गिड़गिड़ा रहे थे बाबा। रिश्तेदार कभी बाबा का मुंह देखते, कभी आपस में एक-दूसरे का। सब चुप थे। बड़ी देर बाद सहज हो पाए बाबा। रिश्तेदार एक-एक कर चारपाइयों  की ओर चले गए। अकेले हीरालाल जी खड़े थे बाबा के पास, लाठी के सहारे। लालटेन की रोशनी में वे बाबा का चेहरा देखते रहे लगातार। अब सहज थे बाबा। चेहरे पर चिंता की कोई रेखा नहीं। दाहिने हाथ की मुट्ठी ढीली पड़ गयी थी। दो रुपये का नोट नीचे गिर गया था। बाबा के खर्राटे सुनाई पड़ रहे थे। हीरालाल जी लाठी के सहारे पिछवाड़े गये। दूर से ही उन्होंने खांसना शुरू कर दिया कि औरतें पर्दा कर लें। पिछवाड़े रखी लाश को घेर कर बैठी औरतें रोते-रोते सो गयी थीं। दीया बुझ गया था। अँधेरे में उपलों के अंगारे चमक रहे थे एक कोने में। बाकी सब धूसर-सा दिख रहा था। लाश, लाश को घेर कर सोयी हुई औरतें, पोखरा, पीपल का पेड़ , खेत, जंगल - सब धूसर अँधेरे में डूबे थे। यह क्या चमक रहा है ...? अरे ! किसी जानवर की आँखें हैं... । कई जानवरों की आँखें हैं। ये तो दूर तक फैले हैं। मरी मिट्टी की गंध इन्हें इतनी जल्दी मिल जाती है ... । अँधेरे में आँखें दिख रही हैं, शरीर नहीं...। आँखें आगे बढ़ रही हैं...। धीरे-धीरे एक साथ... । औरतें सोयी थीं। अँधेरे में चमकती आँखों की घेराबंदी नजदीक आती जा रही थी। हीरालाल जी को डर महसूस हुआ।
''हियाँ सब सो रही हैं और जंगली जानवर घेरे आ रहे हैं। उठो सब लोग! सोना हो तो भीतर जाओ ।' -हीरालाल जी ने डांट लगायी। वे कुकुरनिंदिया सो रही थीं। सब जाग गयीं। जागते ही लाश को देखा। उन्होंने नए सिरे से रोना शुरू कर दिया।
'हाय मोर बहुरियाऽ हो!'
'हाय मोर करेजा!'
एक औरत ने बुझे दीपक को फिर से जला दिया।
'हायऽ हमें कटारी मार गयी रेऽ..!'
'हायऽ हमें लैसंसी मार गयी रेऽ..!'
                 - बैन करने की होड़ मच गयी। हीरालाल जी औरतों से थोड़ी दूरी बनाकर खड़े थे। खड़े-खड़े सोच रहे थे। सबेरे हरे बांस कटवाने होंगे... । सुहागिन का कफन लाल साड़ी का होना चाहिए... । उन्हें अपनी माँ की याद आ गयी... । लाल साड़ी में लाश बंधी थी माई की... । हरे बांस की टिकठी... । वे छोटे थे। अँधेरे में आंसू बह चले उनकी आँखों से। थोड़ी ही देर में किरिया-करम के खर्च का अनुमान करने लगे और आंसू कहीं सूख गये।
              गुमसुम पक्षी आकाश की ओर उड़े जा रहे हैं। साँयऽ साँयऽ...! हीरालाल जी ने आकाश की ओर देखा और संतोख को पुकारा। उनकी तेज आवाज पोखरे और मकान से होकर लौट आयी। संतोख भी आ गया। पिता-पुत्र बिना कुछ बोले बाबा के पास गए। संतोख एक बाल्टी पानी ले आया कुएं से। हीरालाल जी ने देखा,बाबा जाग रहे थे। दोनों ने पैताने का बिस्तर लपेटा। मूंज की चारपाई में बाध को काट कर एक  वृत्ताकार  जगह बना दी गयी थी बाबा की कमर से थोड़ा नीचे। दोनों ने पहले बाबा की, फिर चारपाई की वृताकार जगह की सफाई की। इस बीच न संतोख कुछ बोला, न हीरालाल जी। संतोख को थोड़ी राहत मिली। ...अब अब तेरह दिन बिदाई तो होगी नहीं। इस बीच वह बड़ी बिटिया के लिए कलाई-मुलम्मा वाले गहनों का इंतजाम कर सकेगा। दूसरी तरफ तेरही-बरखी का खर्च। हीरालाल जी सोच रहे हैं, अभी बाबा को नचकऊबहू वाली बात न बतायी जाय... । बाबा न सिर्फ मरने से डरते हैं, बल्कि मौत की खबरों से भी उतना ही डरते हैं और इस मृत्युलोक में कोई न कोई मरता ही रहता है... । दूसरों के मरने की खबर से जब इतना परेशान होते हैं, तो यह तो घर की ही औरत थी। जब नचकऊबहू की पारी होती खाना बनाने की, बाबा उड़द की दाल जरूर बनवाते। बाबा को सबसे ज्यादा प्रिय रसाज-बग्जा तो नचकऊबहू के सिवा कोई बना ही नहीं सकता था। जब तक बाबा का मुंह वगैरह धुला कर उन्हें फिर से लेटाया गया, उजास इतना फैल चुकी थी कि लालटेन की रोशनी बेवजह लगने लगी थी।पेट साफ़ होते ही रात का प्रसंग याद आया बाबा को। बाप रे बाप...! जमपुरी  के परगना हाकिम...! लाल-लाल आँखें...! बड़ी-बड़ी मूंछें ... ! एक क्षण के लिए फिर डर गए बाबा। थोड़ी ही देर में उन्हें पछतावा होने लगा। ...मति मारी गयी थी। बत्तिस आना और दे देते। दस साल की मोहलत मिल जाती... ।
झालाफाली होते-होते हरे बांस काट लिए गए थे। बाजार से लाल साड़ी, लाल चूड़ियाँ, सिन्दूर और सिंगार के दूसरे सामान आ गए थे। खुद नचकऊ गया था बाजार। फिर गया नचकऊ... । अब कहाँ...? थोड़ी ही देर में आ गया वह अंजुरी में फूल लेकर। कुछ फूल गमछे में भी थे। हर फूल महक रहा था। अभी दिन नहीं निकला था, लेकिन चीजें साफ -साफ दिखने लगी थीं। दुआर पर एक जगह गोबर से लीप दी गयी थी। हरे बांस की टिकठी वहीँ रख दी गयी । लाल साड़ी में लिपटी लाश। नचकउना पगला गया है। दौड़कर जाता है। अंजुरी में महकते फूल ले आता है और लाश पर डाल देता है। महीने भर से उसकी मेहरारू डाक्टर को दिखाने के लिए कह रही थी। उसने सोचा था कि ब्याह-काज निपट जाए और खेत-खलिहान का काम हो जाए, तो ले जाएगा डाक्टर के पास...। फिर रुपया तो चाहिए...। रुपया संतोख भैया के पास रहता है... । क्या कह के मांगता रूपया...? इसी हाय-बिस्स में समय निकल गया।
लोग मृतक-कर्म के जरूरी सामान सहेजने में लगे हैं। औरतों ने नचकऊ के मन की दशा को भांप लिया । अचानक औरतों की रुलाई का ऐसा आवेग उमड़ा कि आस-पास के पेड़ों पर चहचहाते पक्षी पल भर के लिए चुप हो गए। बाबा के कानों तक पहुँच गयी रुलाई। अब क्या करें...?हीरालाल जी चिंतित। अर्थी उठने के पहले जैकारे  के पहले ही हीरालाल जी ने बाबा को नचकऊबहू के मरने की खबर दे दी डरते-डरते। बाबा विचलित। कांपने लगा पूरा शरीर पैरों को छोड़कर। हीरालाल जी बहुत डर गये। कुछ हो न जाय बाबू को... ।
'जब ऐसी हारी-बीमारी थी , तो हमें काहे नहीं बताया? आँय? काहे नहीं बताया? '- बाबा की बात से हीरालाल जी चकित। क्या कर लेते बाबू...? मौत को टाल सकते थे क्या...?
'बेकार गया। बेकार गया बत्तिस आना। हाँ। अब हम जी कर का करेंगे? का करेंगे जी कर? नचकउना नचकउना नचकउना कि गिरस्ती बिगड़ गयी... । गिरस्ती हाँ... ।'- नए सिरे से पछता रहे हैं बाबा।
''उघन्नीऽ उघन्नीऽ दादूऽ उघन्नीऽ कहाँ है उघन्नीऽ ?'' - वे डरे हुए लग रहे थे। हीरालाल जी ने बाबा के सिरहाने रखा लोहे की चाबियों का गुच्छा उन्हें थमा दिया। बाबा ने कसकर पकड़ लिया गुच्छे को।
''अब दस दिन दस दिन सूदक रहेगा। हाँ हाँ दस दिन। भूत-प्रेत नाचेंगे भूत-प्रेत। दिन-दुपहरिया हाँ।'' बाबा ने फिर एक बार चाबियों के गुच्छे पर पकड़ मजबूत की।
''अब दिन में भी उघन्नीऽ मुट्ठी में पकड़ कर रखनी पड़ेगी। '' - मन में कहा बाबा ने।
''जाओ जाओ। सहूर से सहूर से हाँ सहूर से किरिया-करम करो। बहुत फैरबक्सी नहीं।''
टिकठी जा चुकी थी। कुछ फूल दालान में गिरे थे, कुछ दुआर पर। वनस्पति तेलों की गंध के भभके अब भी उठ रहे थे। मक्खियाँ उजाला होते ही भिनभिनाने लगी थीं। बाबा के पूरे शरीर पर बैठी थी मक्खियाँ। रामलली बाबा के सिरहाने खड़ी थी, लेकिन उसका ध्यान बाबा के मुंह पर बैठी मक्खियों की ओर नहीं था। पता नहीं क्या देख रही थीं उसकी सूजी हुई आँखें। बाबा की भी आँखें खुली थीं।
उघन्नी को मुट्ठी में जकड़े बाबा तेरही-बरखी के खर्च का अनुमान कर रहे थे। बच्चे अन्यमनस्क खड़े थे, जहां अभी टिकठी पड़ी थी। वे धरती पर बिखरे फूलों, अधजली अगरबत्तियों और आटे की गोलियों को सहमे-सहमे देख रहे थे।

[ 'कथादेश', अगस्त - 2007 में प्रकाशित ]

5 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय सुभाष जी,
    मुझे केवल एक ही बात थोडी सी स्पष्ट करनी है। कई बार बच्चों जैसी निश्छलता लिये शब्द भी हम मानवों के दिमाग मे भ्रम की स्तिथी पैदा कर देते हैं। मेरा साथियों शब्द से यही तात्पर्य था कि हम सभी एक दूसरे के एक समान साथी हैं। उम्मीद है आप मुझे अपने उतना ही करीब समझेंगें जितना मुझे और शिव शंकर को समझते हैं।

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  2. PALIWALJI, vo to samajhta hi hun anytha itna rob kaise ganthata. apnon par hi to rutha jata hai, kyonki apanon se apekshayen kuchh jyada hotin hain.

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  3. जिन्दा लोगों की तलाश!
    मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!


    काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
    =0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=

    सच में इस देश को जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।

    हमें ऐसे जिन्दा लोगों की तलाश हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।

    इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।

    अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।

    आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।

    शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-

    सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! अब हम स्वयं से पूछें कि-हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?

    जो भी व्यक्ति इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-

    (सीधे नहीं जुड़ सकने वाले मित्रजन भ्रष्टाचार एवं अत्याचार से बचाव तथा निवारण हेतु उपयोगी कानूनी जानकारी/सुझाव भेज कर सहयोग कर सकते हैं)

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
    राष्ट्रीय अध्यक्ष
    भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
    राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
    7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
    फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
    E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in

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  4. Aadaraneeya aur aatmeeya saathiyon, blog kee duniyaa men nayaa hoon. aap logon kee tippaniyon ne mujhe utsaahit kiyaa. Aabhaar!

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